प्रश्न.1 भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के दो रूप, स्थलाकृति में परिवर्तन लाते हैं। वर्णन कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.2 हिमनदों द्वारा निर्मित विभिन्न स्थलाकृतियों तथा उनके निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर: 1
हल करने का दृष्टिकोण:
- भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को संक्षेप में परिभाषित कीजिये।
- दो प्रकार की प्रक्रियाओं और उनके वर्गीकरण को रेखाचित्रों की सहायता से बताइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भू-आकृतिक शब्द भू-दृश्य या पृथ्वी की सतह की अन्य प्राकृतिक विशेषताओं से संबंधित है। पृथ्वी की सतह पर भौतिक और रासायनिक परिवर्तन करने वाले बलों को भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के रूप में जाना जाता है। सभी प्रकार के परिवर्तन पृथ्वी के अंदर और बाहर के कुछ बलों के प्रभाव में होते हैं।
मुख्य भाग:
पृथ्वी की सतह पर कार्य करने वाले बलों को बहिर्जनिक बल के रूप में जाना जाता है, जबकि पृथ्वी की सतह के अंदर काम करने वाले को अंतर्जनित बल कहा जाता है। इन्हें नीचे दिये गए आरेख में वर्गीकृत किया गया है:
- अंतर्जनित संचलन: पृथ्वी के अंदर से निकलने वाली ऊर्जा अंतर्जनित भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के पीछे मुख्य बल है। पृथ्वी की गति मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है: पटल विरूपण और एकाएक परिवर्तन।
- पटल विरूपण: सभी प्रक्रियाएँ जो भू-पर्पटी को संचलित, उत्थापित तथा निर्मित करती हैं पटल विरूपण के अंतर्गत आती हैं। जैसे:
- तीक्ष्ण वलयन के माध्यम से पर्वत निर्माण तथा भू-पर्पटी की लंबी एवं संकीर्ण पट्टियों को प्रभावित करने वाली पर्वतनी प्रक्रियाएँ
- अपसारी बल से दरारें उत्पन्न होती है (दो दिशाओं में एक दूसरे के विपरीत कार्य करने वाला बल)
- अभिसारी बल से वलय का निर्माण होता है (एक दूसरे की ओर कार्य करने वाला बल)
- महाद्वीप निर्माण प्रक्रियाएँ: जिसमें पृथ्वी की पर्पटी के बड़े हिस्से का उत्थान या विरूपण शामिल होता है इसीलिये इसे महाद्वीपीय निर्माण प्रक्रिया कहते हैं।
- जब गमन की दिशा एक दूसरे की ओर होती है तो इसे क्षेपण क्षेत्र कहते हैं।
- जब भू-पर्पटी के गमन की दिशा एक दूसरे के विपरीत होती है तब इससे महासागरीय कटक जैसी संरचनाएँ बनती हैं।
- आकस्मिक (तीव्र) संचलन: इससे कम समय में काफी विकृति पैदा होती है जैसे: भूकंप और ज्वालामुखी।
- बहिर्जनिक बल का तात्पर्य सूर्य की गर्मी के कारण अस्तित्व में आने वाले विभिन्न बलों द्वारा पृथ्वी पर उपस्थित पदार्थ में तनाव आना है। जैसे तापमान में परिवर्तन के कारण चट्टानों और अन्य पदार्थों में विरूपण होता है ।
- सभी बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ एक सामान्य शब्द अनाच्छादन के अंतर्गत आती हैं।
- अनाच्छादन में अपक्षय, अपरदन और संचलन शामिल होता है।
- अनाच्छादन प्रक्रियाएँ और उनके प्रेरक बल
निष्कर्ष:
इस प्रकार से उपर्युक्त भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ भू-पर्पटी की विशिष्ट संरचना के लिये महत्त्वपूर्ण होती हैं।
उत्तर: 2
हल करने का दृष्टिकोण:
- भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को परिभाषित कीजिये।
- हिमनदों द्वारा निर्मित विभिन्न स्थलाकृतियों तथा उनके निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
धरातल के पदार्थों पर अंतर्जनित एवं बहिर्जनिक बलों द्वारा भौतिक दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं के कारण भूतल के विन्यास में परिवर्तन को भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ कहते हैं।
- पटल विरूपण एवं ज्वालामुखीयता, अंतर्जनित भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ हैं
