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11 Jan 2023
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस- 55
प्रश्न.1 साइमन कमीशन के क्या प्रावधान थे। क्या आपको लगता है कि निष्क्रियता के दौर में इसने राष्ट्रवादी गतिविधियों को गति (चिंगारी) प्रदान की थी? (250 शब्द)
प्रश्न.2 स्पष्ट कीजिये कि भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची और लाहौर अधिवेशनों से किस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की दिशा में परिवर्तन आया था। (150 शब्द)
उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- साइमन कमीशन के बारे में संक्षेप में बताइए।
- साइमन कमीशन के प्रावधानों पर चर्चा करते हुए विश्लेषण कीजिये कि इसने किस प्रकार राष्ट्रवादी गतिविधियों को गति प्रदान की थी।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रावधानों के अनुसार, शासन व्यवस्था की प्रगति का अध्ययन करने और नए कदमों का सुझाव देने के लिये प्रधानमंत्री स्टेनली बाल्डविन के काल में ब्रिटिश सरकार द्वारा 8 नवंबर, 1927 को सात सदस्यीय भारतीय वैधानिक आयोग की स्थापना की गई थी।
मुख्य भाग:
साइमन कमीशन के प्रावधान:
मई 1930 में साइमन कमीशन ने दो भागों में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की थी।
- इसने द्वैध शासन को समाप्त करने और प्रांतों में प्रतिनिधिमूलक सरकार की स्थापना के साथ इसे स्वायत्तता देने का प्रावधान किया था।
- इसमें गवर्नर के पास विभिन्न समुदायों की सुरक्षा के लिये आंतरिक सुरक्षा और प्रशासनिक शक्तियों के संबंध में विवेकाधीन शक्ति का प्रावधान किया गया था।
- इसमें कैबिनेट के सदस्यों को नियुक्त करने के लिये गवर्नर जनरल को संप्रभु शक्ति देने की बात कही गई थी। इसके साथ ही सरकार को उच्च न्यायालय पर पूर्ण नियंत्रण देने की बात कही गई थी।
- इसने यह भी सिफारिश की थी कि पृथक सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल को बनाए रखा जाए, लेकिन केवल तब तक जब तक कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच तनाव समाप्त नहीं हो जाता है।
- इसमें सार्वभौमिक मताधिकार को स्वीकार नहीं किया गया था। इसने संघवाद के विचार को स्वीकार किया लेकिन निकट भविष्य में नहीं।
- इसने सुझाव दिया कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और बलूचिस्तान को स्थानीय विधानमंडल मिलना चाहिये और केंद्र में इन्हें प्रतिनिधित्व का अधिकार होना चाहिये। इससे इस बात पर बल दिया गया था कि सिंध को बंबई से और बर्मा को भारत से अलग किया जाना चाहिये एवं सेना का भारतीयकरण किया जाना चाहिये।
साइमन कमीशन ने राष्ट्रवादी गतिविधियों को गति प्रदान की थी: इसने विभिन्न हितधारकों जैसे राष्ट्रवादियों, नरमपंथियों, क्रांतिकारियों और उदार बुद्धिजीवियों को विभिन्न गतिविधियों की शुरुआत हेतु प्रेरित किया था जैसे:
- साइमन कमीशन पर भारतीय प्रतिक्रिया तीव्र और लगभग समान थी। भारतीयों को इससे बाहर रखने के कारण भारतीय इससे नाराज थे। भारतीयों को इससे बाहर रखने की धारणा को भारतीयों के स्वाभिमान के अपमान के रूप में देखा गया था।
- इस प्रतिरोध की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि युवाओं की एक नई पीढ़ी को राजनीतिक कार्रवाई में भागीदारी का मौका मिला था। नेहरू और सुभाष चंद्र बोस, युवाओं और छात्रों की इस नई लहर के नेता के रूप में उभरे थे।
- समाजवाद के नए क्रांतिकारी विचार पंजाब नौजवान भारत सभा, मजदूरों और किसानों की पार्टियों और हिंदुस्तानी सेवा दल (कर्नाटक) जैसे समूहों के उद्भव में परिलक्षित हुए थे।
राष्ट्रीय आंदोलन पर साइमन कमीशन का प्रभाव:
- इससे न केवल पूर्ण स्वतंत्रता बल्कि समाजवादी तर्ज पर प्रमुख सामाजिक-आर्थिक सुधारों की मांग करने वाली क्रांतिकारी ताकतों को प्रोत्साहन मिला था।
