प्रश्न 1. वर्ष 1773 से 1935 तक के भारत के संवैधानिक विकास को प्रेरित करने वाले प्रमुख पहलुओं का परीक्षण करते हुए शासन एवं नागरिक अधिकारों पर उनके प्रभावों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- वर्ष 1773 से 1935 की तक भारत के संवैधानिक विकासक्रम के प्रमुख पहलुओं पर चर्चा कीजिये।
- इस काल में संवैधानिक विकास की सीमाओं पर चर्चा कीजिये।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
वर्ष 1773 से 1935 तक की भारत की संवैधानिक यात्रा विकसित होती शासन संरचनाओं और नागरिक अधिकारों के संदर्भ में क्रमिक प्रगति को दर्शाती है। ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती नियंत्रण से लेकर भारत सरकार अधिनियम (1935) द्वारा निर्धारित खाका तक, प्रत्येक पहलू ने देश की राजनीतिक नियति को आकार दिया।
मुख्य भाग:
संवैधानिक विकास के प्रमुख पहलू और उनके संबंधित प्रभाव:
- रेगुलेटिंग एक्ट,1773: इस एक्ट द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को नियंत्रित एवं विनियमित करने के प्रयास में ब्रिटिश सरकार को भारतीय मामलों में शामिल किया गया। इससे एक केंद्रीकृत शासन प्रणाली का आधार तैयार हुआ।
- इसके द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना करके संवैधानिक विनियमन के क्रम में प्रारंभिक प्रयास को चिह्नित किया गया।
- चार्टर अधिनियम,1813: भारत के लोगों के बीच साहित्य, शिक्षा एवं विज्ञान के पुनरुद्धार, प्रचार और प्रोत्साहन के लिये हर साल एक लाख रुपए की राशि का प्रावधान किया गया था।
- इससे शिक्षा के प्रति राज्य की ज़िम्मेदारी को शुरू किया गया।
- भारतीय परिषद अधिनियम,1861: इस अधिनियम द्वारा विधायी निकायों में गैर-सरकारी प्रतिनिधियों के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया, कानून उचित विचार-विमर्श के बाद बनाए जाने थे और कानून को विचार-विमर्श प्रक्रिया द्वारा ही बदला जा सकता था।
- इस प्रकार विधि-निर्माण पर कार्यपालिका का विशेष अधिकार नहीं रह गया।
- लॉर्ड कैनिंग द्वारा शुरू की गई पोर्टफोलियो प्रणाली द्वारा भारत में कैबिनेट शासन प्रणाली की नींव रखी गई।
- मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909): इसमें केंद्रीय विधानपरिषद में सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई।
- इसके द्वारा भारतीयों को वायसराय और गवर्नरों की कार्यकारी परिषदों में शामिल होने का प्रावधान किया गया।
- इसमें 'पृथक निर्वाचक मंडल' की अवधारणा को स्वीकार करते हुए मुस्लिमों के लिये सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली शुरू की गई।
- मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919): इसमें केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का सीमांकन एवं पृथक्करण करके प्रांतों पर केंद्रीय नियंत्रण को कमज़ोर किया गया।
- इसके द्वारा पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष चुनाव की शुरुआत का प्रावधान किया गया।
- इसमें एक लोक सेवा आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935: इसमें एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना का प्रावधान किया गया, जिसमें प्रांतों एवं रियासतों को इकाइयों के रूप में शामिल किया गया। इसके द्वारा ग्यारह प्रांतों में से छह में द्विसदनीय व्यवस्था की शुरुआत की गई।
- देश की मुद्रा एवं ऋण को नियंत्रित करने के लिये इसमें भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना का प्रावधान किया गया।
संवैधानिक विकास की सीमाएँ:
- औपनिवेशिक हितों का प्रभुत्व: प्रारंभिक संवैधानिक प्रयास भारतीय लोगों के कल्याण के बजाय ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशल प्रशासन एवं राजस्व संग्रह की इच्छा से अधिक प्रेरित थे।
- सीमित स्वशासन: इस अवधि के दौरान शुरू किये गए संवैधानिक सुधार ब्रिटिश हितों से प्रेरित थे। उत्तरदायी सरकार की ओर क्रमिक रूपांतरण ने शासकों एवं शासितों के बीच शक्ति असंतुलन को पूरी तरह से हल नहीं किया।
- सीमित नागरिक प्रतिनिधित्व: शासन संरचनाओं को नागरिक भागीदारी के बजाय ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखने के लिये डिज़ाइन किया गया था।
- धार्मिक और सामाजिक विभाजन: सांप्रदायिक निर्वाचक मंडलों की शुरूआत से भारत के राजनीतिक परिदृश्य में धार्मिक एवं सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिला।
- सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की उपेक्षा: इस अवधि के दौरान हुए संवैधानिक विकास में भारतीय लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों को पर्याप्त रूप से पूरा नहीं किया गया।
- विधायी विचार-विमर्श में भूमि सुधार, आर्थिक न्याय एवं सामाजिक समानता जैसे मुद्दों पर सीमित ध्यान दिया गया।
निष्कर्ष:
भारत में संवैधानिक विकास की प्रगति से शासन एवं नागरिक अधिकारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति देखी गई, हालाँकि यह शाही हितों से प्रेरित था। इससे बाद के आंदोलनों एवं संघर्ष का आधार तैयार होने से अंततः भारत के संविधान निर्माण एवं स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ।