प्रश्न 2. 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर स्वतंत्रता के बाद की अवधि तक भारत की राष्ट्रीय विदेश नीति के विकासक्रम पर प्रकाश डालिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत की विदेश नीति का परिचय देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- 19वीं सदी के अंत में भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति के विकास पर चर्चा कीजिये।
- 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के दौरान भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति का विश्लेषण कीजिये।
- उचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर स्वतंत्रता के बाद तक महत्त्वपूर्ण विकास देखा गया। यह परिवर्तनकारी यात्रा स्वतंत्रता के लिये देश के संघर्ष, एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में इसके उद्भव एवं विश्व में एक विशिष्ट पहचान की इसकी प्रेरणा को दर्शाती है।
मुख्य भाग:
भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति का विकास:
19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत तक:
- प्रारंभिक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण:
- 19वीं सदी के अंत में भारतीय राष्ट्रवादियों ने मुख्य रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया।
- दादाभाई नौरोजी और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने औपनिवेशिक शोषण के कारण होने वाली आर्थिक बर्बादी पर प्रकाश डाला, जिससे विश्व स्तर पर इस संदर्भ में बहस का मंच तैयार हुआ।
- प्रारंभिक गठबंधन:
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एनी बेसेंट और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे भारतीय नेताओं ने राजनीतिक रियायतों के बदले ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में भारतीय समर्थन की वकालत की थी।
- इससे अपने राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिये वैश्विक शक्तियों के साथ भारत के समन्वय की शुरुआत का प्रदर्शन हुआ।
युद्ध के बीच की अवधि:
- मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार:
- वर्ष 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों से भारत में सीमित स्वशासन की शुरुआत हुई, जिससे अधिक मुखर राष्ट्रवादी भावना का उदय हुआ।
- हालाँकि उसी वर्ष जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को तीव्र कर दिया और इससे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रति भारत के दृष्टिकोण को आकार मिला।
- असहयोग आंदोलन और अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता:
- महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरोध के साधन के रूप में असहयोग को अपनाया।
- इस आंदोलन में वैश्विक उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों और नेताओं के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का उदय हुआ, जैसे अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन के साथ समन्वय।
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन:
- द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव:
- इस युद्ध का भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
- इसमें कुछ नेताओं ने समर्थन के बदले में इसे अंग्रेज़ों से रियायतें प्राप्त करने के अवसर के रूप में देखा, जबकि कुछ अन्य लोगों ने (विशेष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के नेताओं ने) तत्काल स्वतंत्रता की मांग करने के अवसर के रूप में युद्ध को महत्त्व दिया।
- भारत छोड़ो आंदोलन और वैश्विक समर्थन:
- वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से भारत की विदेश नीति में बदलाव देखा गया, क्योंकि सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिये धुरी शक्तियों से समर्थन मांगा।
- इस चरण में मित्र राष्ट्रों से समर्थन मांगने की पिछली रणनीति से विचलन देखा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति और स्वतंत्रता:
- अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भूमिका:
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ उपनिवेशवाद को समाप्त करने एवं नव स्वतंत्र राष्ट्रों के अधिकारों की वकालत की थी।
- जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने न्यायसंगत विश्व व्यवस्था के महत्त्व पर बल दिया था।
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM):
- 1950 के दशक में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उदय हुआ, जो भारत की विदेश नीति की आधारशिला थी।
- नेहरू ने टीटो और नासिर जैसे नेताओं के साथ शीत युद्ध में तटस्थता और गुटनिरपेक्षता के मुद्दे पर बल देने सहित राष्ट्र के लिये संप्रभु निर्णय लेने को महत्त्व दिया।
- चीन के साथ पंचशील समझौता:
- नेहरू की विदेश नीति में पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों को बढ़ावा देने के प्रयास भी शामिल थे।
- वर्ष 1954 में चीन के साथ हुए पंचशील समझौते का उद्देश्य शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना था, जो विवादों को सुलझाने के लिये भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
निष्कर्ष:
भारत की राष्ट्रवादी विदेश नीति में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक काल तक गतिशीलता देखी गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राजनीतिक स्वायत्तता का महत्त्व गुटनिरपेक्षता और राजनयिक समन्वय के सिद्धांतों की आधारशिला के रूप में परिणत हुआ, जो आज भी भारत के वैश्विक संबंधों को आकार दे रहे हैं।