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29 Dec 2022
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस- 44
प्रश्न.1 अकबर का प्रशासन अन्य मुगल शासकों में अद्वितीय था। अकबर की प्रशासनिक शैली के कारणों और उसके प्रशासन के अद्वितीय पहलुओं की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.2 8वीं से 17वीं शताब्दी की अवधि को राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में व्यापक बदलावों के काल के रुप में चिह्नित किया जाता है लेकिन इस दौरान सामाजिक जीवन में काफी कम बदलाव हुआ था। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- मध्यकालीन भारत के मुगल शासन (विशेष रूप से अकबर के शासन) के बारे में संक्षेप में परिचय दीजिये।
- अकबर की प्रशासनिक शैली के कारणों और उसके प्रशासन के अद्वितीय पहलुओं की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
मुगल काल, वर्ष 1526 में बाबर के सिंहासन पर बैठने के साथ शुरू हुआ था और वर्ष 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ था। विभिन्न मुगल शासकों में अकबर का प्रशासन धर्म, गैर -मुगल, गैर-मुस्लिम के प्रति उसकी नीतियों और अन्य आर्थिक और रणनीतिक मामले के आधार पर दूसरों से अलग था।
मुख्य भाग:
- अकबर की प्रशासनिक शैली उस समय की आवश्यकता और उस समयकाल के दौरान मुगल साम्राज्य की कमजोरी के आधार पर निर्धारित हुई थी। अकबर की इस प्रशासनिक शैली को निर्धारित करने वाले विभिन्न कारण थे:
- अकबर का मार्गदर्शन करने के लिये कई करीबी सलाहकार थे। जैसे बैरम खान,महम अंगा और बीरबल एवं मुल्ला दो प्याज़ा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति।
- कठिन परिस्थितियों में तेरह वर्ष की छोटी उम्र में अकबर गद्दी पर बैठा था।
- इस समय आगरा के बाहर अफगान मजबूत स्थिति में थे और अंतिम मुकाबले के लिये हेमू के नेतृत्व में अपनी सेना को फिर से संगठित कर रहे थे।
- इस क्रम में काबुल पर हमला किया गया था और उसे घेर लिया गया था।
- इस समय पराजित अफगान शासक सिकंदर सूर ने शिवालिक पहाड़ियों में शरण ले रखी थी।
- इसके काल में राजपूतों, अन्य हिंदुओं और गैर-मुगलों के साथ वैवाहिक गठबंधन के माध्यम से राज्य को मजबूती प्रदान करने के क्रम में सहिष्णु और उदार नीतियाँ अपनाई गईं थीं।
- इस दौरान विभिन्न शासकों के साथ समन्वय स्थापित कर न केवल जातीय और नस्लीय मानसिकता को रोका गया बल्कि इन्हें साम्राज्य के हित में कार्य करने हेतु भी प्रेरित किया था।
- वैवाहिक गठबंधन के साथ राजपूतों को उच्च मनसब आवंटित करने से विद्रोह को रोकने के साथ पश्चिमी और दक्षिणी भारत में साम्राज्य विस्तार के क्रम में राजपूतों के सैन्य और युद्ध कौशल का लाभ उठाया गया था।
- मनसबदारी प्रणाली से मुगलों की शक्तिशाली सेना की शक्ति, मध्य एशिया की उज़्बेक सेना जैसी हो गई थी।
- इससे मुगलों को शाही खजाने पर बिना किसी अतिरिक्त दवाब के अंग्रेजों की सहायक संधि के लाभों की तरह ही विकेन्द्रीकृत सेना की प्राप्ति हुई थी।
- इसने मुगलों के अधीन रहने वाले गैर-मुगल मनसबदारों के प्रति उदारता की नीति अपनाई थी।
- अकबर की भू-राजस्व प्रणाली जैसे दहसाला, ज़ब्ती या गल्ला-बख्शी और कंकुट या नसक भी काफी प्रभावी साबित हुई थी।
- इसने न केवल राजस्व के रुप में शाही खजाने को लाभ हुआ बल्कि नकद या वस्तु के रूप में भुगतान करने की स्वतंत्रता के रुप में किसानों को भी सुविधा प्रदान की गई थी।
- शेरशाह जैसे पूर्ववर्ती शासकों द्वारा अपनाई गई राजस्व प्रणालियों के परिणामस्वरूप इसके पास विभिन्न राजस्व प्रणाली के अनुभव उपलब्ध थे।
- इसके द्वारा सुलह-ए-कुल, दीन-ए-इलाही और इबादत खाना जैसी धार्मिक नीतियाँ शुरु की गई थीं।
- आध्यात्मिक विकास में योगदान के रुप में इनसे भक्ति और सूफी आंदोलन की तरह ही सामाजिक-धार्मिक सुधार का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
- इससे लोगों के बीच चरम धार्मिक दृष्टिकोण को रोकने के साथ आध्यात्मिक और उदार नीतियों के लिये आधार प्रदान किया गया था।
- दक्कन में आधिपत्य की नीति: मुगलों और पहले के शासकों (मुहम्मद-बिन-तुगलक) द्वारा दिल्ली से दूर दक्षिण भारत पर प्रत्यक्ष नियंत्रण न कर पाने के कारण ऐसी नीतियों को अपनाना आवश्यक था।
