प्रश्न.1 न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक से आप क्या समझते हैं? वे सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कैसे प्रभावित करते हैं? (250 शब्द)
04 Dec 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक शब्दों को उदहारण सहित परिभाषित कीजिये।
- शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा और सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये इसके महत्त्व की व्याख्या कीजिये।
- विश्लेषण कीजिये कि न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत तथा सरकार की कार्यकारी, विधायी एवं न्यायिक शाखाओं के बीच संतुलन को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
- यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
|
परिचय
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) का तात्पर्य समाज के लाभ के लिये जो है उसे परिभाषित करने और लागू करने के लिये न्यायिक प्राधिकरण के सक्रिय उपयोग से है, जबकि न्यायिक अतिरेक (Judicial Overreach) तब होता है जब न्यायपालिका विधायी तथा कार्यकारी क्षमता को ठीक से संचालित करने में हस्तक्षेप करती है, इस प्रकार उनके डोमेन का उल्लंघन होता है।
शक्तियों का पृथक्करण संवैधानिक कानून का एक सिद्धांत है जो सरकार की शक्तियों और कार्यों को तीन शाखाओं में विभाजित करता है: कार्यकारी, विधायी और न्यायिक। इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी शाखा दूसरों पर अत्यधिक शक्तिशाली या हावी न हो जाये। शक्तियों का पृथक्करण सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की एक अनिवार्य विशेषता है, क्योंकि यह मनमाने या अत्याचारी शासन से नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
मुख्य भाग:
न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को विभिन्न तरीकों से प्रभावित कर सकते हैं:
- न्यायिक सक्रियता को न्यायपालिका के एक सकारात्मक और आवश्यक पहलू के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि यह:
- कार्यकारी और विधायी शाखाओं की विफलताओं या ज़्यादतियों से लोगों, विशेषकर समाज के हाशिये पर पड़े तथा उत्पीड़ित वर्गों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा करना।
- संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों को कायम रखें तथा सुनिश्चित करें कि कानून एवं नीतियाँ संविधान की मूल संरचना व भावना के अनुरूप हों।
- उदाहरण: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973), मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978), विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) और राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों के दायरे तथा अर्थ का विस्तार किया एवं नागरिकों की सुरक्षा व कल्याण के लिये निर्देश जारी किये।
- न्यायिक अतिरेक को न्यायपालिका के एक नकारात्मक और हानिकारक पहलू के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि यह:
- कार्यकारी और विधायी शाखाओं के डोमेन तथा कार्यों पर अतिक्रमण करें एवं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को कमज़ोर करें।
- इसके परिणामस्वरूप न्यायपालिका अत्यधिक शक्तिशाली या सक्रिय हो जाती है और अन्य शाखाओं तथा बड़े पैमाने पर समाज पर अपने विचार एवं प्राथमिकताएँ थोपती है। इससे कार्यपालिका व विधायिका की ओर से प्रतिक्रिया हो सकती है जिससे तीनों अंगों के बीच घर्षण बढ़ सकता है।
- न्यायपालिका में जनता के विश्वास को नष्ट करना, तथा अन्य शाखाओं एवं लोगों से आलोचना व प्रतिक्रिया को आमंत्रित करना।
- उदाहरण: श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2016), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने सभी सिनेमाघरों के लिये फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया, और कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर कोई विशिष्ट कानून बनाए बिना, निष्क्रिय इच्छामृत्यु तथा जीवित वसीयत को वैध बना दिया।
निष्कर्ष
संविधान और लोगों के अधिकारों के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका की लोकतंत्र में एक महत्त्वपूर्ण और रचनात्मक भूमिका है, लेकिन उसे अपनी शक्तियों का उपयोग सावधानी तथा संयम के साथ करना चाहिये एवं सरकार की अन्य शाखाओं की सीमाओं व कार्यों का सम्मान करना चाहिये।