प्रश्न 1. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सामाजिक परिवर्तन करने के तरीकों के संबंध में गांधी और अंबेडकर के बीच के वैचारिक मतभेदों का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी और अंबेडकर के दृष्टिकोण पर चर्चा कीजिये।
- महात्मा गांधी और बी.आर. अंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेदों का मूल्यांकन कीजिये।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विभिन्न विचारधाराओं और सामाजिक परिवर्तन की वकालत करने वाले नेताओं द्वारा भूमिका निभाई गई थी। इस संदर्भ में दो प्रमुख व्यक्तित्वों (महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर. अंबेडकर) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, इन दोनों ने सामाजिक परिवर्तन हेतु अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए।
मुख्य भाग:
गांधी और अंबेडकर के दृष्टिकोण:
- गांधी: महात्मा गांधी, भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने अहिंसक सविनय अवज्ञा की वकालत की थी।
- अम्बेडकर: बी.आर. अंबेडकर एक दलित नेता, न्यायविद् तथा भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। उनका ध्यान भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक असमानताओं को दूर करने पर था।
दोनों के बीच वैचारिक मतभेद:
सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य:
गांधी:
- राम राज्य: गांधीजी ने एक आदर्श समाज की कल्पना करने के साथ आत्मनिर्भरता, अहिंसा और नैतिक शासन पर आधारित "राम राज्य" की अवधारणा पर बल दिया था।
- सर्वोदय: सभी के कल्याण पर बल देते हुए, गांधी के दृष्टिकोण का उद्देश्य जाति एवं वर्ग विभाजन से परे, संपूर्ण समाज का उत्थान करना था।
अंबेडकर:
- जाति का उन्मूलन: अंबेडकर का प्राथमिक लक्ष्य जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करना था, वे इसे सामाजिक सद्भाव के लिये एक महत्त्वपूर्ण बाधा मानते थे।
- सामाजिक न्याय: अंबेडकर ने विशेष रूप से समाज के हाशिये पर रहने वाले वर्गों के सामाजिक न्याय एवं समान अवसरों के महत्त्व पर बल दिया था।
विरोध और प्रतिरोध के तरीके:
गांधी:
- अहिंसक सविनय अवज्ञा: गांधीजी ने अहिंसक प्रतिरोध पर बल दिया था, जिसे नमक मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अभियानों में देखा गया था।
- सत्याग्रह: सत्य और आत्म-बल को महत्त्व देते हुए गांधी, सत्य और अहिंसा की शक्ति में विश्वास करते थे।
अंबेडकर:
- संवैधानिक साधन: अंबेडकर ने हाशिये पर स्थित लोगों के अधिकारों को सुरक्षित करने हेतु विधिक एवं संवैधानिक तरीकों की वकालत की थी, जिसे भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका के रूप में देखा जा सकता है।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: अंबेडकर ने विधायी निकायों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व के माध्यम से राजनीतिक सशक्तीकरण पर बल दिया था।
अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण:
गांधी:
- हरिजन आंदोलन: गांधीजी ने हिंदू समाज के तहत सामाजिक सुधारों को प्रोत्साहित करते हुए, अस्पृश्यों के उत्थान हेतु हरिजन आंदोलन चलाया था।
- वर्ण व्यवस्था की आलोचना: वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हुए, गांधी ने इसके ढाँचे में सुधारों की वकालत की थी।
अंबेडकर:
- जाति व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन: अंबेडकर जाति व्यवस्था के मुखर आलोचक थे और उनका लक्ष्य इसका उन्मूलन करना था।
- दलित सशक्तीकरण: अंबेडकर ने दलितों के उत्थान के उपकरण के रूप में शिक्षा एवं राजनीतिक सशक्तीकरण पर ध्यान केंद्रित किया तथा पारंपरिक हिंदू सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी थी।
स्वतंत्र भारत हेतु दृष्टिकोण:
गांधी:
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था: गांधीजी ने आत्मनिर्भरता एवं स्थिरता को बढ़ावा देने हेतु ग्रामीण उद्योगों पर ध्यान देने के साथ एक विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी।
- धार्मिक समुदायों के बीच एकता: गांधी ने सांप्रदायिक सद्भाव पर बल दिया तथा विभिन्न धार्मिक समुदायों के सह-अस्तित्व में विश्वास किया था।
अंबेडकर:
- लोकतांत्रिक मूल्य: अंबेडकर ने राजनीतिक और सामाजिक समानता के महत्त्व पर बल देते हुए एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में भारत की कल्पना की थी।
- धर्मनिरपेक्षता: अंबेडकर ने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की वकालत की, जो सभी नागरिकों के लिये उनकी धार्मिक मान्यताओं के इतर समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करे।
निष्कर्ष:
गांधी और अंबेडकर, भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के संदर्भ में अपने लक्ष्य में समान थे, लेकिन सामाजिक परिवर्तन के प्रति उनके दृष्टिकोण में काफी अंतर था। उनकी विचारधाराएँ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के व्यापक संदर्भ में जटिलता और विविधता को दर्शाती हैं।