- इस दौरान पड़ोसी क्षेत्र के शासकों को अपने प्रभाव में लाने के साथ युद्ध तथा प्रत्यक्ष शासन में होने वाले संसाधनों की बर्बादी को रोकने पर बल दिया गया था।
- दक्षिण में औरंगजेब द्वारा युद्ध की नीति को अपनाने और संसाधनों की बर्बादी के फलस्वरूप मुगल साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त होने के साथ मराठों और मुगलों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा मिला था।
- काबुल-कंधार-गजनी जैसे पश्चिमी क्षेत्रों पर इसकी मजबूत स्थिति के कारण तुर्क, उज़्बेकों और अफगान जैसे बाहरी आक्रमणकारियों के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त हुई थी।
- भारत में मुगलों ने विदेशी व्यापार और सुरक्षा को प्रोत्साहन देने के लिये ईरान, उज़्बेक और ऑटोमन जैसी पड़ोसी एशियाई शक्तियों के साथ संबंध स्थापित किये थे।
- वर्ष 1602 में कंधार पर फारस का कब्ज़ा हो गया था। जहाँगीर और उसके उत्तराधिकारियों की इसे फिर से हासिल करने में विफलता के कारण पश्चिमी सीमा, सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील हो गई थी ।
निष्कर्ष:
अकबर की नीतियों का प्रारूप साम्राज्य की आवश्यकता और मांगों के आधार पर तैयार किया गया था न कि व्यक्तियों की पसंद या नापसंद के आधार पर। इसके परिणामस्वरूप इन नीतियों के कारण साम्राज्य को दीर्घकालिक स्थायित्व प्राप्त हुआ था। आगे के मुगल शासकों द्वारा इन नीतियों के साथ समझौता करने और धार्मिक एवं रूढ़िवादी विचारों को अपनाने के कारण मुगल साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- 8वीं शताब्दी से ठीक पहले की परिस्थितियों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- 8वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में आए परिवर्तनों के साथ सामाजिक जीवन में आए परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
- आक्रमण और युद्ध के काल में शासकों एवं उनकी सेना की शारीरिक शक्ति द्वारा राजनीतिक शक्ति का निर्धारण होता था। कभी-कभी छोटी सेना वाले कमजोर शासकों को मजबूत शासक द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता था और वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था भी परिवर्तित हो जाती थी। इस क्रम में बाबर के आक्रमण से पश्चिमी भारत के सामंती शासकों की जगह मुग़लों का प्रभाव स्थापित हो गया था। राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन से अक्सर सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में भी परिवर्तन होता है लेकिन लोगों की सामाजिक स्थिति में होने वाले बदलाव में अधिक समय लगता है।
मुख्य भाग:
- आठवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक के हज़ार वर्षों में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में बदलाव के साथ कुछ हद तक सामाजिक जीवन में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए थे।
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तन:
- मध्यकाल में देश के राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण की शुरुआत तुर्कों द्वारा की गई थी और बाद में इसे मुगलों द्वारा और भी समेकित किया गया था।
- हालाँकि तुर्कों और मुगलों की प्रशासनिक प्रणाली उत्तर भारत तक ही सीमित थी लेकिन इसने अप्रत्यक्ष रूप से भारत के अन्य भागों को भी प्रभावित किया था।
- इस समय चाँदी की मुद्रा का प्रचलन, सड़कों और सरायों के विकास के साथ शहरी जीवन पर अधिक बल दिये जाने का प्रत्यक्ष प्रभाव व्यापार और हस्तशिल्प के विकास पर पड़ा था जो सत्रहवीं शताब्दी के दौरान अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा था।
- मुगलों के तहत, मुसलमानों और हिंदुओं के एकीकृत शासन द्वारा राजनीतिक एकीकरण का प्रयास किया गया था।
- हालाँकि इस समय शासक वर्ग कुलीन बना रहा था जिसमें निम्न वर्ग के प्रतिभावान लोगों के लिये सीमित अवसर ही थे।
- मुग़ल अभिजात वर्ग को नौकरशाही के रूप में संगठित किया गया था जो शासक पर निर्भर रहते थे।
- हालाँकि मध्यकाल में खेती की भूमि से प्राप्त राजस्व, आय का प्रमुख स्रोत होता था।
