दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रायद्वीपीय भारत का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- प्रायद्वीपीय भारत के भू-वैज्ञानिक विकास पर चर्चा कीजिये।
- क्षेत्र की स्थलाकृति और भू-आकृतियों पर इसके प्रभाव की व्याख्या कीजिये।
- उचित रूप से निष्कर्ष निकालिये।
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परिचय:
प्रायद्वीपीय भारत, विश्व के सबसे प्राचीन भू-भागों में से एक है, जो अरबों वर्षों के भू-वैज्ञानिक विकास का साक्षी है। यह क्षेत्र मुख्य रूप से पुरानी चट्टानों से निर्मित है और इसके भू-वैज्ञानिक इतिहास ने इसकी विविध स्थलाकृतिक विशेषताओं, जैसे पठार, पर्वत, घाटियाँ एवं तटीय मैदान, को आकार दिया है।
मुख्य भाग:
प्रायद्वीपीय भारत का भू-वैज्ञानिक विकास
- प्री-कैम्ब्रियन युग (लगभग 4 अरब से 570 मिलियन वर्ष पूर्व): प्री-कैम्ब्रियन काल के दौरान, यह क्षेत्र प्राचीन गोंडवाना महाद्वीप का हिस्सा था।
- कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में धारवाड़ प्रणाली प्राचीन ग्रेनाइट तथा नीस चट्टानों से बनी है।
- आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में स्थित कुडप्पा बेसिन चूना पत्थर तथा बलुआ पत्थर जैसी तलछटी जमाओं के लिये विख्यात है।
- राजस्थान में अरावली पर्वतमाला, जो सबसे पुरानी वलित पर्वत प्रणालियों में से एक है, भी इस अवधि के दौरान विवर्तनिक हलचलों के माध्यम से उभरी।
- पैलियोज़ोइक युग (570-245 मिलियन वर्ष पूर्व): इस समय के दौरान प्रायद्वीपीय पठार का निर्माण शुरू हुआ तथा कोयला और लौह अयस्क जैसे कई खनिज भंडारों का निर्माण शुरू हुआ।
- मेसोज़ोइक युग (245-66 मिलियन वर्ष पूर्व): इस युग के दौरान सुपरमहाद्वीप गोंडवाना का विघटन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप एक अलग भू-भाग के रूप में भारतीय उप-महाद्वीप का निर्माण हुआ।
- महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में फैला डेक्कन ट्रैप, क्रेटेशियस काल के अंत में हुई विशाल ज्वालामुखीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप बनी ज्वालामुखीय चट्टान संरचना है।
- ये ज्वालामुखी विस्फोट टेक्टोनिक प्लेटों के विखंडन और विचलन के कारण हुए, जिसके कारण हिंद महासागर का द्वार खुल गया।
- लावा प्रवाह के परिणामस्वरूप विशाल पठारी क्षेत्र का निर्माण हुआ, जिसे अब दक्कन पठार के नाम से जाना जाता है।
- सेनोज़ोइक युग (66 मिलियन वर्ष पूर्व से वर्तमान तक): प्रायद्वीपीय भारत में टेक्टोनिक गतिविधि का अंतिम चरण सेनोज़ोइक युग के दौरान हुआ, जहाँ भूमि का और अधिक उत्थान हुआ, जिसने आधुनिक स्थलाकृति को आकार दिया।
- इस क्षेत्र की नर्मदा, तापी और गोदावरी जैसी नदियों ने अपना वर्तमान मार्ग बनाना शुरू कर दिया तथा तलछट के जमने से गंगा एवं नर्मदा घाटियों के उपजाऊ मैदानों का निर्माण हुआ।
- विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमालाएँ भी ऊपर उठ गईं, जिससे भारत के मध्य एवं उत्तरी मैदानों को विभाजित करने वाली प्रमुख पर्वतीय बाधाएँ बन गईं।
स्थलाकृति और भू-आकृतियों पर प्रभाव
- पठार की विशेषताएँ: दक्कन का पठार बेसाल्टिक चट्टान से समृद्ध है और महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं तेलंगाना सहित कई राज्यों में फैला हुआ है।
- छोटानागपुर पठार, जो मुख्य रूप से झारखंड में है, इस उच्चभूमि क्षेत्र का एक और उदाहरण है जो कोयला, लौह अयस्क एवं मैंगनीज़ जैसे खनिज संसाधनों से समृद्ध है।
- पर्वत शृंखलाएँ: प्रायद्वीपीय भारत में कई प्रमुख पर्वत शृंखलाएँ हैं, जो टेक्टोनिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप बनी हैं।
- राजस्थान से गुजरात तक फैली अरावली शृंखला विश्व की सबसे पुरानी पर्वत शृंखलाओं में से एक है और इसमें मुख्य रूप से ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानें हैं।
- विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमालाएँ, जो उत्तरी मैदानी क्षेत्रों एवं दक्कन पठार के बीच एक प्राकृतिक सीमा का काम करती हैं, खनिजों तथा वनों से समृद्ध हैं।
- नदियाँ और घाटियाँ: प्रायद्वीपीय भारत के भू-वैज्ञानिक इतिहास ने कई महत्त्वपूर्ण नदी प्रणालियों के निर्माण को जन्म दिया है।
- नर्मदा घाटी से होकर बहने वाली नर्मदा नदी, सेनोज़ोइक युग के दौरान टेक्टोनिक बलों द्वारा निर्मित दरार घाटी का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
- गुजरात में तापी नदी एक दरार घाटी से होकर बहती है, जिसने कई सुंदर घाटियाँ और घाटी संरचनाओं का निर्माण किया है।
- पूर्व की ओर बहने वाली गोदावरी और कृष्णा नदियों ने कोंकण एवं कर्नाटक के मैदान जैसे उपजाऊ मैदानों का निर्माण किया है, जो कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- तटीय विशेषताएँ: पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट क्रमशः भारत के पश्चिमी एवं पूर्वी तटों पर प्राकृतिक अवरोध बनाते हैं।
- पूर्वी और पश्चिमी तटों के तटीय मैदान समय के साथ तलछट के संचय से निर्मित हुए हैं एवं ये भारत की कृषि तथा आर्थिक गतिविधियों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- महाराष्ट्र में कोंकण तट और तमिलनाडु में कोरोमंडल तट दो ऐसे उपजाऊ तटीय मैदान हैं।
- पारिस्थितिक विविधता: प्रायद्वीपीय भारत की विविध स्थलाकृति, जो इसके भू-वैज्ञानिक इतिहास से प्रभावित है, पारिस्थितिक तंत्र की समृद्ध विविधता को समर्थन प्रदान करती है।
- पश्चिमी घाट, जो एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है, वनस्पति और जीवों की अनगिनत स्थानिक प्रजातियों का निवास स्थान है।
निष्कर्ष
प्रायद्वीपीय भारत का भू-वैज्ञानिक विकास इसकी विविध स्थलाकृति, खनिज संसाधनों, नदी प्रणालियों और पारिस्थितिकी तंत्र को आकार देने में सहायक रहा है। इस भू-वैज्ञानिक इतिहास का प्रभाव क्षेत्र की भौगोलिक संरचना पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जिसमें विशाल पठार, पर्वत शृंखलाएँ, उपजाऊ मैदान और तटीय क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र के समृद्ध खनिज संसाधन और कृषि की उर्वरता भारत के आर्थिक तथा पारिस्थितिक परिदृश्य को आकार देने में इसके भू-वैज्ञानिक विकास के महत्त्व को उजागर करते हैं।