प्रश्न 1. स्वदेशी आंदोलन द्वारा सैद्धांतिक, कूटनीतिक और कार्यक्रम संबंधी स्तरों पर नवीन विचारों को किस प्रकार प्रस्तुत किया गया था? उन कारकों पर चर्चा कीजिये जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसके शुरुआती प्रभाव के बावजूद इसकी प्रभावशीलता को कम करने में योगदान दिया था। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- स्वदेशी आंदोलन द्वारा प्रस्तुत नवीन विचारों पर चर्चा कीजिये।
- उन कारकों पर चर्चा कीजिये जिन्होंने इसकी प्रभावशीलता को कम करने में योगदान दिया था।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
स्वदेशी आंदोलन की उत्पत्ति विभाजन विरोधी आंदोलन (जो बंगाल के विभाजन के संबंध में ब्रिटिश फैसले के विरोध में शुरू किया गया था) के दौरान हुई थी। आत्मनिर्भरता और उपनिवेशवाद-विरोधी भावना के सिद्धांतों से प्रेरित इस आंदोलन द्वारा सैद्धांतिक, प्रचार एवं कार्यक्रम संबंधी स्तरों पर नवीन विचारों को प्रस्तुत किया गया।
मुख्य भाग:
स्वदेशी आंदोलन द्वारा प्रस्तुत नवीन विचार:
- सैद्धांतिक नवाचार:
- आर्थिक राष्ट्रवाद: इस आंदोलन में आर्थिक आत्मनिर्भरता के विचार का प्रचार किया गया, जिसमें स्वदेशी उद्योगों की आवश्यकता के साथ ब्रिटिश शासन से आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया गया।
- इसमें आत्मनिर्भरता या 'आत्मशक्ति' को प्रोत्साहित किया गया। स्वदेशी कपड़ा मिलों, माचिस कारखानों, चर्मशोधन कारखानों, बैंकों, बीमा कंपनियों, दुकानों आदि की स्थापना से स्वदेशी भावना को बल मिला।
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद: स्वदेशी विचार ने राष्ट्रीय गौरव एवं पहचान की भावना को बढ़ावा देते हुए स्वदेशी संस्कृति, भाषा एवं परंपराओं के पुनरुद्धार को बढ़ावा दिया था।
- "अमार सोनार बांग्ला" को वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था।
- प्रचार पहल:
- बहिष्कार आंदोलन: ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के आह्वान का उद्देश्य औपनिवेशिक सत्ता को आर्थिक रूप से कमज़ोर बनाना था, यह विरोध का एक अनूठा रूप बन गया।
- विरोध के इस रूप को व्यावहारिक और लोकप्रिय स्तर पर बड़ी सफलता मिली।
- त्योहारों का कल्पनाशील उपयोग: इसके पीछे विचार यह था कि पारंपरिक त्योहारों और अवसरों के माध्यम से लोगों तक पहुँचने के साथ राजनीतिक संदेश का प्रचार किया जाए।
- तिलक के गणपति और शिवाजी उत्सव न केवल पश्चिमी भारत में बल्कि बंगाल में भी स्वदेशी प्रचार का माध्यम बन गए।
- प्रतीकवाद: इस आंदोलन के दौरान स्वदेशी ध्वज जैसे प्रतीकों के साथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को अपनाया गया, जिससे औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध का संदेश प्रभावी रूप से संप्रेषित हुआ।
- राष्ट्रवादी विचारधाराओं के प्रसार के लिये स्वदेशी साहित्य, समाचार पत्रों और पैम्फलेटों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया था।
- कार्यक्रम स्तर पर नवाचार:
- राष्ट्रीय शिक्षा: स्वदेशी समर्थकों ने एकता एवं ज्ञान की भावना को बढ़ावा देने के साथ राष्ट्रवादी आदर्शों को बढ़ावा देने के लिये शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की।
