दिवस 5
प्रश्न.1 भारतीय संविधान की मूल संरचना की विवादास्पद और अस्पष्ट प्रकृति के कारण यह निर्धारित करने हेतु पर्याप्त दिशानिर्देशों के साथ-साथ स्पष्ट और सुपरिभाषित मापदंडों की आवश्यकता होती है कि भारतीय संविधान की मूल संरचना क्या है। टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)
24 Nov 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारतीय संविधान की मूल संरचना के संक्षिप्त परिचय से शुरुआत कीजिये।
- भारत के संविधान के मूल संरचना सिद्धांत से संबंधित मुद्दों एवं चिंताओं का एक सिंहावलोकन प्रदान कीजिये।
- चर्चा कीजिये कि भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के विभिन्न पहलू मूल संरचना सिद्धांत से किस प्रकार संबंधित हैं।
- समकालीन समय में मूल संरचना सिद्धांत के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारतीय संविधान की मूल संरचना की अवधारणा, जिसे पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 के ऐतिहासिक मामले में व्यक्त किया था, निरंतर बहस का विषय रही है। बुनियादी संरचना को परिभाषित करने में अंतर्निहित अस्पष्टता के कारण इस मूलभूत सिद्धांत की सुसंगत समझ सुनिश्चित करने के लिये स्पष्ट मापदंडों एवं दिशानिर्देशों की आवश्यकता होती है।
मुख्य भाग:
- विवादस्पदीय मूल संरचना:
- विकासवादी प्रकृति:
- मूल संरचना सिद्धांत मानता है कि संविधान की कुछ विशेषताएँ अपरिवर्तनीय हैं और उनमें संशोधन नहीं किया जा सकता है।
- हालाँकि इस सिद्धांत की प्रकृति बहस का विषय है क्योंकि मूल संरचना का गठन समय के साथ न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से हुआ है।
- न्यायिक विवेक:
- सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में मूल संरचना का निर्धारण करने में न्यायिक विवेक का प्रयोग किया है।
- यद्यपि इसमें लोकतंत्र, संघवाद एवं धर्मनिरपेक्षता जैसे सिद्धांतों का अक्सर उल्लेख किया जाता है, इन सिद्धांतों का विवरण अभी भी व्याख्या के लिये है, जिससे यह अवधारणा स्वाभाविक रूप से व्यक्तिपरक हो जाती है।
- स्पष्ट मानदंड की आवश्यकता:
- कानूनी निश्चितता सुनिश्चित करना:
- मूल संरचना को परिभाषित करने में अस्पष्टता कानूनी अनिश्चितता उत्पन्न करती है, क्योंकि कोई विस्तृत सूची या निश्चित मानदंड नहीं है।
- स्पष्ट मानदंड स्थापित करने से कानूनी निश्चितता प्राप्त होगी तथा संविधान में संशोधन करने की शक्ति की सीमाओं को समझने में न्यायपालिका और कानून निर्माताओं दोनों को मार्गदर्शन मिलेगा।
- न्यायिक सक्रियता संबंधी चिंताओं से बचना:
- अच्छी तरह से परिभाषित मापदंडों की अनुपस्थिति न्यायिक सक्रियता के बारे में चिंता उत्पन्न करती है, न्यायपालिका संभावित रूप से अपनी भूमिका से आगे निकल जाती है।
- स्पष्ट दिशानिर्देश न्यायिक समीक्षा और संविधान में संशोधन करने की विधायी शक्ति के बीच संतुलन बनाने में सहायता करेंगे।
- विशिष्ट तत्त्वों को व्यक्त करना:
- लोकतंत्र और कानून का शासन:
- लोकतंत्र और कानून के शासन को प्राय: अवसंरचना का हिस्सा माना जाता है। स्पष्ट मापदंडों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव, शक्तियों का पृथक्करण और एक स्वतंत्र न्यायपालिका जैसे तत्त्वों को निर्दिष्ट करना शामिल होगा, जो अधिक ठोस समझ प्रदान करेगा।
- संघवाद और पंथनिरपेक्षता:
- संघवाद और पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत भारतीय संविधान का अभिन्न अंग हैं। संघवाद के भीतर विशिष्ट तत्त्वों, जैसे कि शक्तियों का वितरण और पंथनिरपेक्षता, धर्म के प्रति राज्य की तटस्थता, को परिभाषित करने से अवसंरचना में स्पष्टता आएगी।
- संवैधानिक संशोधन के लिये दिशानिर्देश:
- संवैधानिक संशोधन समीक्षा प्रक्रिया:
- संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा प्रक्रिया के लिये दिशानिर्देश स्थापित करना महत्त्वपूर्ण होगा। इसमें मूलभूत सिद्धांतों एवं मूल्यों पर संभावित प्रभाव के आधार पर व्यापक जाँच शामिल हो सकती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि संशोधन मूल संरचना को कमज़ोर नहीं करते हैं।
- लोक परामर्श:
- संशोधन प्रक्रिया में लोक परामर्श को शामिल करना एक दिशानिर्देश हो सकता है। पब्लिक इनपुट, यह सुनिश्चित करते हुए कि परिवर्तन नागरिकों द्वारा पोषित मूल्यों के साथ संरेखित हों और इसमें मूल संरचना का उल्लंघन होने की संभावना कम हो, संभावित संशोधनों पर विविध दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है।
- लचीलेपन और सख्ती को संतुलित करना:
- बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप ढलना:
- जबकि स्पष्ट मानदंड के साथ लचीलेपन और सख्ती के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है। संविधान को अपने मूलभूत सिद्धांतों से समझौता किये बगैर बदलती सामाजिक आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिये। मूल संरचना को खतरे में डाले बिना दिशानिर्देशों को विकास की अनुमति देनी चाहिये।
- सख्ती से बचना:
- अत्यधिक कठोर मानदंड संविधान की अप्रत्याशित परिस्थितियों के अनुकूल ढलने की क्षमता को बाधित कर सकते हैं। दिशानिर्देशों को यह सुनिश्चित करते हुए मूल संरचना की गतिशील व्याख्या की अनुमति देनी चाहिये कि परिवर्तन संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हैं।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान की मूल संरचना की विवादास्पद एवं अस्पष्ट प्रकृति अधिक परिभाषित समझ सुनिश्चित करने के लिये स्पष्ट मापदंडों और दिशानिर्देशों की मांग करती है। कानूनी निश्चितता बनाए रखने, न्यायिक समीक्षा तथा विधायी शक्ति के बीच संतुलन बनाने व संवैधानिक संशोधनों की प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने के लिये यह स्पष्टता आवश्यक है।