- तुर्कों का महत्त्वपूर्ण योगदान तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के दौरान मंगोल हमले से देश की रक्षा करना था। आगे चलकर मुगलों द्वारा उत्तर में हिंदुकुश पहाड़ों के साथ काबुल-गजनी पर प्रभाव स्थापित कर इसे जारी रखा था।
- मसालों की भूमि के रूप में भारत की प्रतिष्ठा और पूर्वी अफ्रीका सहित पूर्वी विश्व के कपड़ा कारख़ानों में इसकी स्थिति ने यूरोपीय देशों को भारत के साथ सीधे व्यापारिक संबंध स्थापित करने हेतु प्रेरित किया था।
- मुगल साम्राज्य के पतन के साथ अन्य राजनीतिक घटनाओं जैसे- नादिर शाह और अफगानों के आक्रमण एवं यूरोपीय राष्ट्रों में होने वाले तीव्र आर्थिक विकास के कारण, भारत के साथ-साथ कई अन्य एशियाई देशों में यूरोपीय राष्ट्रों का प्रभुत्व स्थापित हुआ था।
- मुगल शासक वर्ग द्वारा समुद्र के मार्गों की अवहेलना करना भी यूरोपीय राष्ट्रों के अनुकूल साबित हुआ था।
- मुगल शासकों ने विदेशी व्यापार के महत्त्व को पहचानते हुए यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को संरक्षण और समर्थन दिया था।
- लेकिन इन्हें राष्ट्र के आर्थिक विकास में नौसैनिक शक्ति के महत्त्व की समझ का अभाव था।
- इस समय ब्राह्मणों और मौलवियों की शिक्षाओं पर अधिक बल दिया गया था।
- इनके दबाव के कारण समाज को अधिक तार्किक और धर्मनिरपेक्ष बनाने के अकबर के प्रयास ज्यादा सफल नहीं हो पाए थे।
- इस दौरान भारतीय कारीगरों के कौशल और बड़ी संख्या में उनकी उपलब्धता के कारण मशीन शक्ति आधारित उत्पादक उद्यमों को विकसित करने के प्रयास बाधित हुए थे।
- जाति व्यवस्था से संकीर्णता और रूढ़िवादिता के दृष्टिकोण को जन्म मिला था।
- राजनीतिक एकीकरण का विकास, सांस्कृतिक एकीकरण के समानांतर था। भारतीय समाज में नस्ल, धर्म और भाषा में अंतर के बावजूद, एकीकृत संस्कृति विकसित हुई।
- इस अवधि को आर्थिक विकास और संवृद्धि द्वारा भी चिह्नित किया जाता है। इस समय व्यापार और कृषि को भी प्रोत्साहन मिला था।
- हालांकि इस दौरान विभिन्न क्षेत्रों में होने वाला विकास असमान था लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के दौरान गंगा घाटी के अलावा गुजरात, कोरोमंडल तट और बंगाल का तीव्र विकास हुआ था।
- इस दौरान कोई शिल्पकार जितना कुशल हो सकता था उसकी तुलना में उसकी उत्पादकता और दक्षता कम रही थी। यह कारीगर जाति के प्रभाव और पूँजी के अभाव के कारण, पश्चिम की तरह व्यापारियों और उद्यमियों के रूप में विकसित नहीं हो सके थे।
- इससे धन का असमान वितरण होने के साथ घरेलू बाजार सीमित रह गया था।
सामाजिक जीवन में परिवर्तन:
- सामाजिक जीवन के क्षेत्र में, धर्म को इस्लाम द्वारा दी गई चुनौती और राजपूत शासकों की राजनीतिक शक्ति में आने वाली कमी के बावजूद (जो धर्म की रक्षा के लिये प्रेरित रहते थे) समाज में जाति व्यवस्था हावी रही थी।
- हालाँकि नाथपंथी और भक्ति संतों ने जाति व्यवस्था की तीखी आलोचना की थी लेकिन यह शायद ही इसमें कोई विशेष प्रभाव डाल पाए थे।
- संतों द्वारा की जाने वाली जाति व्यवस्था की आलोचना का प्रभाव दैनिक या धर्मनिरपेक्ष जीवन तक नहीं हो सका था।
- कई महिला संतों जैसे मीरा और अन्य संतों जैसे सूरदास ने पति की सेवा के कार्य से ऊपर उठकर, महिलाओं के लिये भी भक्ति का मार्ग खोला था।
- हालाँकि इस समय ब्राह्मणों ने अपनी विशेषाधिकार स्थिति का दावा करना जारी रखा था।
- भक्ति और सूफी संतों ने धीरे-धीरे हिंदू धर्म और इस्लाम के मूल सिद्धांतों की बेहतर समझ विकसित की और राज्य की नीतियों को भी प्रभावित किया था।
- उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य के विकास में भी योगदान दिया था लेकिन धार्मिक और आध्यात्मिक मामलों से अत्यधिक सरोकार के परिणामस्वरूप तर्कसंगत ज्ञान और विज्ञान का सीमित विकास हुआ था।
- इस दौरान पर्दा प्रथा का प्रचलन था। हिंदू महिलाओं को पुनर्विवाह के साथ अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी का अधिकार नहीं था लेकिन मुस्लिम महिलाओं के पास यह अधिकार था। वास्तव में इन अधिकारों से मुस्लिम महिलाओं को भी वंचित रखा गया था।
निष्कर्ष:
- उपर्युक्त परिस्थितियों में ही अंग्रेज, भारत को उपनिवेश बनाने में सफल हुए थे और भारत को कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता एवं यूरोप की विनिर्मित वस्तुओं के गंतव्य के रुप में तब्दील कर दिया गया था।