प्रश्न.1 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान श्रमिक आंदोलन का विकास किस प्रकार हुआ था। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न.2 स्वातंत्र्योत्तर भारत की विदेश नीति के विकास पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
हल करने का दृष्टिकोण:
- श्रमिक आंदोलन का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान श्रमिक आंदोलन किस प्रकार विकसित हुआ था।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भारत में आधुनिक उद्योगों के आगमन से आधुनिक भारतीय श्रमिक वर्ग का उदय हुआ था क्योंकि हजारों लोग कारखानों तथा निर्माण कार्य में कार्यरत थे।
भारतीय श्रमिक वर्ग को दो बुनियादी विरोधी ताकतों का सामना करना पड़ा था - साम्राज्यवादी शासन तथा विदेशी और देशी पूंजीपति वर्ग के हाथों आर्थिक शोषण। इन परिस्थितियों में भारतीय श्रमिक वर्ग का आंदोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के साथ जुड़ गया था।
मुख्य भाग:
भारतीय श्रमिक वर्ग का आंदोलन, राष्ट्रीय आंदोलन के साथ कई चरणों में विकसित हुआ था। जैसे:
श्रमिक आंदोलनों के कारण:
- नरमपंथी, भारतीय और ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों में नियोजित श्रम के बीच अंतर करते थे।
- नरमपंथियों का मानना था कि श्रम कानून, भारतीय स्वामित्व वाले उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित करेंगे।
- नरमपंथी इन चिंताओं के कारण वर्गों के आधार पर आंदोलन का विभाजन नहीं चाहते थे, उन्होंने वर्ष 1881 और 1891 के फैक्ट्री अधिनियमों का समर्थन भी नहीं किया था।
इन चिंताओं के कारण श्रमिक वर्ग का आंदोलन शुरू हुआ था।
- श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिये शुरु में कुछ स्थानीय और परोपकारी प्रयास किये गए थे जैसे:
- वर्ष 1870 में शसिपदा बनर्जी ने एक श्रमिक क्लब और भारत श्रमजीवी नामक समाचार पत्र शुरू किया था।
- वर्ष 1878 में सोराबजी ने श्रमिकों को बेहतर काम करने की स्थिति प्रदान करने वाले बिल को बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में पारित कराने की कोशिश की थी।
- वर्ष 1880 में नारायण मेघाजी लोखंडे ने दीनबंधु अखबार शुरू किया था और बॉम्बे मिल एंड मिलहैंड्स एसोसिएशन की स्थापना की थी।
- वर्ष 1899 में ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे द्वारा पहली हड़ताल हुई और इसे व्यापक समर्थन मिला था।
- बिपिन चंद्र पाल और जी. सुब्रमण्यम अय्यर जैसे कई प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं ने श्रमिकों के लिये बेहतर स्थिति और अन्य श्रम-समर्थक सुधारों की मांग की थी।
- स्वदेशी आंदोलन के दौरान: कार्यकर्ताओं ने व्यापक राजनीतिक मुद्दों में भाग लिया था। इस दौरान सरकारी प्रेस, रेलवे और जूट उद्योग में हड़तालें की गई थीं।
- इस दौरान ट्रेड यूनियन बनाने के प्रयास हुए थे लेकिन ये बहुत सफल नहीं रहे।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद: इस युद्ध से निर्यात में वृद्धि एवं बढ़ती कीमतों से उद्योगपतियों के लिये बड़े पैमाने पर मुनाफा के अवसर सृजित हुए लेकिन श्रमिकों के लिये बहुत कम मजदूरी मिली थी।
- इससे कार्यकर्ताओं में असंतोष फैल गया। गांधी ने एक व्यापक जन आधारित राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया था और राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों एवं किसानों की भागीदारी से ट्रेड यूनियनों में श्रमिकों के संगठन की आवश्यकता को बल मिला था।
- सोवियत संघ में समाजवादी गणराज्य की स्थापना और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना जैसी अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने भारत में श्रमिक आंदोलन को एक नया आयाम दिया था।
- अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना 31 अक्टूबर, 1920 को भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के प्रभाव में हुई थी।
- कॉन्ग्रेस के गया अधिवेशन (वर्ष 1922) में AITUC के गठन की प्रशंसा की गई और इसकी सहायता के लिये एक समिति का गठन किया गया था। सीआर दास ने वकालत की कि कॉन्ग्रेस को श्रमिकों और किसानों के मुद्दों को उठाना चाहिये तथा उन्हें स्वराज के संघर्ष में शामिल करना चाहिए अन्यथा वे आंदोलन से अलग हो जाएँगे।
- ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 से ट्रेड यूनियनों को मान्यता मिली थी।
- वर्ष 1928 में गिरनी कामगार यूनियन के नेतृत्व में बॉम्बे टेक्सटाइल मिल्स में छह महीने की लंबी हड़ताल हुई थी।
- मेरठ षडयंत्र केस (1929) में सरकार ने 31 श्रमिक नेताओं को गिरफ्तार किया और मुकदमे के परिणामस्वरूप मुजफ्फर अहमद, एस.ए. डांगे, जोगलेकर, फिलिप स्प्रैट, बेन ब्रैडली, शौकत उस्मानी और अन्य को दोषी ठहराया गया था।
- इस मुकदमे को विश्व स्तर पर लोकप्रियता मिली थी लेकिन इससे श्रमिक आंदोलन कमजोर हुआ था।
- कॉन्ग्रेस के तहत: वर्ष 1937 के चुनावों के दौरान AITUC ने कॉन्ग्रेस उम्मीदवारों का समर्थन किया था। प्रांतों में कॉन्ग्रेस की सरकारों ने ट्रेड यूनियन गतिविधियों को बढ़ावा दिया था।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद: इस युद्ध में रूस की भागीदारी के कारण, कम्युनिस्टों ने इस युद्ध को "लोगों का युद्ध" बताया और इसका समर्थन किया था। वर्ष 1945 से 1947 की अवधि में श्रमिकों ने युद्ध के बाद के राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया था।
- आजादी के बाद: श्रमिक वर्ग का आंदोलन समाजवादी, कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी जैसी विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़ गया था।
निष्कर्ष:
श्रमिक आंदोलन ने कई विधायी प्रावधानों को प्रभावित किया और अंततः 4 श्रम विधेयक लाए गए। हालाँकि यह विधेयक तो पारित कर दिये गए लेकिन इन्हें लागू न करने से इन्हें पेपर टाइगर (paper tiger) का खिताब दिया गया।
उत्तर 2:
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत की विदेश नीति का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- स्वातंत्र्योत्तर भारत में इसके विकास की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
विश्व के साथ भारत के समन्वय को सुविधाजनक बनाने एवं विश्व को भारतीय दृष्टिकोण के बारे में जागरूक करने के लिये भारतीय राष्ट्रवादियों ने भारत की स्वतंत्रता से पहले ही अपनी मान्यताओं और तर्कसंगतता के आधार पर राष्ट्रीय विदेश नीति तैयार करना शुरू कर दिया था।
मुख्य भाग:
राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों पर पश्चिमी प्रभाव और बढ़ता हुआ राष्ट्रीय हित एवं प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से विदेश नीति को आकार मिला था।
साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवादी विचारधारा के विकास से राष्ट्रवादी विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य को बल मिला था। कुछ व्यापक चरणों के तहत इस नीतिगत परिप्रेक्ष्य के विकास को देखा जा सकता है।
- वर्ष 1880 से प्रथम विश्व युद्ध तक साम्राज्यवाद विरोधी और अखिल एशियाई भावना: वर्ष 1878 के बाद ब्रिटिशों ने कई विस्तारवादी अभियान चलाए थे जिनका राष्ट्रवादियों ने विरोध किया था।
- आक्रामक साम्राज्यवाद के स्थान पर राष्ट्रवादियों ने शांति की नीति का समर्थन किया था। वर्ष 1897 में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष ने कहा "हमारी सच्ची नीति शांतिपूर्ण नीति है।"
- इसलिये वर्ष 1880-1914 के दौरान उभरते विषय थे: रूस, आयरलैंड, मिस्र, तुर्की, इथियोपिया, सूडान, बर्मा और अफगानिस्तान जैसे स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये लड़ने वाले अन्य उपनिवेशों के साथ एकजुटता करना।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान: राष्ट्रवादियों ने इस विश्वास के साथ ब्रिटिश भारत सरकार का समर्थन किया था कि ब्रिटेन लोकतंत्र के उन्हीं सिद्धांतों को लागू करेगा जिसकी उन्हें अपेक्षा है। राष्ट्रवादियों ने सभी चरम दक्षिणपंथी विचारधाराओं का विरोध किया था।
- स्वतंत्रता के बाद: पंचशील और गुटनिरपेक्षता, भारत की विदेश नीति का आधार थे।
- पंचशील: 29 अप्रैल, 1954 को पंचशील या शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांतों को पहली बार चीन और भारत के तिब्बत क्षेत्र के बीच व्यापार और आवागमन पर समझौते के तहत औपचारिक रूप से प्रतिपादित किया गया था।
- इस समझौते की प्रस्तावना में कहा गया था कि दोनों देश पाँच सिद्धांतों के आधार पर कार्य करने का संकल्प लेंगे अर्थात् (i) एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिये पारस्परिक सम्मान (ii) पारस्परिक अनाक्रमण (iii) ) पारस्परिक अहस्तक्षेप (iv) समानता और पारस्परिक लाभ (v) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।
- गुटनिरपेक्षता: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच विभाजित हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप शीत युद्ध हुआ था। लगभग सभी विकसित राष्ट्र दो विरोधी परमाणु-सशस्त्र समूहों में विभाजित थे जिसमें अमेरिका और यूएसएसआर 'महाशक्तियों' के रूप में अग्रणी थे। इन महाशक्तियों के लिये तीसरा विश्व संघर्ष का क्षेत्र बन गया।
- ऐसे में राजनीतिक गुटनिरपेक्षता विवेकपूर्ण होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी थी। दूसरे देशों के घरेलू मामलों में अहस्तक्षेप के सिद्धांत और अपनी स्वयं की संप्रभुता के रखरखाव को गुटनिरपेक्षता की अवधारणा के रूप में विकसित किया गया था। बांडुंग सम्मेलन (1955) के बाद 'गुटनिरपेक्षता' शब्द को लोकप्रियता मिली थी। गुटनिरपेक्षता का तात्पर्य दो शक्ति समूहों के बीच संघर्ष की स्थिति में किसी समूह के साथ खुद को शामिल करने के लिये किसी देश के सक्रिय इनकार से है।
निष्कर्ष:
भारत की स्वतंत्रता से पहले और बाद में विदेश नीति के इन विचारों ने भारत की वर्तमान विदेश नीति को आकार दिया था।