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Sambhav-2023

  • 26 Jan 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    दिवस- 68

    प्रश्न.1 कोपेन की आनुभविक जलवायु वर्गीकरण योजना की व्याख्या कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 जलवायु परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ? जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारकों का उल्लेख कीजिये।

    उत्तर

    उत्तर 1:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जलवायु को वर्गीकृत करने के लिये अपनाए गए दृष्टिकोणों का परिचय दीजिये।
    • जलवायु वर्गीकरण की कोपेन योजना की व्याख्या कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    जलवायु का वर्गीकरण तीन वृहत् उपगमों द्वारा किया गया है जैसे - आनुभविक, जननिक और अनुप्रयुक्त। आनुभविक वर्गीकरण प्रेक्षित किये गए विशेष रूप से तापमान एवं वर्षण से संबंधित आँकड़ों पर आधारित होता है। जननिक वर्गीकरण जलवायु को उनके कारणों के आधार पर संगठित करने का प्रयास है। जलवायु का अनुप्रयुक्त वर्गीकरण किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये किया जाता है।

    मुख्य भाग:

    कोपेन की जलवायु वर्गीकरण योजना:

    कोपेन ने वनस्पति के वितरण और जलवायु के बीच एक घनिष्ठ संबंध की पहचान की थी। उन्होंने तापमान तथा वर्षण के कुछ निश्चित मानों का चयन करते हुए उनका वनस्पति के वितरण से संबंध स्थापित किया था और इन मानों का उपयोग जलवायु के वर्गीकरण के लिये किया था। वर्षा एवं तापमान के मध्यमान वार्षिक एवं मध्यमान मासिक आँकड़ों पर आधारित यह एक आनुभविक पद्धति है।

    • कोपेन ने पाँच प्रमुख जलवायु समूहों की पहचान की थी उनमें से चार तापमान और एक वर्षण पर आधारित है। बड़े अक्षर: A, C, D और E आर्द्र जलवायु को तथा B अक्षर शुष्क जलवायु को निरुपित करता है।
    • समूह A - उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु: उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच पाई जाती है। वर्ष भर सूर्य के लंबवत रहने तथा अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की उपस्थिति के कारण यहाँ की जलवायु ऊष्ण एवं आर्द्र रहती है। यहाँ वार्षिक तापांतर बहुत कम तथा वर्षा अधिक होती है। जलवायु के इस उष्णकटिबंधीय समूह को तीन प्रकारों में बाँटा जाता है जिनके नाम हैं (i) Af- उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु (ii) Am- उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु और (iii) Aw- उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु जिसमें शीत ऋतु शुष्क होती है।
    • शुष्क जलवायु- B: शुष्क जलवायु की विशेषता अत्यंत न्यून वर्षा है जो पादपों की वृद्धि के लिये पर्याप्त नहीं होती है। यह जलवायु पृथ्वी के बहुत बड़े भाग पर पाई जाती है जो विषुवत वृत्त से 15° से 60° उत्तर व दक्षिणी अक्षांशों के बीच विस्तृत है। 15° से 30° के निम्न अंक्षाशों में यह उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब क्षेत्र में पाई जाती है। जहाँ तापमान का अवतलन और उत्क्रमण, वर्षा नहीं होने देते।
      • मध्य अक्षांशों में विषुवत् वृत्त से 35° से 60° उत्तर व दक्षिण के बीच यह जलवायु महाद्वीपों के उन आंतरिक भागों तक परिरूद्ध होती है जहाँ पर्वतों से घिरे होने के कारण प्रायः समुद्री आर्द्र पवनें नहीं पहुँच पाती हैं। शुष्क जलवायु को स्टेपी अथवा अर्ध-शुष्क जलवायु (BS) और मरूस्थल जलवायु (BW) में विभाजित किया जाता है।
      • इसे आगे 15° से 35° अक्षांशों के बीच उपोष्ण कटिबंधीय स्टेपी (BSh) और उपोष्ण कटिबंधीय मरूस्थल (BWh) में बाँटा जाता है। 35° और 60° अंक्षाशों के बीच इसे मध्य अक्षांशीय स्टेपी (BSk) तथा मध्य अक्षांशीय मरूस्थल (BWk) मे विभाजित किया जाता है।
    • शीत हिम-वन जलवायु (D): शीत हिम-वन जलवायु उत्तरी गोलार्द्ध में 40° से 70° अक्षांशों के बीच यूरोप, एशिया और उत्तरी अमेरिका के विस्तृत महाद्वीपीय क्षेत्रों में पाई जाती है। शीत हिम वन जलवायु को दो प्रकारों में विभक्त किया जाता हैः (i) Df- आर्द्र जाड़ों से युक्त ठंडी जलवायु और (ii) Dw- शुष्क जाड़ों से युक्त ठंडी जलवायु। उच्च अक्षांशों में सर्दी की उग्रता अधिक मुखर होती है।
    • ध्रुवीय जलवायु (E): ध्रुवीय जलवायु 70° अक्षांश से परे ध्रुवों की ओर पाई जाती है। ध्रुवीय जलवायु दो प्रकार की होती हैः (i) टुण्ड्रा (ET); (ii) हिम टोपी (EF)।
    • उच्च भूमि जलवायु (H): उच्च भूमि जलवायु भौम्याकृति द्वारा नियंत्रित होती है। ऊँचे पर्वतों में थोड़ी-थोड़ी दूरियों पर मध्यमान तापमान में भारी परिवर्तन पाए जाते हैं। उच्च भूमियों में वर्षण के प्रकारों व उनकी गहनता में भी स्थानिक अंतर पाए जाते हैं। पर्वतीय वातावरण में ऊँचाई के साथ जलवायु प्रदेशों के स्तरित ऊर्ध्वाधर कटिबंध पाए जाते हैं।

