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Sambhav-2025

  • 16 Dec 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस-13दक्षिण भारत के इतिहास में चोलों के काल का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • चोल राजवंश का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
    • चोल काल की उल्लेखनीय उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये।
    • चोल राजवंश की चुनौतियों और आलोचनाओं पर चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष निकालिये।

    परिचय:

    चोलों को भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में लंबे समय तक शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों में से एक माना जाता है (900-1200 ई.)। चोल साम्राज्य सांस्कृतिक समृद्धि, सैन्य क्षमता और प्रशासनिक कौशल का प्रतीक बना।

    मुख्य भाग:

    दक्षिण भारत में चोल काल विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियों का समय था:

    • राजनीतिक उपलब्धियाँ:
      • सैन्य कौशल: चोल अपनी दुर्जेय सैन्य और नौसेना शक्ति के लिये जाने जाते थे। उन्होंने सफल सैन्य अभियानों के माध्यम से अपने क्षेत्रों का विस्तार किया।
        • राजेंद्र प्रथम ने कलिंग के राजाओं पर विजय के उपलक्ष्य में गंगईकोंडचोला (गंगा पर विजय प्राप्त करने वाला चोल) की उपाधि धारण की।
        • चोल नौसेना का बंगाल की खाड़ी क्षेत्र पर प्रभुत्व था और खाड़ी को बोलचाल की भाषा में चोल झील कहा जाने लगा।
      • केंद्रीकृत प्रशासन: चोलों ने राजस्व संग्रह, कानून प्रवर्तन और शासन के लिये कुशल तंत्र के साथ एक मज़बूत तथा केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की।
        • चोल राज्य मंडलम में विभाजित थे। प्रशासन की मूल इकाई नाडु थी।
      • स्थानीय प्रशासन: चोल गाँवों द्वारा प्राप्त स्वशासन एक अच्छी प्रणाली थी।
        • उर गाँव की आम सभा थी, जबकि महासभा में गाँव के वयस्क पुरुषों का एकत्रण होता था।
    • आर्थिक समृद्धि:
      • भू-राजस्व: चोल शासकों ने भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण करवाकर भू-राजस्व में सरकार के हिस्से को निर्धारित किया।
      • कृषि नवाचार: चोलों ने नवीन कृषि पद्धतियों की शुरुआत की, जैसे- विस्तृत सिंचाई प्रणालियों का निर्माण।
        • कावेरी नदी और अन्य नदियों का उपयोग इस उद्देश्य के लिये किया गया था।
      • व्यापार और वाणिज्य: दक्षिण भारत ने चोलों के शासनकाल में व्यापक व्यापार नेटवर्क के कारण आर्थिक समृद्धि का अनुभव किया।
        • नागपट्टिनम जैसे बंदरगाह दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ समुद्री व्यापार के लिये महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गए।
    • सांस्कृतिक एवं कलात्मक योगदान:
      • मंदिर वास्तुकला: दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला चोलों के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची।
        • तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर उनकी स्थापत्य कला का प्रमाण है।
      • मूर्तिकला: इस काल में दक्षिण भारत में मूर्तिकला कला ने उच्च स्तर प्राप्त कर लिया था।
        • सरवण बेलगोला में गोमतेश्वर और नटराज की विशाल प्रतिमा को उत्कृष्ट कृति माना जाता था।
      • साहित्य और शिक्षा: चोल कला और शिक्षा के संरक्षक थे तथा उन्होंने बौद्धिक गतिविधियों के लिये अनुकूल वातावरण को बढ़ावा दिया।
        • ऐसा माना जाता है कि कंबन रामायण इसी काल में लिखी गई थी।

    चुनौतियाँ और आलोचनाएँ:

    • सामंती संघर्ष: चोल शासन के बाद के काल में आंतरिक कलह और कुलीनों के बीच संघर्ष देखा गया, जिससे केंद्रीय सत्ता कमज़ोर हो गई।
      • पल्लव प्रमुख ने वर्ष 1243 के आस-पास स्वतंत्रता की घोषणा की।
    • पतन और उत्तराधिकार संबंधी मुद्दे: राजवंश को पतन और उत्तराधिकार संबंधी विवादों का सामना करना पड़ा, जिससे चोल साम्राज्य की स्थिरता प्रभावित हुई।
      • होयसल साम्राज्य के विस्तार ने धीरे-धीरे चोल सत्ता को अपने अधीन कर लिया।

    निष्कर्ष:

    चोल के प्रशासनिक नवाचारों, आर्थिक समृद्धि और कलाओं के संरक्षण ने इस क्षेत्र की पहचान को गहराई से प्रभावित किया है। चोल विरासत दक्षिण भारत की ऐतिहासिक कथा का एक अभिन्न अंग बनी हुई है, जो सदियों से गूँजती रही है और इस क्षेत्र की जीवंत सांस्कृतिक विरासत में योगदान देती रही है।

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