-
04 Jan 2023
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस- 49
प्रश्न.1 1857 के विद्रोह से पूर्व भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हुए जन प्रतिरोध के विभिन्न रूपों का विश्लेषण कीजिये। इन प्रतिरोध आंदोलनों का क्या प्रभाव पड़ा था? (250 शब्द)
प्रश्न.2 1857 के विद्रोह के कारणों एवं परिणामों का परीक्षण कीजिये। क्या आपको लगता है कि यह विद्रोह भारत का पहला स्वतंत्रता आंदोलन था? चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- 1857 के विद्रोह से पूर्व भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों के प्रतिरोध का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- इन आंदोलनों के लिये उत्तरदायी कारकों को उदाहरणों सहित बताते हुए इसकी चुनौतियों और प्रभावों की चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
- 1857 के विद्रोह से पूर्व ऐसी कई घटनाएँ हुई थीं जिनसे विदेशी शासन के खिलाफ लोगों में आक्रोश बढ़ रहा था। यह आक्रोश भारत के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों के विभिन्न समूहों द्वारा प्रतिरोध के विभिन्न रूपों में सामने आया था।
- ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय समाज के कई वर्गों द्वारा विद्रोह किया गया था जिसमें किसान, कारीगर, आदिवासी, शासक वर्ग, सैन्य कर्मी (कंपनी के अधीन और साथ ही साथ पूर्व शासकों के पदच्युत सैनिक), धार्मिक नेता (हिन्दू और मुस्लिम) आदि शामिल थे। अपने हितों की रक्षा के लिये इन वर्गों ने कभी-कभी अलग और कभी-कभी एक साथ संघर्ष किया था।
मुख्य भाग:
- प्रतिरोध को तीन व्यापक वर्ग में रखा जा सकता है: नागरिक विद्रोह, जनजातीय विद्रोह और कृषक आंदोलन।
इन आंदोलनों हेतु उत्तरदायी कारक:
- औपनिवेशिक काल में भू- राजस्व प्रणाली, नए करों का भारी बोझ, कृषकों को भूमि से बेदखल करना और आदिवासियों की भूमि पर अतिक्रमण करना।
- मध्यस्थ राजस्व संग्रहकर्ताओं और साहूकारों द्वारा मिलकर ग्रामीण लोगों का शोषण करना।
- जनजातीय भूमि पर कर लगाना, जिससे कृषि और वन भूमि पर जनजातीय लोगों का नियंत्रण समाप्त हो गया।
- ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का प्रचार, भारतीय उद्योगों पर भारी शुल्क (विशेष रूप से निर्यात शुल्क) लगाना, जिससे भारतीय हथकरघा और हस्तशिल्प उद्योगों का विनाश हुआ था।
- स्वदेशी उद्योगों के विनाश के कारण श्रमिकों के कृषि की ओर पलायन होने से भूमि/कृषि पर दबाव बढ़ जाना।
विभिन्न प्रकार के प्रतिरोध:
- नागरिक विद्रोह: सन्यासी विद्रोह (1763-1800): वर्ष 1770 के विनाशकारी अकाल और ब्रिटिशों की कठोर आर्थिक नीति के कारण पूर्वी भारत में सन्यासियों के एक समूह द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध किया गया था। इन सन्यासियों में बड़ी संख्या में वंचित छोटे ज़मींदार, विस्थापित सैनिक और ग्रामीण गरीब शामिल थे। आनंदमठ (बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का एक अर्ध-ऐतिहासिक उपन्यास) सन्यासी विद्रोह पर आधारित है।
- जनजातीय विद्रोह: जंगल महल विद्रोह या चुआर विद्रोह- जंगल या जंगल महल छोटा नागपुर और बंगाल के मैदानी इलाकों के बीच स्थित क्षेत्र की प्रशासनिक इकाई को दिया गया नाम है।
- चुआर समुदाय ने सामंती व्यवस्था के तहत भूमि पर कब्जा कर रखा था लेकिन वे अपनी जमीन से दृढ़ता से जुड़े हुए नहीं थे। यह अक्सर खेती की तुलना में शिकार हेतु अधिक उत्सुख रहते थे।
- जब औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश प्रशासन द्वरा इनके क्षेत्र में घुसपैठ कर दखल दिया गया था तब इनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। इसके साथ ही ये बाहरी लोगों (या गैर-आदिवासी) को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। ('चुआर' शब्द को कुछ इतिहासकारों द्वारा उचित नहीं माना जाता है, जो इसे जंगल महल का विद्रोह कहते हैं।)
- किसान आंदोलन: मोपला विद्रोह - राजस्व में वृद्धि और अधिकारियों के उत्पीड़न के खिलाफ मालाबार के मोपलाओं ने प्रतिरोध शुरु किया था।
इन आंदोलनों की कई चुनौतियाँ थीं:
- इन विद्रोहों ने बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित तो किया था लेकिन वास्तव में यह स्थानीय होने के साथ विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर हुए थे।
- ज्यादातर यह स्थानीय समस्याओं के कारण हुए थे।
- यदि इनमें से कुछ विद्रोह विदेशी शासन को हटाने के क्रम में समान लग रहे थे तो यह किसी 'राष्ट्रीय' आवेग का परिणाम न होकर समान समस्याओं का परिणाम थे।
- ये विद्रोह वैचारिक/सांस्कृतिक रुप से परंपरागत थे।
इन आंदोलनों का प्रभाव:
- इसमें आदिवासियों और किसानों की कुछ समस्याओं का समाधान हुआ था जैसे: पाइका विद्रोह के बाद बकाए में बड़ी छूट देने के साथ बकाएदारों की संपत्ति को अपने विवेक से बेचने पर रोक लगाईं गई थी।
- असम आंदोलन के बाद - कंपनी ने ऊपरी असम को महाराजा पुरंदर सिंह नरेंद्र को सौंप दिया और राज्य को असम के राजा को दे दिया था।
- वर्ष 1855-56 के संथाल विद्रोह के बाद भागलपुर और बीरभूम जिलों से संथाल परगना बनाया गया था। इस परगना के लिये विशेष कानून बनाए गए थे।
- ब्रिटिशों ने जाति, पंथ और स्थान के आधार पर ‘बाँटो और राज करो’ की नीति का प्रयोग किया था।
- उत्तर-पूर्व के स्वायत्त क्षेत्रों और अन्य क्षेत्रों में इसी तरह के आंदोलन हुए थे।
निष्कर्ष:
इन्हीं छोटे-छोटे विद्रोहों और संघर्षों के परिणामस्वरूप 1857 जैसे बड़े विद्रोह का मार्ग प्रशस्त हुआ था। यह विद्रोह वर्ष 1757 के बाद के औपनिवेशिक शासन के चरित्र और नीतियों का परिणाम था। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासकों की नीतियों में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए थे।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- 1857 के विद्रोह का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- 1857 के विद्रोह के कारणों और परिणामों का परीक्षण कीजिये। चर्चा कीजिये कि क्या यह विद्रोह भारत का पहला स्वतंत्रता आंदोलन था।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
1857 का विद्रोह (जिसे सिपाही विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है) भारतीय लोगों का ब्रिटिश शासन के खिलाफ किया गया एक प्रमुख विद्रोह था। इसे भारत के इतिहास में स्वतंत्रता के लिये सबसे पहले और सबसे महत्त्वपूर्ण आंदोलनों में से एक के रुप में संदर्भित किया जाता है।
मुख्य भाग:
इस आंदोलन के कारण:
- सिपाहियों में असंतोष: सिपाही अपने कम वेतन, खराब जीवन स्थितियों और पदोन्नति के अवसरों की कमी से संतुष्ट नहीं थे। ये उस सांस्कृतिक और नस्लीय श्रेष्ठता से भी नाराज थे जो अक्सर ईस्ट इंडिया कंपनी (EIC) के अधिकारियों द्वारा प्रदर्शित की जाती थी।
- EIC की दमनकारी नीतियाँ: EIC ने ऐसी कई नीतियों को लागू किया था जो भारतीय लोगों के बीच अलोकप्रिय थीं जिसमें व्यपगत का सिद्धांत (झांसी के मामले में) शामिल था।
- इस नीति को भारतीय संभ्रांत लोगों के अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिये खतरे के रूप में देखा गया था। कुप्रबंधन के आधार पर अवध का अधिग्रहण किया गया था।
- आर्थिक शोषण: EIC ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ भारतीय लोगों का शोषण किया था। इसमें उच्च कर और अफीम की जबरन खेती शामिल थी, जिसे चीन को निर्यात किया जाता था।
- सामाजिक और सांस्कृतिक कारक: EIC ने विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार किये थे। जैसे कि सती प्रथा पर प्रतिबंध और पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देना (जिन्हें पारंपरिक भारतीय मूल्यों और रीति-रिवाजों के लिये खतरे के रूप में देखा गया था)।
विद्रोह के परिणाम:
- ईस्ट इंडिया कंपनी का विघटन: EIC को ब्रिटिश क्राउन द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था जिसने भारत पर सीधे नियंत्रण कर लिया था और ब्रिटिश राज की स्थापना की थी।
- रियासतों का विलय: विद्रोह के कारण ब्रिटिशों ने कई रियासतों को अपने में मिला लिया था। ये राज्य (जो पहले कुछ हद तक स्वायत्त थे) ब्रिटिश राज के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाए गए थे।
- मुगल साम्राज्य का अंत: अंतिम मुगल सम्राट, बहादुर शाह द्वितीय को रंगून (अब यांगून) में निर्वासित कर दिया गया था, जो वर्तमान म्यांमार में है।
- ब्रिटिश नीति में परिवर्तन: विद्रोह के कारण भारत में ब्रिटिश नीति का पुनर्मूल्यांकन हुआ और इसके बाद कई सुधारों की शुरुआत हुई थी। इन सुधारों में प्रशासन में उच्च पदों पर भारतीय अधिकारियों की नियुक्ति, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत और भारतीय लोगों की जीवन स्थितियों में सुधार के उपायों की शुरूआत शामिल थी।
- स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव: 1857 के विद्रोह को अक्सर ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के लिये भारत के संघर्ष में पहले कदम के रूप में देखा जाता है। यह भारत के इतिहास में एक ऐसा प्रमुख बिंदु था जिसने स्वतंत्रता सेनानियों की भावी पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिये संघर्ष जारी रखने के लिये प्रेरित किया था।
- ब्रिटिश राज की प्रकृति में परिवर्तन: इसके बाद ब्रिटिश राज अधिक हस्तक्षेपवादी बन गया था और इसने भारत के आधुनिकीकरण और "पश्चिमीकरण" के उद्देश्य से नीतियों को लागू करना शुरू कर दिया था।
निष्कर्ष:
इसने स्वतंत्रता सेनानियों की भावी पीढ़ियों को प्रेरित किया और ब्रिटिश राज की प्रकृति में बदलाव में योगदान दिया था। अंततः इसके बाद भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक संगठित एवं शांतिपूर्ण होने के साथ व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया था।