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02 Feb 2024
सामान्य अध्ययन पेपर 1
भूगोल
दिवस 65
Q2. काली मृदाएँ क्या हैं? इनके निर्माण एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर की शुरुआत काली मृदा के परिचय के साथ कीजिये।
- काली मृदा के निर्माण का वर्णन कीजिये।
- काली मृदा की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
काली मृदा, जिसे रेगुर मृदा भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप में एक महत्त्वपूर्ण प्रकार की मृदा है। जो कृषि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और देश के विभिन्न हिस्सों में पाई जाती है। ये मृदा अपनी उच्च उर्वरता के कारण कृषि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
मुख्य भाग:
काली मिट्टी का निर्माण:
- मूल सामग्री:
- बेसाल्टिक चट्टानें काली मृदा के लिये प्राथमिक मूल सामग्री हैं।
- फेरोमैग्नेशियाई खनिजों सहित बेसाल्ट की खनिज संरचना, मृदा की उर्वरता को प्रभावित करती है।
- जलवायु:
- उच्च तापमान और मौसमी वर्षा की विशेषता वाली जलवायु चट्टानों के अपक्षय के लिये अनुकूल है।
- आर्द्र और शुष्क अवधि में परिवर्तन से खनिजों के विघटन में तीव्रता आती है, जो मृदा निर्माण में योगदान देता है।
- वनस्पति:
- किसी क्षेत्र में वनस्पति का प्रकार काली मृदा की कार्बनिक सामग्री को प्रभावित कर सकता है।
- क्षयकारी पौधों की सामग्री ह्यूमस सामग्री में योगदान करती है, जिससे मृदा की उर्वरता बढ़ती है।
काली मृदा की विशेषताएँ:
- रंग:
- काली मृदा की सबसे अच्छी विशेषता उसका गहरा रंग है, जो गहरे काले से लेकर गहरे भूरे रंग के समान होता है।
- ऐसा रंग लोहे और कार्बनिक पदार्थों की उपस्थिति के कारण माना जाता है।
- बनावट:
- काली मृदा अपनी महीन रचना के लिये जानी जाती है, जो एक चिकनी, भुरभुरी संरचना प्रदान करती है।
- महीन कण उचित वायु मिश्रण और आर्द्रता बनाए रखते हैं, जिससे वे खेती के लिये उपयुक्त हो जाते हैं।
- यह विशेषता शुष्क अवधि के दौरान विशेष रूप से फायदेमंद होती है, जिससे फसलों को आर्द्रता की निरंतर आपूर्ति मिलती है।
- पोषक तत्त्वों से भरपूर:
- कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम और फॉस्फोरस जैसे आवश्यक पोषक तत्त्वों की उपस्थिति के कारण काली मृदा अत्यधिक उपजाऊ होती है।
- pH स्तर:
- काली मृदा थोड़ी अम्लीय से न्यूट्रल होती है, जिसका pH स्तर 6.5 से 7.5 के बीच होता है।
- यह pH रेंज विभिन्न प्रकार की फसलों की वृद्धि के लिये अनुकूल है।
निष्कर्ष:
काली मृदा मुख्य रूप से दक्कन के पठार में पाई जाती है, जिसमें महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे राज्य और कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। इन क्षेत्रों में उनकी व्यापक उपस्थिति का कृषि पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, जिससे फसल पैटर्न और उत्पादकता प्रभावित होती है।