- लॉर्ड बर्कनहेड की भारतीय राजनेताओं को सहमति आधारित संविधान बनाने की चुनौती को विभिन्न राजनीतिक वर्गों द्वारा स्वीकार किया गया था। इस प्रकार से उस समय भारतीय एकता की प्रबल संभावनाएँ दिख रही थीं।
उदारवादी बुद्धिजीवियों की गतिविधियाँ: नेहरू रिपोर्ट - लॉर्ड बर्कनहेड की चुनौती के उत्तर के रूप में देश के लिये एक संवैधानिक ढाँचे का मसौदा तैयार करने के लिये यह रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी।
- अगस्त 1928 तक इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया गया था। इसमें संविधान के आधार के रूप में "डोमिनियन दर्जा" को छोड़कर लगभग सभी मुद्दों को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था। इसमें एक वर्ग "पूर्ण स्वतंत्रता" का पक्षधर था।
सांप्रदायिक संगठनों की गतिविधियाँ: मुस्लिम लीग ने अपनी मांगों को संविधान के मसौदे में शामिल करने के लिये 'दिल्ली प्रस्ताव' रखा था। इसके कुछ प्रावधान थे जैसे:
- मुस्लिमों के लिये आरक्षित सीटों के साथ पृथक निर्वाचक मंडलों के स्थान पर संयुक्त निर्वाचक मंडल प्रदान किया जाना;
- केंद्रीय विधानसभा में मुस्लिमों को एक तिहाई प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना;
- पंजाब और बंगाल में मुस्लिमों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना;
- जिन्ना की चौदह सूत्री मांगें - जिन्ना ने वापस मुस्लिम लीग के शफी गुट में जाकर मार्च 1929 में 14 सूत्री मांगें रखीं जो मुस्लिम लीग के भविष्य के सभी प्रचारों का आधार बनी थीं।
- हिंदू महासभा ने देश की एकात्मक संरचना की मांग पर बल दिया था।
कॉन्ग्रेस के युवा वर्ग ने इस रिपोर्ट में डोमिनियन स्टेटस के विचार को अव्यावहारिक माना एवं सर्वदलीय सम्मेलन के विकास से डोमिनियन स्टेटस के विचार की आलोचना को मजबूती मिली थी। नेहरू और सुभाष चंद्र बोस ने कॉन्ग्रेस के संशोधित लक्ष्य को अस्वीकार करते हुए संयुक्त रूप से इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग की स्थापना की थी।
उदारवादी बुद्धिजीवियों की गतिविधियाँ:
- डॉ अंबेडकर को बॉम्बे विधान परिषद द्वारा साइमन कमीशन के साथ काम करने के लिये नियुक्त किया गया था। उन्होंने पुरुष और महिला दोनों के लिये समान रूप से 'सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार' पर बल दिया था- प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता और केंद्र में द्वैध शासन एवं दलित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिये।
- उन्होंने दलित वर्गों और हिंदू समुदाय के बीच कोई संबंध न होने का सुझाव दिया था और मांग की थी कि दलित वर्गों को एक अलग और स्वतंत्र अल्पसंख्यक वर्ग माना जाना चाहिये।
क्रांतिकारी राष्ट्रवादी गतिविधियाँ: साइमन कमीशन विरोधी जुलूस में लाठीचार्ज के दौरान लाला लाजपत राय की मौत के प्रतिशोध के रूप में सांडर्स की हत्या की गई थी। भगत सिंह और शिवराम राजगुरु ने सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
- केंद्रीय विधान सभा में बम फेंकना (अप्रैल 1929): भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' के पारित होने के खिलाफ केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका गया था।
निष्कर्ष:
साइमन कमीशन का आगमन भारत में एक विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दा था जिसने राष्ट्रवादी आंदोलन को गति देने के साथ देश में अशांति और असंतोष की भावना में योगदान दिया था। इसमें भारतीय प्रतिनिधित्व न होने एवं इसके द्वारा भारत पर ब्रिटिश नीतियों को लागू करने के कथित प्रयास को देश की संप्रभुता और आत्मनिर्णय के अपमान के रूप में देखा गया था।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची और लाहौर अधिवेशनों का परिचय दीजिये।
- उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये कि इन अधिवेशनों ने किस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की दिशा बदल दी थी।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
- साइमन विरोधी अभियान को बड़ी सफलता मिलने के बाद कॉन्ग्रेस के लाहौर अधिवेशन (दिसंबर 1929) में पूर्ण स्वराज की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया गया था और इसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी।
- गांधी-इरविन समझौते का समर्थन करने के लिये मार्च 1931 में कराची में कॉन्ग्रेस का एक विशेष अधिवेशन हुआ था।
मुख्य भाग:
- लाहौर और कराची अधिवेशन की ऐसी कई गतिविधियाँ थीं जिनसे राष्ट्रीय आंदोलनों को एक निर्देशित और वैचारिक दिशा प्रदान हुई थी जैसे:
लाहौर अधिवेशन में निम्नलिखित प्रमुख निर्णय लिये गए थे:
- गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार, कॉन्ग्रेस के उद्देश्य के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य और कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी समिति को सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम शुरू करने के लिये अधिकृत किए जाने के साथ 26 जनवरी, 1930 को प्रथम स्वतंत्रता (स्वराज्य) दिवस के रूप में तय किया गया था (जिसे हर जगह मनाया जाना था)।
- 31 दिसंबर, 1929 की अर्द्धरात्रि को रावी नदी के तट पर इंकलाब जिंदाबाद के नारों के साथ जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्वतंत्रता हेतु अपनाया गया नया तिरंगा झंडा फहराया गया था।
- लाहौर अधिवेशन द्वारा प्रदान किये गए वैचारिक समर्थन से सविनय अवज्ञा आंदोलन नामक राष्ट्रीय अखिल भारतीय आंदोलन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन या नमक सत्याग्रह: इस आंदोलन की शुरुआत नमक ‘कर’ के मुद्दे पर सत्याग्रह के रूप में हुई थी। इसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति से संबंधित कई मुद्दों को शामिल किया गया था जिसने इसे एक राष्ट्रीय आंदोलन बनाया था। इस आंदोलन की समावेशी प्रकृति, कॉन्ग्रेस के कराची अधिवेशन की स्वराज की भावना से प्रेरित थी।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के निलंबन और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कॉन्ग्रेस की भागीदारी ने संघर्ष-विराम-संघर्ष की गांधीवादी रणनीति को वैधता प्रदान की जिसके कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन की विफलता के बाद फिर से इसे शुरू किया गया था।
गांधी-इरविन समझौते का समर्थन करने के लिये मार्च 1931 में कॉन्ग्रेस का कराची अधिवेशन हुआ था।
- कराची अधिवेशन में कॉन्ग्रेस के प्रस्तावों के रुप में पूर्ण स्वराज के लक्ष्य के साथ मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम को दोहराया गया था।
- इसमें पहली बार कॉन्ग्रेस ने यह बताया कि जनता के लिये स्वराज का क्या अर्थ होगा। इसमें लोगों के शोषण को समाप्त करने के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता में आर्थिक स्वतंत्रता शामिल करने पर बल दिया गया था।
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची और लाहौर दोनों अधिवेशनों ने स्वतंत्रता और स्व-शासन के लिये अधिक तीव्र मांगों की ओर एक बदलाव को चिह्नित किया था।
- इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के ढाँचे के तहत क्रमिक स्वशासन की कॉन्ग्रेस की पूर्व मांग के इतर, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ स्वतंत्र एवं संप्रभु राज्य की मांग की गई थी।
निष्कर्ष:
- भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कराची और लाहौर अधिवेशनों से राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा में महत्त्वपूर्ण बदलाव आने के साथ इससे स्वतंत्रता हेतु संघर्ष की बेहतर रणनीति का मार्ग प्रशस्त हुआ था।