प्रश्न.1 एक नए स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत को रियासतों के एकीकरण के अलावा विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.2 भारत के विभाजन की स्वीकृति, राष्ट्रवादी नेतृत्व पर दबाव की परिणति थी। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
हल करने का दृष्टिकोण:
- स्वतंत्रता के ठीक बाद की परिस्थितियों के बारे में बताइये।
- उल्लेख कीजिये कि रियासतों के एकीकरण के अलावा कैसे इससे भारत के लिये बाहरी और आंतरिक दोनों तरह की चुनौतियाँ उत्पन्न हुई थीं।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
स्वतंत्रता के लिये एक लंबे संघर्ष के बाद भारत 15 अगस्त, 1947 को औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुआ था। हालाँकि इस स्वतंत्रता के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ भी उत्पन्न हुई थीं। यह भारत के विकास में बाधक साबित हुई थीं।
स्वतंत्रता के बाद भारत के सामने उपस्थित विभिन्न चुनौतियाँ:
आंतरिक चुनौतियाँ:
- विभाजन और इसके प्रभाव: विभाजन को बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा के रूप में चिह्नित किया गया था। इसके अलावा विभाजन के कारण ही कश्मीर समस्या के साथ शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई थी।
- राज्यों का एकीकरण: वल्लभभाई पटेल के तहत भारतीय राज्यों का एकीकरण दो चरणों में हुआ था और इन दोनों में बड़े पैमाने पर दबाव और खतरों की स्थिति बनी हुई थी।
- प्रथम चरण: 15 अगस्त, 1947 तक कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ को छोड़कर सभी राज्यों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे।
- द्वितीय चरण: यह राज्यों के 'एकीकरण' की अधिक कठिन प्रक्रिया थी। इस दौरान प्रिवी पर्स की अवधारणा को लाया गया था तथा कुछ राजकुमारों को स्वतंत्र भारत में गवर्नर और राजप्रमुख बनाया गया था।
- बड़े पैमाने पर गरीबी: स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 80% या लगभग 250 मिलियन आबादी गरीब थी। अकाल और भूख ने भारत को अपनी खाद्य सुरक्षा के लिये बाहरी मदद लेने हेतु प्रेरित किया था।
- निरक्षरता: स्वतंत्रता के समय भारत की जनसंख्या लगभग 340 मिलियन थी। उस समय साक्षरता का स्तर सिर्फ 12% था अर्थात् लगभग 41 मिलियन लोग साक्षर थे।
- कम आर्थिक क्षमता: इस दौरान भारत में स्थिर कृषि और निम्न औद्योगिक आधार जैसी समस्याएँ मौजूद थीं।
- वर्ष 1947 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का 54% हिस्सा था। स्वतंत्रता के समय भारत की 60% जनसंख्या जीविका के लिये कृषि पर निर्भर थी।
- अर्थव्यवस्था के केंद्रीय नियोजित चरण के दौरान वर्ष 1950 से 1980 के दशक तक वार्षिक विकास दर लगभग 3.5% (हिंदू विकास दर) पर स्थिर रही, जबकि प्रति व्यक्ति आय वृद्धि औसतन 1.3% थी।
- भाषाई पुनर्गठन: ब्रिटिश भारतीय प्रांतों की सीमाओं को सांस्कृतिक और भाषाई एकता के बारे में सोचे बिना अतार्किक रुप से निर्धारित किया गया था। भाषाई रूप से सजातीय प्रांतों की निरंतर मांग के कारण अलगाववादी प्रवृत्तियों का उदय हुआ था।
- अलगाववादी आंदोलन: वर्ष 1980 के दशक में पंजाब का खालिस्तान आंदोलन, उत्तर-पूर्व में विद्रोह और मध्य-पूर्वी भारत में नक्सल आंदोलन (1960) भारत के लिये सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौतियाँ थीं।