- 15 अगस्त, 1906 को एक राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना के साथ बंगाल नेशनल कॉलेज और बंगाल तकनीकी संस्थान की स्थापना की गई।
- सामूहिक भागीदारी :
- स्वयंसेवकों का दल या 'समितियाँ': अश्विनी कुमार दत्त की स्वदेश बांधब समिति (बारीसाल में) जैसी समितियाँ, जनसमूह को संगठित करने के लोकप्रिय एवं शक्तिशाली साधन के रूप में उभरीं।
- छात्र: स्वदेशी का प्रचार करने और विदेशी वस्तुओं को बेचने वाली दुकानों पर धरना देने का नेतृत्व करने के लिये छात्र बड़ी संख्या में सामने आए।
- महिलाएँ: राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- श्रमिक अशांति और ट्रेड यूनियन: स्वदेशी आंदोलन से ट्रेड यूनियनों के गठन को मज़बूती मिली।
- अखिल भारतीय पहलू: बंगाल की एकता और स्वदेशी को समर्थन के चलते बहिष्कार आंदोलन देश के कई हिस्सों तक फैल गया।
प्रभावशीलता को कम करने में योगदान देने वाले कारक:
- अंग्रेज़ों द्वारा अपनाए गए दमनकारी उपाय:
- नेताओं का दमन: ब्रिटिश अधिकारियों ने दमनकारी उपायों के साथ प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार किया और असंतोष को दबाने पर बल दिया जिससे आंदोलन की संगठनात्मक संरचना कमज़ोर हुई।
- सेंसरशिप: स्वदेशी साहित्य पर सेंसरशिप लगाने के कारण इसकी पहुँच सीमित हो गई, जिससे राष्ट्रवादी विचारों के प्रभावी संचार में बाधा उत्पन्न हुई।
- उग्रवादी रणनीति का दमन: स्वदेशी आंदोलन के तहत कुछ गुटों द्वारा उग्रवादी रणनीति के उपयोग से जुड़ी हिंसा के कारण ब्रिटिश अधिकारियों ने कड़ी कार्रवाई की थी।
- आंतरिक मतभेद और विखंडन:
- वैचारिक मतभेद: स्वदेशी नेताओं के बीच आंतरिक और वैचारिक मतभेदों के कारण आंदोलन को लेकर विभाजन के चलते इसका प्रभाव उनकी एकता एवं प्रभावशीलता पर देखा गया।
- सूरत विभाजन (1907) से प्रमुख नेताओं के बीच आंतरिक संघर्षों ने आंदोलन को बहुत नुकसान पहुँचाया।
- केंद्रीकृत नेतृत्व का अभाव: यह आंदोलन एक प्रभावी संगठन या पार्टी संरचना बनाने में विफल रहा तथा इसमें केंद्रीकृत नेतृत्व का अभाव था।
- वर्ष 1908 तक अधिकांश नेताओं को या तो गिरफ्तार कर लिया गया या निर्वासित कर दिया गया, साथ ही अरबिंदो घोष तथा बिपिन चंद्र पाल सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त हो गए जिससे यह आंदोलन नेतृत्वहीन हो गया।
- सीमित प्रभाव:
- आम लोगों तक पहुँचने में असफल: यह आंदोलन मुख्यतः उच्च एवं मध्यम वर्गों और ज़मींदारों तक ही सीमित रहा किंतु आम लोगों (विशेषकर किसानों) तक पहुँचने में विफल रहा।
- आर्थिक चुनौतियाँ: इस आंदोलन के दौरान सफल स्वदेशी उद्योगों की स्थापना में चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, इसके आर्थिक प्रभाव के कारण आर्थिक बहिष्कार की गति धीमी पड़ गई।
- आयात पर निर्भरता: भारतीय उद्योग ब्रिटिश वस्तुओं को प्रतिस्थापित करने के लिये पूरी तरह से तैयार नहीं थे, जिसके कारण आयातित उत्पादों पर निर्भरता बनी रही।
निष्कर्ष:
स्वदेशी आंदोलन ने भविष्य के संघर्षों के लिये आधार तैयार किया तथा इसमें ऐसी तकनीकों (असहयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध, ब्रिटिश जेलों को भरना और सामाजिक सुधार) को अपनाना गया जो बाद की गांधीवादी राजनीति में देखी गई थी।