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08 Jan 2024
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस 43
प्रश्न 2. भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों के महत्त्व का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।
- भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों की सीमाओं पर चर्चा कीजिये।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में 19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों ने देश के ऐतिहासिक परिदृश्य को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिससे नए पारंपरिक मानदंड स्थापित हुए और एक अधिक समावेशी तथा प्रगतिशील समाज के लिये आधार तैयार हुआ।
मुख्य भाग:
भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों का महत्त्व:
- सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन: यह प्रयास सती प्रथा, बाल विवाह और अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं को समाप्त करने में सहायक थे। आगे चलकर होने वाले कानूनी हस्तक्षेपों से सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों को बल मिला, जिससे अधिक समावेशी समाज के विकास को बढ़ावा मिला।
- राजा राम मोहन राय जैसे नेताओं ने सती प्रथा के उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- महिला सशक्तिकरण: 19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों ने महिलाओं के खिलाफ प्रचलित दमनकारी प्रथाओं को चुनौती देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने महिला शिक्षा पर बल दिया था।
- जातिगत भेदभाव में कमी: इन सामाजिक सुधारों ने वंशानुगत आधार पर जातिगत भेदभाव की अवहेलना करने के साथ सामाजिक पदानुक्रम को चुनौती देते हुए सामाजिक न्याय एवं समान अवसरों की वकालत करने वाले बाद के आंदोलनों हेतु आधार तैयार किया था।
- ज्योतिबा फुले और बी.आर. अम्बेडकर जैसे सुधारकों ने हाशिये पर स्थित समुदायों के उत्थान के साथ अलोकतांत्रिक संस्थानों की भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती दी।
- तर्कवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: आधुनिक समय की विशेष आवश्यकताओं (विशेष रूप से वैज्ञानिक ज्ञान के संदर्भ में) पर बल देने के साथ एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष एवं तर्कसंगत दृष्टिकोण इन सुधार आंदोलनों का प्रमुख भाग था।
- महान फ्राँसीसी क्रांति से प्रेरणा लेते हुए हेनरी वी. डेरोज़ियो ने अपने विद्यार्थियों को स्वतंत्र और तर्कसंगत रूप से सोचने, सभी प्राधिकरणों पर सवाल उठाने, स्वतंत्रता, समानता एवं नकारात्मक रीति-रिवाज़ों तथा परंपराओं का विरोध करने के लिये प्रेरित किया।
- राजनीतिक जागरूकता: सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों से राजनीतिक जागरूकता को बल मिला जिससे औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन का आधार तैयार हुआ था।
- दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक और ए.ओ. ह्यूम जैसे नेताओं ने सामाजिक-धार्मिक चेतना को राजनीतिक क्षेत्र में प्रसारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- सांस्कृतिक पुनर्जागरण: इस अवधि के दौरान होने वाले सांस्कृतिक पुनर्जागरण से लोगों में गर्व और पहचान की भावना विकसित हुई।
- स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न व्याख्यानों द्वारा नई पीढ़ी में भारत के अतीत पर गर्व की भावना के साथ भारत की संस्कृति में एक नया विश्वास तथा भारत के भविष्य के प्रति आत्मविश्वास की भावना विकसित करने में मदद की।
भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों की सीमाएँ:
- समाज पर सीमित प्रभाव:
- संकीर्ण सामाजिक आधार: धार्मिक सुधार आंदोलनों का एक संकीर्ण सामाजिक आधार (अर्थात् शिक्षित एवं शहरी मध्यम वर्ग) था, जबकि इसमें किसानों और शहरी गरीबों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया गया था।
- शैक्षिक असमानताएँ: शैक्षिक सुधारों से केवल समाज के कुछ वर्गों को लाभ हुआ।
- महिलाओं पर चयनात्मक प्रभाव: हालाँकि शहरी क्षेत्रों के साथ कुछ समुदायों में महिलाओं को इन सुधारों से काफी लाभ हुआ था, लेकिन इसका प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर एक समान नहीं था।
- सीमित वैज्ञानिक दृष्टिकोण: अतीत की महानता पर बल देने और धर्मग्रंथों के अधिकार पर भरोसा करने की सुधारकों की प्रवृत्ति से रहस्यवाद को प्रोत्साहन मिला जिसके साथ ही आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता की पूर्ण स्वीकृति पर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण सीमित हुआ।
- कमज़ोर प्रवर्तन: इन सुधारों का कार्यान्वयन अक्सर सीमित था, जिससे बाल विवाह एवं अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं के पूर्ण उन्मूलन में बाधा उत्पन्न हुई थी।
- जाति व्यवस्था को चुनौती देने के प्रयासों के बावजूद, जाति-आधारित भेदभाव विभिन्न रूपों में जारी रहा।
- तर्कवाद को चुनौतियाँ: तर्कसंगत और मानवतावादी मूल्यों को बढ़ावा देने के प्रयास को विशेष रूप से रूढ़िवादी समुदायों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था।
- भारत धर्म महामंडल को आर्य समाजियों, थियोसोफिस्टों और रामकृष्ण मिशन की शिक्षाओं के प्रतिरोध के रूप में रूढ़िवादी हिंदू धर्म की रक्षा हेतु शुरू किया गया था।
निष्कर्ष:
भारत में 19वीं सदी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों द्वारा एक ऐसे भविष्य की कल्पना की गई, जहाँ हठधर्मिता पर तर्क की जीत हो, सामाजिक समानता हो और पहचान की सामूहिक भावना से एकता तथा प्रगति को बढ़ावा मिले। इन दूरदर्शी आदर्शों की स्थायी विरासत से समकालीन भारत के लोकाचार को बल मिल रहा है।