- आपातकालीन स्थिति: JP आंदोलन के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया के रूप में वर्ष 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का काला चरण (Dark Phases) माना जाता है। इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों में कटौती की गई और भारतीय लोकतांत्रिक आधार कमजोर हुआ था।
- वर्ष 1973 से आर्थिक स्थिति कमजोर होने के साथ बढ़ती बेरोज़गारी, अत्यधिक मुद्रास्फीति और भोजन एवं आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण गंभीर संकट पैदा हो गया था।
बाहरी चुनौतियाँ:
- शीत युद्ध के तनाव वाली विश्व व्यवस्था: अधिकांश विकासशील देश संयुक्त राज्य अमेरिका या सोवियत संघ जैसी दो महाशक्तियों में से किसी एक से जुड़े हुए थे। भारत ने शीत युद्ध की राजनीति से दूर रहने और इसके आंतरिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिये गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया था।
- शत्रुतापूर्ण पड़ोसी: भारत को अपनी स्वतंत्रता के प्रारंभिक चरणों के दौरान पाकिस्तान (1965, 1971) और चीन (1962) के साथ युद्धों का सामना करना पड़ा था। इसने न केवल भारत के विकास में बाधा डाली थी बल्कि इससे क्षेत्रीय अस्थिरता उत्पन्न हुई थी।
निष्कर्ष:
यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि धर्मनिरपेक्षता और संघवाद के भारतीय संवैधानिक सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र की नींव हैं। भारतीय लोकतंत्र एक विशाल सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता वाला विषम मॉडल है। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों के कारण स्वतंत्रता पूर्व कई ब्रिटिश विद्वानों ने भविष्यवाणी की थी कि भारत एक राष्ट्र के रूप में जीवंत नहीं बना रहेगा।
हालाँकि संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति भारत की मज़बूत प्रतिबद्धता से भारत को न केवल एक राष्ट्र के रूप में जीवंत रहने बल्कि नए स्वतंत्र देशों के नेता के रूप में उभरने हेतु भी प्रेरणा मिली थी।
उत्तर 2:
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत के विभाजन का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि भारत के विभाजन की स्वीकृति राष्ट्रवादी नेतृत्व पर दबाव की परिणति थी न कि सर्वसम्मति-आधारित समझौता।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के प्रावधानों के अनुसार भारत और पाकिस्तान के रुप में दो संप्रभु राष्ट्रों का उदय हुआ था। लॉर्ड माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत का गवर्नर जनरल और जिन्ना को पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बनाया गया था हालांकि माउंटबेटन को दोनों देशों का सामान्य गवर्नर जनरल माना गया था।
मुख्य भाग:
राष्ट्रवादी नेताओं ने संघर्ष की स्थितियों को रोकने और जन तथा धन को बचाने की मजबूरी के कारण विभाजन स्वीकार कर लिया था। कुछ नेता इस संदर्भ में इतने आशावादी थे जो ऐसा मानते थे कि विभाजन के बाद चीजें सामान्य हो जाएँगी, जैसा कि नेहरू के कथन से प्रतिबिंबित हुआ था। जैसे कि एक बार ब्रिटिशों के चले जाने के बाद, हिंदू-मुस्लिम मतभेदों को दूर कर दिया जाएगा एवं एक स्वतंत्र, अखंड भारत का निर्माण होगा। कुछ ऐसे कारक जिनसे पता चलता है की कुछ नेता विभाजन के पक्ष में नहीं थे। जैसे:
- नेहरू और गांधी जैसे नेता "द्विराष्ट्र सिद्धांत" के पक्ष में नहीं थे।
- नेहरू ने कैबिनेट मिशन द्वारा सुझाए गए धर्म के आधार पर राज्यों के समूहीकरण (यह भौगोलिक विभाजन का खाका था) को स्वीकार नहीं किया था।
