Q1. हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद उत्तरी भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष के कारणों का विश्लेषण कीजिये और इसके परिणामों का आकलन कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- त्रिपक्षीय संघर्ष हेतु प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये।
- त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणामों पर चर्चा कीजिये।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
उत्तरी भारत में त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में राजनीतिक अस्थिरता और संघर्ष की अवधि (लगभग 7 वीं शताब्दी के मध्य से 10 वीं शताब्दी तक) हर्ष के साम्राज्य के पतन के बाद शुरू हुई थी। इस काल में तीन प्रमुख शक्तियों: पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट साम्राज्य के बीच शक्ति शून्यता के साथ तीव्र प्रतिस्पर्द्धा देखी गई।
मुख्य भाग:
त्रिपक्षीय संघर्ष हेतु अग्रणी कारक:
- साम्राज्य विखंडन: 7वीं शताब्दी के मध्य में हर्ष की मृत्यु होने से उत्तरी भारत में एक राजनीतिक शून्यता स्थापित हुई थी। एक मज़बूत केंद्रीय सत्ता की अनुपस्थिति के कारण हर्ष साम्राज्य छोटी-छोटी क्षेत्रीय इकाईयों में विघटित हो गया था।
- ऊपरी गंगा घाटी पर नियंत्रण के लिये पाल और प्रतिहार एक-दूसरे से युद्धरत थे जबकि प्रतिहार मालवा एवं गुजरात पर नियंत्रण हेतु राष्ट्रकूटो से युद्धरत थे।
- आर्थिक कारक: आर्थिक गिरावट और व्यापार मार्गों के विघटन, आंशिक रूप से गुप्त साम्राज्य के पतन और सिल्क रोड के प्रभाव में कमीं के कारण इस क्षेत्र की समृद्धि पर असर पड़ा था। आर्थिक कठिनाइयों से स्थानीय संघर्षों को बढ़ावा मिला क्योंकि विभिन्न शासकों ने संसाधनों को नियंत्रित करने का प्रयास किया था।
- राष्ट्रकूट सकलोत्तरपथनाथ (सम्पूर्ण उत्तरपथ के स्वामी) की उपाधि प्राप्त करने की आकांक्षा से कन्नौज की ओर आकर्षित हुए थे। इसी प्रकार पालों ने उत्तरपथस्वामी (उत्तरपथ के स्वामी) के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया था।
- सामंती सरदारों का उदय: जागीरदार शासकों और स्वायत्त सरदारों ने शासक के प्रत्यक्ष शासन को सीमित कर दिया तथा इनके युद्धों में उलझे रहने के परिणामस्वरूप राजनीतिक शक्ति खंडित हो गई, जिससे केंद्रीय शक्ति का उदय नहीं हो सका।
- राष्ट्रकूटों को वेंगी के जागीरदार सरदारों के साथ निरंतर युद्धों का सामना करना पड़ा, जबकि प्रतिहारों को मालवा के परमारों के साथ निरंतर संघर्षों का सामना करना पड़ा था।
त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम:
- केंद्रीय सत्ता का कमज़ोर होना: तीन साम्राज्यों के बीच लगातार युद्ध और सत्ता संघर्ष के परिणामस्वरूप केंद्रीय सत्ता कमजोर हो गई, जिससे यह क्षेत्र आंतरिक विद्रोह एवं बाहरी आक्रमणों के प्रति संवेदनशील हो गया।
- क्षेत्रीय शक्तियों का सुदृढ़ीकरण: पूर्व दिशा में पाल साम्राज्य, उत्तर पश्चिम में प्रतिहार साम्राज्य और दक्कन में राष्ट्रकूट साम्राज्य प्रमुख क्षेत्रीय शक्तियों के रूप में उभरे।
- प्रत्येक राजवंश ने राजनीतिक शक्ति को मज़बूत करने के साथ क्षेत्रीय विकास में योगदान दिया।
- तनावपूर्ण अर्थव्यवस्था: सैन्य अभियानों के वित्तपोषण के लिये संसाधनों की निरंतर आवश्यकता ने साम्राज्यों की आर्थिक नींव को असंतुलित कर दिया था।
- सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता: इस त्रिपक्षीय संघर्ष से विविध संस्कृतियों और धार्मिक प्रथाओं के संरक्षण एवं प्रसार में सहायता मिली। विभिन्न क्षेत्रों द्वारा विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को अपनाने के कारण भारतीय इतिहास की समृद्ध परंपरा में योगदान मिला।
- नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार धर्मपाल द्वारा कराया गया था।
- सैन्य नवाचार: निरंतर संघर्षों ने शासकों को सैन्य नवाचारों और रणनीतियों में निवेश करने के लिये प्रेरित किया था।
- इस अवधि में किलेबंदी, घुड़सवार सेना और नौसैनिक प्रौद्योगिकियों में विकास देखा गया क्योंकि शासकों ने अपने क्षेत्रों की रक्षा करने की कोशिश की थी।
- कला और वास्तुकला: स्थानीय शासकों द्वारा कला को संरक्षण देने के कारण मंदिरों, मूर्तियों और अन्य वास्तुशिल्प का विकास हुआ जो क्षेत्रीय शैलियों को प्रतिबिंबित करते थे।
- एलोरा में राष्ट्रकूट शासकों द्वारा चट्टान को काटकर प्रसिद्ध शिव मंदिर बनवाया गया था।
निष्कर्ष:
उत्तरी भारत के त्रिपक्षीय संघर्ष में राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कारकों के एक जटिल अंतर्संबंध को देखा गया था। हालाँकि इससे राजनीतिक विभाजन के साथ विकेन्द्रीकृत शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ था लेकिन इससे सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा मिलने के साथ मध्ययुगीन भारत के इतिहास को आकार मिला।