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24 Dec 2024
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस-20: 1757 से 1857 के बीच अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने और उसे वैध रूप देने के लिये अपनाई गई प्रशासनिक नीतियों का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियों के संदर्भ का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- विस्तार के लिये प्रयुक्त प्रमुख प्रशासनिक रणनीतियों का विश्लेषण कीजिये।
- इन नीतियों को भारतीय संप्रभुता पर उनके दीर्घकालिक प्रभाव से जोड़ते हुए निष्कर्ष निकालिये।
परिचय:
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कूटनीति और दबाव का संयोजन करने वाली अभिनव प्रशासनिक नीतियों के माध्यम से भारत में अपनी सर्वोच्चता का विस्तार किया। वर्ष 1757 से 1857 के बीच लागू की गई ये नीतियाँ भारतीय राज्यों को राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर करने के लिये रणनीतिक रूप से बनाई गई थीं, जिससे अंग्रेज़ सीधे युद्ध का सहारा लिये बिना अपने क्षेत्रीय नियंत्रण का विस्तार कर सके।
मुख्य भाग:
वर्ष 1757-1857 के दौरान भारतीय क्षेत्रों पर अपने नियंत्रण को वैध बनाने और विस्तारित करने के लिये प्रमुख प्रशासनिक नीतियाँ:
- रिंग-फेंस की नीति (1770 के दशक):
- वॉरेन हेस्टिंग्स द्वारा प्रस्तुत इस नीति का उद्देश्य मराठों और अफगानों जैसे बाहरी खतरों से ब्रिटिश क्षेत्रों की रक्षा के लिये बफर ज़ोन का निर्माण करना था।
- उदाहरण: बंगाल की सुरक्षा के लिये अवध की रक्षा को प्राथमिकता दी गई, जिसके तहत नवाब को ब्रिटिश सेना के रखरखाव के लिये भुगतान करने हेतु मजबूर किया गया।
- हालाँकि इसे रक्षात्मक नीति के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इस नीति ने धीरे-धीरे भारतीय राज्यों को ब्रिटिश निर्भरता में डाल दिया, जिसके परिणामस्वरूप उनके संसाधन समाप्त हो गए।
- आर्थिक शोषण:
- स्थायी बंदोबस्त जैसी प्रशासनिक व्यवस्था ने अंग्रेज़ों के लिये एक स्थिर राजस्व प्रवाह सुनिश्चित किया, जबकि भारतीय किसानों को गरीब बना दिया।
- स्थानीय संसाधनों का दोहन करके अंग्रेज़ों ने भारतीय शासकों के आर्थिक आधार को क्षीण कर दिया, जिससे वे प्रतिरोध करने में असमर्थ हो गए।
- सामरिक संधियाँ और गठबंधन:
- इलाहाबाद की संधि (1765) जैसी संधियों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में ब्रिटिश दीवानी अधिकार (राजस्व संग्रह) प्रदान किये, जिससे आगे विस्तार के लिये महत्त्वपूर्ण संसाधन सुरक्षित हो गए।
- रियासती दरबारों में तैनात ब्रिटिश रेजीडेंट आंतरिक शासन को प्रभावित करते थे तथा वफादारी और अनुपालन सुनिश्चित करते थे।
- सहायक गठबंधन (1798-1805):
- लॉर्ड वेलेस्ली द्वारा प्रस्तुत इस नीति ने भारतीय शासकों को अपने क्षेत्रों में ब्रिटिश सैन्य उपस्थिति को स्वीकार करने के लिये बाध्य किया।
- उदाहरण: हैदराबाद के निज़ाम (1798) और अवध के नवाब (1801) ने संधियों पर हस्ताक्षर करके अपनी संप्रभुता ब्रिटिश नियंत्रण के तहत सौंप दी।
- भारतीय शासकों को अपनी सेनाएँ भंग करनी पड़ी और सुरक्षा के लिये पूरी तरह से ब्रिटिश सेना पर निर्भर रहना पड़ा, जिसके लिये उन्हें भारी सब्सिडी देनी पड़ी।
- इस नीति ने शासकों को आश्रित जागीरदार बना दिया, जिससे उनकी संप्रभुता और वित्तीय स्वतंत्रता समाप्त हो गई।
- व्यपगत का सिद्धांत (1848-1856):
- इस नीति के अंतर्गत यह निर्धारित किया गया कि जिन भारतीय राज्यों का कोई स्वाभाविक पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होगा, वे ब्रिटिश शासन के अधीन कर दिये जाएंगे।
- इस नीति के तहत झाँसी, नागपुर और सतारा जैसे राज्यों के विलय से उत्तराधिकार की पारंपरिक प्रणाली बाधित हुई तथा भारतीय शासकों के अधिकार को कमज़ोर किया गया।
- इस सिद्धांत को लागू करके, अंग्रेज़ों ने क्षेत्रीय विस्तार को "कानूनी आवश्यकता" के रूप में उचित ठहराया, जिससे शासकों और जनता दोनों में असंतोष उत्पन्न हो गया।
निष्कर्ष:
कानूनी और कूटनीतिक औचित्य के रूप में प्रस्तुत की गई ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियाँ, दरअसल, उनके क्षेत्रीय नियंत्रण का विस्तार करने के लिये प्रभावी शोषण का तरीका थीं। डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स और सब्सिडियरी एलायंस जैसी रणनीतियों को आर्थिक एवं राजनीतिक हेरफेर के साथ जोड़कर, उन्होंने व्यवस्थित रूप से भारतीय संप्रभुता को नष्ट कर दिया, जिससे औपनिवेशिक वर्चस्व की नींव रखी गई।