- आजादी के दिन गांधी ने विभाजन के खिलाफ अपना गुस्सा जाहिर करने के लिये उपवास किया था।
- विभाजन को रोकने के लिये कई कदम उठाए गए जैसे सीआर फॉर्मूला, देसाई-लियाकत समझौता आदि।
इसके अतिरिक्त कई मजबूरियाँ थीं जिसने नेताओं को विभाजन के बारे में सोचने के लिये मजबूर किया था। जैसे:
- विभाजन से कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन की सफलता-असफलता का विरोधाभास प्रदर्शित हुआ था। कॉन्ग्रेस के पास दोहरी जिम्मेदारी थी- (i) विविध वर्गों, समुदायों, समूहों और क्षेत्रों को एक राष्ट्र में संरचित करना और (ii) राष्ट्र के लिये स्वतंत्रता हासिल करना।
- कॉन्ग्रेस भारत छोड़ने के लिये ब्रिटिशों पर दबाव बनाने हेतु पर्याप्त राष्ट्रीय चेतना का निर्माण करने में सफल रही थी लेकिन यह राष्ट्र को जोड़ने के कार्य को पूरा करने में विफल रही थी (विशेष रूप से मुसलमानों को राष्ट्र में एकीकृत करने में)।
- केवल सत्ता का तत्काल हस्तांतरण ही 'प्रत्यक्ष कार्रवाई' और सांप्रदायिक हिंसा को फैलने से रोक सकता था। अंतरिम सरकार के आभासी पतन ने भी पाकिस्तान की धारणा को अपरिहार्य बना दिया था।
- विभाजन की योजना से रियासतों की स्वतंत्रता को अस्वीकार कर दिया गया था क्योंकि इस व्यवस्था को बनाए रखना भारतीय एकता के लिये एक बड़ा खतरा हो सकता था क्योंकि इसका मतलब देश का बाल्कनीकरण होता।
- विभाजन को स्वीकार करना: एक अलग मुस्लिम राष्ट्र हेतु लीग की पैरवी के क्रम में चरण-दर-चरण विभाजन की प्रक्रिया को अंतिम रुप दिया गया था।
- क्रिप्स मिशन (वर्ष 1942) के दौरान मुस्लिम बहुल प्रांतों की स्वायत्तता को स्वीकार किया गया था।
- गांधी-जिन्ना वार्ता (वर्ष 1944) के दौरान गांधी ने मुस्लिम बहुल प्रांतों के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार किया था।
- कैबिनेट मिशन योजना (वर्ष 1946) के बाद कॉन्ग्रेस ने मुस्लिम बहुल प्रांतों की एक अलग संविधान सभा के गठन की संभावना को स्वीकार किया था।
- पाकिस्तान का औपचारिक संदर्भ मार्च 1947 में सामने आया, जब कॉन्ग्रेस कार्यकारी समिति के प्रस्ताव में कहा गया था कि अगर देश का विभाजन हुआ तो पंजाब (और निहित रुप में बंगाल) का विभाजन होना चाहिये।
- 3 जून योजना द्वारा कॉन्ग्रेस ने विभाजन स्वीकार कर लिया था।
- संविधान सभा की संप्रभुता पर जोर देते हुए कॉन्ग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह सांप्रदायिक दंगों को रोक नहीं सकी थी।
- फिर भी कॉन्ग्रेस में सांप्रदायिक भावना की गतिशीलता की दूरगामी सोच का अभाव था विशेष रूप से नेहरू में, जिन्होंने कई बार कहा था कि- "ब्रिटिशों के चले जाने के बाद हिंदू-मुस्लिम मतभेदों को मिटा देने के साथ स्वतंत्र एवं संयुक्त भारत का निर्माण होगा। इनका मानना था कि "विभाजन केवल अस्थायी है।" "विभाजन शांतिपूर्ण होगा - एक बार पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया गया तो संघर्ष के लिये क्या बचेगा?"
निष्कर्ष:
वर्ष 1920 और 1930 के दशक की सांप्रदायिकता, 1940 के दशक से भिन्न थी। इस दौरान 'मुस्लिम राष्ट्र' की मांग में तीव्रता आई थी। कॉन्ग्रेस के नेतृत्वकर्ताओं ने इस प्रकार की सांप्रदायिकता को कम करके आंका था।
लोगों की सांप्रदायिक प्रवृत्ति से गांधी खुद को असहाय महसूस करते थे। ऐसे में उनके पास भी विभाजन स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।