- अपक्षय, वृहत क्षरण , अपरदन एवं निक्षेपण बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ हैं।
मुख्य भाग:
- पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम संहति को हिमनद कहते हैं। हिमनद मुख्यतः गुरुत्वबल के कारण गतिमान होते हैं।
- हिमनदों से प्रबल अपरदन होता है जिसका कारण इसके अपने भार से उत्पन्न घर्षण है। हिमनद के लगातार संचलित होने से हिमनद मलवा हटने के साथ विभाजक नीचे हो जाता है और कालांतर में ढाल इतने निम्न हो जाते हैं कि हिमनद की संचलन शक्ति समाप्त हो जाती है तथा निम्न पहाडि़यों व अन्य निक्षेपित स्थलरूपों वाला एक हिमानी धौत (outwash plains) रह जाता है।
अपरदित स्थलरूप:
- सर्क: अधिकतर सर्क हिमनद घाटियों के शीर्ष पर पाए जाते हैं। एकत्रित हिम पर्वतीय क्षेत्रों से नीचे आती हुई सर्क को काटती है। सर्क गहरे, लंबे व चौड़े गर्त हैं जिनकी दीवार तीव्र ढाल वाली सीधी या अवतल होती है।
- हिमनद के पिघलनने पर जल से भरी झील भी प्रायः इन गर्तों में देखने को मिलती है। इन झीलों को सर्क झील या टार्न झील कहते हैं।
- आपस में मिले हुए दो या दो से अधिक सर्क सीढ़ीनुमा क्रम में दिखाई देते हैं।
- हॉर्न या गिरिशृंग और सिरेटेड कटक: सर्क के शीर्ष पर अपरदन होने से हॉर्न निर्मित होते हैं। यदि तीन अथवा अधिक विकीर्णित निरंतर शीर्ष अपरदन के कारण अत्यधिक नुकीले हो जाते हैं तथा उनके तल आपस में मिल जाते हैं, तो उन्हें हॉर्न कहते हैं।
- हिमनद घाटी/गर्त: ये घाटियाँ गर्त के आकार की एवं U-आकार वाली होती हैं जिनके तल चौड़े तथा अपेक्षाकृत चिकने एवं ढाल तीव्र होते हैं।
- इन घाटियों में मलबा बिखरा रहता है तथा हिमोढ़ मलबा दलदली रूप में दिखाई देता है।
- मुख्य हिमनद घाटी के एक या दोनों ओर ऊँचाई पर लटकती घाटियाँ हो सकती हैं। बहुत गहरी हिमनद गर्तें जिनमें समुद्री जल भर जाता है तथा जो समुद्री तटरेखा पर होती हैं, को फियोर्ड कहते हैं।
निक्षेपित स्थलरूप:
- हिमोढ़: हिमोढ़, हिमनद टिल या गोलाश्मी मृत्तिका के जमाव की लंबी कटकें होती हैं।
- अंतस्थ हिमोढ़, हिमनद के अंतिम भाग में मलबे के निक्षेप से बनी लंबी कटकें होती हैं।
- पार्श्विक हिमोढ़, हिमनद घाटी की दीवार के समानांतर निर्मित होते हैं। कुछ घाटी हिमनद तेज़ी से पिघलने पर घाटी तल पर हिमनद टिल को एक परत के रूप में अव्यवस्थित रूप से छोड़ देते हैं जिन्हें तलीय अथवा तलस्थ (Ground) हिमोढ़ कहते हैं।
- घाटी के मध्य में पार्श्विक हिमोढ़ के साथ-साथ हिमोढ़ मिलते हैं जो मध्यस्थ हिमोढ़ कहलाते हैं।
- एस्कर्स: ये रेत एवं बजरी से बनी कटकें (Ridges) होती हैं, जो हिमनदों के पिघले जल के प्रवाह के माध्यम से निक्षेप के रूप में जमा हो जाती हैं। इसके पश्चात् बर्फ पिघलने के बाद निक्षेप एक कटक के रूप में शेष रह जाते हैं।
- हिमानी धौत मैदान: हिमानी गिरिपद के मैदानों में अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी-जलोढ़ निक्षेपों से (जिसमें बजरी, रेत,चीका मिट्टी व मृत्तिका के विस्तृत समतल जलोढ़-पंख भी शामिल हैं), हिमानी धौत मैदान निर्मित होते हैं।
- ड्रमलिन: ड्रमलिन हिमनद गोलाश्म मृत्तिका के अंडाकार समतल कटकनुमा स्थलरूप होते हैं जिनमें कुछ मात्रा में रेत व बजरी होती है। ड्रमलिन के लंबे भाग हिमनद के प्रवाह की दिशा के समानांतर होते हैं। ड्रमलिन का हिमनद सम्मुख भाग स्टाॅस (Stoss) कहलाता है, जो पृच्छ भागों की अपेक्षा तीव्र एवं ढाल वाला होता है।
निष्कर्ष:
हिमनद ने विभिन्न तरीकों से पृथ्वी की सतह को आकार दिया है। भू-आकृतियों का निर्माण एक क्रमिक प्रक्रिया है जो हजारों वर्षों में होती है क्योंकि ग्लेशियर से धीरे धीरे भूमि का क्षरण होता है। बर्फ और तलछट की गति के साथ जल के प्रभाव से इन अद्वितीय भू-आकृतियों का निर्माण होता है।