प्रश्न.1 पिछले कुछ वर्षों में न्यायिक मामलों द्वारा मौलिक अधिकारों की प्रकृति में किस प्रकार का परिवर्तन किया है?(150 शब्द)
22 Nov 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- अपना उत्तर ऐसे परिचय के साथ प्रारंभ कीजिये जो प्रश्न का संदर्भ निर्धारित करता हो।
- उन प्रक्रियाओं पर चर्चा कीजिये जिसके माध्यम से न्यायिक मामलों द्वारा मौलिक अधिकारों की प्रकृति को परिवर्तित किया गया है।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारत का संविधान भाग-III में निहित मौलिक अधिकारों के माध्यम से सभी नागरिकों को नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान करता है, जो वर्षों से न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से विकसित हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से मौलिक अधिकारों की प्रकृति का विस्तार एवं संशोधन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मुख्य भाग:
न्यायिक मामलों ने मौलिक अधिकारों की प्रकृति को जिन प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तित किया गया है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
- विद्यमान अधिकारों के अंतर्गत नए अधिकारों को मान्यता देना: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौजूदा अधिकारों में कुछ नए अधिकारों को पढ़ा है जिनका संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन मौलिक अधिकारों की भावना और उद्देश्य से निहित हैं।
- उदाहरण के लिये, न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ के मामले में निजता के अधिकार को अनुच्छेद-21 के अंर्तगत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई थी।
- मौजूदा अधिकारों के दायरे तथा सामग्री का विस्तार: सर्वोच्च न्यायालय ने मौजूदा अधिकारों में नए आयाम एवं पहलू जोड़कर उनकी व्यापकता के साथ-साथ अधिक उदार व्याख्या भी दी है।
- उदाहरण के लिये, अनुच्छेद-21 के अंर्तगत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का विस्तार स्वास्थ्य के अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य एवं एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ आदि मामलों में त्वरित सुनवाई के अधिकार को शामिल करने के लिये किया गया है।
- उचित प्रतिबंधों के साथ अधिकारों को संतुलित करना: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों को उन उचित प्रतिबंधों के साथ संतुलित किया है जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, सुरक्षा आदि के हित में राज्य द्वारा उन पर लगाए जा सकते हैं। जैसा कि अनुच्छेद-19(2)-(6) में कहा गया है। यह तय करने के लिये कि प्रतिबंध कानूनी हैं या नहीं, न्यायालय द्वारा आनुपातिकता, आवश्यकता एवं तर्कसंगतता के परीक्षणों का उपयोग किया है।
- उदाहरण अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ मामले में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया कि अनुच्छेद-19(1)(A) एवं (G) के अंर्तगत वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अधिकार एवं जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा निलंबन तथा व्यापार और पेशे में शामिल होने के अधिकार का उल्लंघन किया गया है।
- मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता एवं अनुल्लंघनीयता को बनाए रखना: सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को संविधान के अन्य प्रावधानों की तुलना में सर्वोच्च और अनुलंघनीय मानता है। बुनियादी संरचना सिद्धांत संसद को संविधान में इस तरह से संशोधन करने से रोकता है जो मौलिक अधिकारों अथवा बुनियादी सुविधाओं को नष्ट कर देता है।
- उदाहरण के लिये, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया कि संसद मौलिक अधिकारों में इस तरह से संशोधन नहीं कर सकती जो संविधान की मूल संरचना को प्रभावित करती हो।
निष्कर्ष:
न्यायिक मामलों के माध्यम से मौलिक अधिकारों को अधिक गतिशील, व्यापक एवं प्रभावी बनाकर सुधार किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य अथवा अन्य प्राधिकारियों द्वारा उल्लंघन या कमज़ोर पड़ने को रोकते हुए इन अधिकारों की रक्षा एवं प्रचार किया। इन मामलों ने संवैधानिक न्यायशास्त्र को और अधिक समृद्ध किया, साथ ही भारत में मानवाधिकार संस्कृति के विकास को बढ़ावा दिया है।