दिवस- 42
प्रश्न.1 प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में बौद्ध धर्म की समृद्धि में, पाल वंश की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न.2 ऐसा माना जाता है कि राजपूतों ने अपने शक्ति प्रदर्शन हेतु युद्ध का उपयोग किया था। राजपूत समाज के संगठन के बारे में बताइए। चर्चा कीजिये कि अफगान और तुर्की आक्रमणकारियों के आगमन से राजपूतों की राजनीतिक शक्तियों में कमी क्यों आई थी? (150 शब्द)
27 Dec 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर:1
दृष्टिकोण:
- पाल वंश के शासनकाल का परिचय दीजिये।
- बौद्ध धर्म के संरक्षण में पाल वंश के योगदान की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- "पाल" एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ "रक्षक" होता है। सम्राटों के नाम में इस शब्द को जोड़ने के कारण इसे "पाल वंश" नाम दिया गया था।
- पाल वंश द्वारा 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक बिहार और बंगाल के क्षेत्रों में शासन किया गया था।
- प्राचीन भारत में बंगाल के गौड़ साम्राज्य के पतन के बाद वहाँ पर कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी, जिसके कारण छोटे शासकों के बीच बार-बार युद्ध होते रहते थे। इस आलोक में 750 ई. में इन छोटे शासकों ने गोपाल नाम के एक "क्षत्रिय" को अपना शासक बनाने का निर्णय लिया था। इसके बाद गोपाल प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हुआ था।
मुख्य भाग:
बौद्ध धर्म में पाल शासकों का योगदान:
1. पाल शासकों ने बौद्ध धर्म (महायान बौद्ध धर्म) को संरक्षण दिया था और ये बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।
2. इन्होंने बौद्ध धर्म से संबंधित पांडुलिपियों को संरक्षित किया था और ताड़ के पत्तों पर अंकित बौद्ध संदेशों को संरक्षित किया था।
3. पाल वंश के संस्थापक गोपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार कराया था। इस काल से संबंधित विक्रमशिला और जगदला मठ, बौद्ध दर्शन के सर्वोच्च शिक्षण केंद्र थे।
4. धर्मपाल द्वारा निर्मित पहाड़पुर का सोमपुर महाविहार,भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े बौद्ध विहारों में से एक है।
5. मंदिरों और महलों की पाल वास्तुकला बौद्ध स्तूपों से प्रभावित थी जिसे बांस या बंगला छत कहा जाता था।
6. गौड़ शासक शशांक द्वारा नष्ट किये गए बौद्ध धार्मिक स्थलों जैसे गया और अन्य स्थानों की प्रसिद्धि को पाल शासकों ने पुनर्जीवित किया था।
7. गया में मठ के निर्माण हेतु जावा के राजा शैलेंद्र को पाल शासक द्वारा अनुमति दी गई थी। इससे भारत के बाहर भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ था।
8. हिंदू धर्म के भागवतवाद और भक्तिवाद के साथ आगे चलकर इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध धर्म पर होने वाले हमले के आलोक में पाल वंश द्वारा बौद्ध धर्म का समर्थन किया गया था।
9. पाल वंश के तहत हरिषभद्र जैसे विभिन्न बौद्ध लेखकों और विद्वानों को संरक्षण दिया गया था।
निष्कर्ष:
मध्यकाल में केवल पाल वंश के तहत ही बौद्ध धर्म को शाही संरक्षण प्राप्त हुआ था।
उत्तर:2
दृष्टिकोण:
- राजपूतों और उनके राजवंशों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- राजपूत समाज के संगठन की विवेचना कीजिये और यह भी उल्लेख कीजिये कि राजपूतों ने अफगान और तुर्की आक्रमणकारियों के समक्ष राजपूतों की राजनीतिक शक्तियों में कमी क्यों आई थी।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- प्रतिहार साम्राज्य के विखंडन के साथ ही उत्तर भारत में कई राजपूत शासक अस्तित्व में आए थे। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कन्नौज के गढ़वाल, मालवा के परमार और अजमेर के चौहान थे।
