प्रश्न.1 ब्रिटिशों की औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली को भारत में प्राचीन भारतीय शिक्षा के स्थान पर पश्चिमी शिक्षा लाने का श्रेय दिया जाता है। उपरोक्त कथन के आलोक में भारत में ब्रिटिशों की शिक्षा नीति का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.2 भारत में ब्रिटिशकालीन विदेश नीति पर चर्चा करते हुए बताइये कि इसे किस प्रकार क्रियान्वित किया गया था? (150 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
हल करने का दृष्टिकोण:
- 19वीं शताब्दी से पूर्व भारत में शिक्षा प्रणाली का परिचय दीजिये।
- 19वीं शताब्दी के दौरान और उसके बाद भारत में ब्रिटिशों की शिक्षा नीति पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
- भारत में 18वीं शताब्दी की शिक्षा पारंपरिक थी जो पश्चिम में तीव्र विकास के साथ मेल नहीं खाती थी। यह साहित्य, कानून, धर्म, दर्शन और तर्क तक ही सीमित थी तथा सीमित रुप से इसमें भौतिक और प्राकृतिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा भूगोल का अध्ययन शामिल था।
- वस्तुतः प्राचीन विद्याओं पर अत्यधिक निर्भरता के कारण इस संदर्भ में कोई भी मौलिक विचार अप्रभावी हो जाता था। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रारंभिक शिक्षा काफी विस्तारित थी। हिंदू और मुस्लिम प्राथमिक विद्यालयों को क्रमशः पाठशाला और मकतब कहा जाता था। बिहार और बंगाल के चतुष्पाठी या टोल उच्च शिक्षा के केंद्र थे।
मुख्य भाग:
भारतीय उपमहाद्वीप की प्राच्य और धार्मिक शिक्षा के प्रभुत्व के बीच, ब्रिटिशों ने कई नीतियों द्वारा पश्चिमी अंग्रेजी शिक्षा को लागू करने की कोशिश की थी।
19वीं शताब्दी के दौरान भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीतियाँ पहले की नीतियों से बहुत अलग थीं और भारतीयों को विभिन्न तरीकों से लाभान्वित करती थीं। जैसे:
- वैज्ञानिक और तर्कसंगत शिक्षा प्रणाली का प्रयास: वर्ष 1813 के चार्टर अधिनियम द्वारा आधुनिक विज्ञान की शिक्षा को बढ़ावा देने के सिद्धांत को शामिल किया गया था। अंग्रेजी भाषा में पश्चिमी मानविकी विज्ञान की शिक्षा प्रदान करने के लिये कलकत्ता कॉलेज की स्थापना की गई थी। सरकार ने कलकत्ता, दिल्ली और आगरा में तीन संस्कृत कॉलेज भी स्थापित किये थे।
- शिक्षा का एक समान माध्यम: यह स्थानीय भाषाओं के बजाय केवल अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी विज्ञान और साहित्य के शिक्षण पर बल देते थे।
- कौशल आधारित शिक्षा नीति लाना: उत्तर पश्चिमी प्रांतों के लेफ्टिनेंट-गवर्नर जेम्स थॉमसन (1843-53) ने स्थानीय भाषाओं के माध्यम से ग्रामीण शिक्षा की एक व्यापक योजना विकसित की थी। इसका उद्देश्य नवगठित राजस्व और लोक निर्माण विभाग के कर्मियों को प्रशिक्षित करना था।
ये ब्रिटिश शिक्षा की कुछ विशेषताएँ थीं। शिक्षा के ये तरीके कई प्रावधानों द्वारा लाए गए जैसे:
- फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना वर्ष 1800 में वेलेज़ली द्वारा कंपनी के सिविल सेवकों को भारतीय भाषाओं और रीति-रिवाजों (1802 में बंद) में प्रशिक्षण देने के लिये की गई थी।
- वर्ष 1813 के चार्टर अधिनियम में प्रबुद्ध भारतीयों को प्रोत्साहित करने और देश में आधुनिक विज्ञान के ज्ञान को बढ़ावा देने के सिद्धांत को शामिल किया गया था।
- इसके तहत पश्चिमी मानविकी और विज्ञान में अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने के लिये वर्ष 1817 में स्थापित कलकत्ता कॉलेज के लिये अनुदान स्वीकृत किया गया था।
- लॉर्ड मैकाले मिनट (1835): इसके तहत सीमित सरकारी संसाधनों को केवल अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिमी विज्ञान और साहित्य के शिक्षण के लिये समर्पित किया जाना था।
- इसने 'अधोगामी निस्पंदन सिद्धांत' का प्रस्ताव रखा था।
- वुड्स डिस्पैच (1854): भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्नाकार्टा" माना जाने वाला यह दस्तावेज भारत में शिक्षा के प्रसार का पहला व्यापक दस्तावेज था।
- इसने स्कूल स्तर पर स्थानीय भाषाओं एवं उच्च अध्ययन के लिये शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की सिफारिश की थी।
- इसमें महिला और व्यावसायिक शिक्षा के साथ शिक्षकों के प्रशिक्षण पर जोर दिया गया था।
निष्कर्ष:
भारत में ब्रिटिशों की शिक्षा नीति केवल भारतीयों के पक्ष में नहीं थी। इन नीतियों को ब्रिटिशों की आवश्यकता और बेहतर शिक्षा हेतु भारतीयों की मांग के रूप में बढ़ावा दिया गया था। इन नीतियों द्वारा भारतीय शिक्षा प्रणाली में नए आयाम जुड़ने के साथ पारंपरिक मूल्यों और कौशल के साथ भी समझौता हुआ था।
उत्तर 2:
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में ब्रिटिश विदेश नीति का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि ब्रिटिश विदेश नीति को भारत में और उसके पड़ोसी देशों के साथ किस प्रकार क्रियान्वित किया गया था।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
साम्राज्यवाद के हित से निर्देशित विदेश नीति का अनुसरण करना अक्सर पड़ोसी देशों के साथ ब्रिटिश भारत के संघर्षों का कारण बना था। इस दौरान देश के राजनीतिक और प्रशासनिक समेकन एवं एशिया तथा अफ्रीका में निहित उद्देश्य से ये संघर्ष उत्पन्न हुए थे।
मुख्य भाग:
भारत में ब्रिटिश विदेश नीति का विकास:
भारत में ब्रिटिश विदेश नीति के कुछ कारण -
- औपनिवेशिक भारत के समेकन ने सरकार को आंतरिक सामंजस्य और रक्षा के लिये प्राकृतिक, भौगोलिक सीमाओं तक पहुँचने के लिये प्रेरित किया था जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी सीमा संघर्ष हुआ था।
- भारतीय साम्राज्य की रक्षा के लिये।
- ब्रिटिश वाणिज्यिक और आर्थिक हितों का विस्तार करने के लिये।
- एशिया और अफ्रीका में अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों को संतुलित करना (जिनके औपनिवेशिक हित ब्रिटिशों के साथ संघर्ष की स्थिति में थे)।
- इन उद्देश्यों के कारण ब्रिटिश विस्तार होने के साथ भारत की प्राकृतिक सीमाओं के बाहर रूस और फ्रांस के साथ-साथ कई पड़ोसी देशों के साथ संघर्ष हुआ था:
उत्तरी सीमा की रणनीति:
- आंग्ल-भूटान संबंध: वर्ष 1865 में वार्षिक सब्सिडी के बदले में भूटान को असम के लिये पास सौंपने के लिये मजबूर किया गया था।
- आंग्ल-नेपाल संबंध: यह संघर्ष लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-23) की अवधि में शुरू हुआ था और सुगौली की संधि (1816) के साथ समाप्त हुआ था।
- आंग्ल-तिब्बत संबंध: तिब्बत के साथ मैत्रीपूर्ण और वाणिज्यिक संबंध स्थापित करने के लिये ब्रिटिश द्वारा प्रयास किया गया था।
- कर्जन ने तिब्बत के लिये एक विशेष मिशन भेजा था।
पूर्वी सीमा की रणनीति:
- आंग्ल-बर्मा संबंध: बर्मा के वन संसाधनों के लालच के साथ बर्मा में ब्रिटिश विनिर्माण के लिये बाजार तथा बर्मा और शेष दक्षिण-पूर्व एशिया में फ्रांसीसी महत्त्वाकांक्षाओं को रोकने के क्रम में तीन आंग्ल-बर्मा युद्ध हुए थे और अंत में वर्ष 1885 में बर्मा का ब्रिटिश भारत में विलय किया गया था।
पश्चिमी सीमा की रणनीति:
- आंग्ल-अफगान संबंध: फारस में रूसी प्रभाव बढ़ने से भारत के संबंध में संभावित रूसी योजनाओं के बारे में ब्रिटिश चिंतित हो गए। तार्किक सीमा निर्धारण और अफगान में मैत्रीपूर्ण शासन की आवश्यकता के कारण दो आंग्ल-अफगान युद्ध हुए थे।
निष्कर्ष:
भारत में ब्रिटिशों की नीति के तहत युद्ध, संघर्ष और संधि जैसे कई तरीके शामिल थे। इन नीतियों के कारण भारतीयों के संसाधनों से ब्रिटिशों के हितों की पूर्ति होती थी। इन नीतियों के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय भावनाएँ उत्पन्न हुईं और इसी प्रकार की भावनाएँ पड़ोसी प्रदेशों तक भी पहुँची जिससे ब्रिटिश विरोधी भावनाएँ और अन्ततः स्वाधीनता की भावना उत्पन्न हुई थी।