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    निष्कर्ष:

    कोपेन ने उष्णकटिबंधीय, शुष्क और ध्रुवीय जलवायु जैसे विभिन्न जलवायु क्षेत्रों की पहचान करने के लिये अक्षर-आधारित कोडिंग प्रणाली का उपयोग किया है। यह विश्व में मौसम प्रतिरूप और पारिस्थितिकी तंत्र वितरण में भिन्नता को समझने हेतु एक उपयोगी उपकरण है। कोपेन की जलवायु वर्गीकरण प्रणाली पृथ्वी की जलवायु और प्राकृतिक प्रणालियों पर इसके प्रभाव को समझने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।


    उत्तर 2:

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • जलवायु परिवर्तन की अवधारणा का परिचय दीजिये।
    • जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारकों की चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • तापमान, वर्षण, वायु के प्रवाह प्रतिरूप और जलवायु के अन्य आयामों में कई दशकों या उससे अधिक समय में होने वाले दीर्घकालिक परिवर्तनों को जलवायु परिवर्तन कहा जाता है।
    • ये परिवर्तन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण होते हैं जैसे कि जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस) का जलना, वनों की कटाई और मृदा क्षरण आदि।

    मुख्य भाग:

    जलवायु परिवर्तन हेतु उत्तरदायी कारक-

    • खगोलीय कारक:
      • खगोलीय कारकों का सबंध सौर कलंकों की गतिविधियों से उत्पन्न सौर्यिक निर्गत ऊर्जा में परिवर्तन से है। सौर कलंक सूर्य पर काले धब्बे होते हैं जो एक चक्रीय ढंग से घटते-बढ़ते रहते हैं।
      • सौर कंलकों की संख्या बढ़ने पर मौसम ठंडा और आर्द्र हो जाता है और तूफानों की संख्या बढ़ जाती है। सौर कलंकों की संख्या घटने से उष्ण एवं शुष्क दशाएँ उत्पन्न होती हैं यद्यपि ये खोजें आँकड़ों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
      • एक अन्य खगोलीय सिद्धांत ‘मिलैंकोविच दोलन’ है, जो सूर्य के चारो ओर पृथ्वी के कक्षीय लक्षणों में बदलाव के चक्रों, पृथ्वी के विचलन तथा पृथ्वी के अक्षीय झुकाव में परिवर्तनों के बारे में अनुमान लगाता है। ये सभी कारक सूर्य से प्राप्त होने वाले सूर्यातप में परिवर्तन ला देते हैं। जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ता है।
    • ज्वालामुखी क्रिया जलवायु परिवर्तन का एक अन्य कारण है। ज्वालामुखी से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में एयरोसोल उत्सर्जित होते हैं। ये एयरोसोल लंबे समय तक वायुमंडल में विद्यमान रहते हैं और पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाले सौर्यिक विकिरण को कम कर देते हैं। हाल ही में हुए पिनाटोबा तथा एल सियोल ज्वालामुखी उद्गार के बाद पृथ्वी का औसत तापमान कुछ हद तक गिर गया था।
      • जलवायु पर पड़ने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण मानवीय कारण वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता सांद्रण है। इससे भूमंडलीय ऊष्मण हो सकता है।
    • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन:
      • उर्वरक उपयोग, पशुपालन और धान की खेती जैसी गतिविधियों के परिणामस्वरूप वातावरण में मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं।
      • ये गैसें सूर्य के प्रकाश के अवशोषण द्वारा ग्रह को गर्म करने में योगदान देती हैं।
    • निर्वनीकरण:
      • कृषि और अन्य उपयोगों के लिये जंगलों को साफ करने से संग्रहीत कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में मिल सकती है और साथ ही कार्बन को संग्रहीत करने की पृथ्वी की क्षमता में कमी आ सकती है।
      • वनों की कटाई से जैव विविधता के नुकसान के साथ पारिस्थितिक तंत्र और उस पर निर्भर लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
    • मृदा क्षरण:
      • उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग और सघन जुताई जैसी कृषि गतिविधियों से मृदा क्षरण हो सकता है जिससे कार्बन को संग्रहीत करने की मृदा की क्षमता कम हो सकती है।
    • भू- उपयोग प्रतिरूप में परिवर्तन:
      • भू- उपयोग प्रतिरूप में परिवर्तन (जैसे- प्राकृतिक वनस्पति वाली भूमि को फसली भूमि या चरागाह में बदलना) से एल्बिडो, वाष्पीकरण और ऊर्जा संतुलन में परिवर्तन द्वारा स्थानीय जलवायु में परिवर्तन आ सकता है।
    • पशुपालन:
      • पशुओं के पाचन एवं इनके अपशिष्ट से मीथेन के उत्पादन द्वारा जलवायु परिवर्तन प्रेरित होता है।
      • मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस है जो कार्बन डाइऑक्साइड से 28 गुना (ग्रीनहाउस प्रभाव) अधिक शक्तिशाली है।

    निष्कर्ष:

    कृषि गतिविधियाँ, वनों की कटाई, मृदा क्षरण और भू- उपयोग प्रतिरूप में परिवर्तन जैसे विभिन्न कारकों का ग्रीनहाउस प्रभाव में योगदान होता है। इन गतिविधियों का जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इससे मृदा क्षरण हो सकता है। मीथेन के उत्पादन के रूप में जलवायु परिवर्तन में पशुपालन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यह आवश्यक है कि हम इन उत्सर्जनों को कम करने के लिये प्रयास करें और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने हेतु सतत कृषि और भूमि उपयोग को बढ़ावा दें।

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