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Sambhav-2025

  • 16 Dec 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस-13: हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष के कारणों का विश्लेषण कीजिये और इसके परिणामों का मूल्यांकन कीजिये।(250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • उत्तर भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
    • त्रिपक्षीय संघर्ष के कारणों पर चर्चा कीजिये।
    • त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणामों पर चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष निकालिये।

    परिचय:

    उत्तर भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष की अवधि को दर्शाता है, जो हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद हुआ, विशेष रूप से 7वीं शताबदी के मध्य से 10वीं शताबदी तक। इस युग में तीन प्रमुख शक्तियों के बीच शक्ति का संतुलन और तीव्र प्रतिस्पर्द्धा देखी गई: पाल साम्राज्य, प्रतिहार साम्राज्य और राष्ट्रकूट साम्राज्य।

    मुख्य भाग:

    त्रिपक्षीय संघर्ष को उत्पन्न करने वाले कारक:

    • साम्राज्य विखंडन: 7वीं शताब्दी के मध्य में हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो गई। एक मज़बूत केंद्रीय सत्ता के अभाव में हर्ष साम्राज्य छोटे-छोटे क्षेत्रीय इकाइयों में विखंडित हो गया।
      • पाल और प्रतिहार साम्राज्य ने ऊपरी गंगा घाटी पर नियंत्रण के लिये एक-दूसरे से संघर्ष किया, जबकि प्रतिहार साम्राज्य ने मालवा तथा गुजरात पर नियंत्रण के लिये राष्ट्रकूट साम्राज्य से संघर्ष किया।
    • आर्थिक कारक: गुप्त साम्राज्य के पतन और सिल्क रोड के विघटन के कारण व्यापार मार्गों के टूटने तथा आर्थिक संकट ने इस क्षेत्र की समृद्धि को प्रभावित किया। आर्थिक कठिनाइयों ने स्थानीय संघर्षों को बढ़ावा दिया होगा क्योंकि शासक संसाधनों पर नियंत्रण करना चाहते थे।
      • राष्ट्रकूट लोग सकलोत्तरपथनाथ (उत्तरपथ के स्वामी) की उपाधि पाने की आकांक्षा से कन्नौज की ओर आकर्षित हुए थे। इसी तरह पालों ने उत्तरपथस्वामी (उत्तरपथ के स्वामी) की उपाधि पाने की इच्छा को व्यक्त किया।
    • सामंती सरदारों का उदय: जागीरदार शासकों और स्वायत्त सरदारों ने राजा के प्रत्यक्ष शासन को सीमित कर दिया, लगातार युद्धों में उलझे रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक शक्ति खंडित हो गई, जिससे एक भी प्रमुख राज्य का उदय नहीं हो सका।
    • राष्ट्रकूटों को वेंगी के जागीरदार सरदारों के साथ निरंतर युद्धों का सामना करना पड़ा, जबकि प्रतिहारों को मालवा के परमारों के साथ निरंतर संघर्ष का सामना करना पड़ा।

    त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम:

    • केंद्रीय सत्ता का कमज़ोर होना: तीनों साम्राज्यों के बीच लगातार युद्ध और सत्ता संघर्ष के परिणामस्वरूप केंद्रीय सत्ता कमज़ोर हो गई, जिससे क्षेत्र आंतरिक विद्रोहों तथा बाहरी आक्रमणों के प्रति संवेदनशील हो गए।
    • क्षेत्रीय शक्तियों का एकीकरण: पूर्व में पाल साम्राज्य, उत्तर-पश्चिम में प्रतिहार साम्राज्य और दक्कन में राष्ट्रकूट साम्राज्य प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों के रूप में उभरे।
      • प्रत्येक राजवंश ने राजनीतिक शक्ति को सुदृढ़ करने और क्षेत्रीय विकास में अपना योगदान दिया।
    • तनावपूर्ण अर्थव्यवस्था: सैन्य अभियानों के लिये धन की निरंतर आवश्यकता ने साम्राज्यों की आर्थिक संरचना को तनावपूर्ण बना दिया।
    • सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता: त्रिपक्षीय संघर्ष ने विभिन्न संस्कृतियों और धार्मिक प्रथाओं के संरक्षण एवं विकास को संभव बनाया। विभिन्न क्षेत्रों ने अपनी विशेष सांस्कृतिक पहचान बनाई, जिससे भारतीय इतिहास के समृद्ध धरोहर में महत्त्वपूर्ण योगदान हुआ।
      • नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार धर्मपाल ने किया था
    • सैन्य नवाचार: निरंतर संघर्षों ने शासकों को सैन्य नवाचारों और रणनीतियों में निवेश करने के लिये प्रेरित किया।
      • इस अवधि में किलेबंदी, घुड़सवार सेना और नौसैनिक प्रौद्योगिकियों में विकास हुआ, क्योंकि शासकों ने अपने क्षेत्रों की रक्षा करने का प्रयास किया।
    • कला और वास्तुकला: स्थानीय शासकों ने कलाओं का संरक्षण किया, जिसके परिणामस्वरूप मंदिरों, मूर्तियों और अन्य स्थापत्य चमत्कारों का निर्माण हुआ, जो क्षेत्रीय शैलियों को दर्शाते थे।
      • एलोरा में शिव का प्रसिद्ध चट्टान द्वारा निर्मित मंदिर राष्ट्रकूट राजाओं द्वारा बनाया गया था।

    निष्कर्ष:

    उत्तर भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारकों का एक जटिल अंतर्विरोध था। इसने राजनीतिक विखंडन और स्थानीय शासन को जन्म दिया, लेकिन इसने सांस्कृतिक विविधता को भी बढ़ावा दिया तथा बाद की क्षेत्रीय शक्तियों के लिये आधार तैयार किया जिसने मध्यकालीन भारत के इतिहास को आकार दिया।

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