- देश के विभिन्न हिस्सों में अन्य छोटे राजवंश थे जैसे- आधुनिक जबलपुर के आसपास के क्षेत्र में कलचुरी, बुंदेलखंड में चंदेल, गुजरात के चालुक्य और दिल्ली के तोमर आदि।
मुख्य भाग:
- राजपूतों को युद्ध से प्रेम के साथ बहादुरी और वीरता के पर्याय के रुप में पहचाना जाता था। यह विरोधियों को मारने के लिये नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत कौशल, वीरता और शक्ति प्रदर्शन हेतु आपस में युद्ध करने हेतु प्रेरित रहते थे।
- आमतौर पर यह हराने के बाद अपने प्रतिद्वंद्वी को मुक्त कर देते थे। भारत में किसी भी अन्य खेल की तरह इनका युद्ध भी नियम आधारित था। इस कारण कहा जाता है कि राजपूत युद्ध को खेल के रूप में लेते थे।
- राजपूत समाज की इकाई, कबीला था। प्रत्येक कबीले का संबंध निश्चित वंश से रहता था। यह कबीले आमतौर पर एक विशेष क्षेत्र पर प्रभाव रखते थे।
- भूमि, परिवार और मान (प्रतिष्ठा) से लगाव रखना, राजपूतों की विशेषता थी। प्रत्येक राजपूत राज्य पर राणा या रावत द्वारा अपने प्रमुखों के साथ मिलकर शासन किया जाता था, जो आमतौर पर शासक के सगे भाई होते थे।
- यद्यपि उनकी जागीरें शासक की दया पर आधारित मानी जाती थीं।
- राजपूतों में भाईचारे और समतावाद की भावना प्रबल थी।
- कुछ कारणों से उनके बीच अनुशासन बनाए रखना कठिन हो गया था। कई पीढ़ियों तक चलने वाले झगड़े राजपूतों की कमजोरी थी। विशिष्ट समूह बनाने और प्रत्येक द्वारा दूसरों पर श्रेष्ठता का दावा करने की भी इनकी कमजोरी थी।
- ये गैर-राजपूतों के साथ भाईचारे की भावना से रहने हेतु प्रेरित नहीं थे।
- राजपूत, युद्ध को खेल के रूप में लेते थे। भूमि और मवेशियों के लिये संघर्ष से विभिन्न राजपूत राज्यों के बीच निरंतर युद्ध होते रहते थे।
- आदर्श शासक वह होता था जो दशहरा उत्सव मनाने के बाद अपने पड़ोसियों के क्षेत्रों पर आक्रमण करने के लिये अपनी सेनाओं का नेतृत्व करता था।
- इस नीति के कारण गाँवों और शहरों दोनों में ही लोगों को काफी अधिक नुकसान उठाना पड़ता था।
- राजपूत शासक ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों और जाति व्यवस्था के संरक्षक के रूप में सामने आए थे।
- राजपूत शासकों ने कला और साहित्य को भी संरक्षण दिया था। उनके संरक्षण में इस अवधि के दौरान कई किताबें और संस्कृत में नाटक लिखे गए थे।
- गुजरात में चालुक्य शासक भीम के प्रसिद्ध मंत्री, वास्तुपाल को लेखक और विद्वानों के संरक्षक होने के साथ माउंट आबू में प्रसिद्ध जैन मंदिर के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। परमार शासकों की राजधानी उज्जैन और धारा, संस्कृत शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे।
- इस समय अपभ्रंश और प्राकृत में कई रचनाएँ लिखी गईं थी जो इस क्षेत्र की भाषाओं को दर्शाती हैं। जैन विद्वानों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। जैसे हेमचंद्र, जिन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश दोनों में लिखा था।
राजपूतों की हार के कारण:
कहा जाता है कि किसी देश को दूसरे देश द्वारा तभी जीता जाता है जब वह सामाजिक और राजनीतिक संकट के साथ अपने पड़ोसियों की तुलना में आर्थिक और सैन्य रूप से पिछड़ा होता है।
- विरोधियों को हराने के बाद मुक्त करने और लगातार युद्ध करते रहने के कारण गैर-राजपूत शासकों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा था। जैसे पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ मुहम्मद गौरी ने अपनी हार का बदला लिया था।
- भारतीयों की कमजोरी सामाजिक और संगठनात्मक भी थी। सामंतवाद के विकास अर्थात् स्थानीय जमींदारों और प्रमुखों के उदय ने भारतीय राज्यों के प्रशासनिक ढाँचे और सैन्य संगठन को कमजोर कर दिया था।
- शासकों को अपने विभिन्न प्रमुखों पर निर्भर रहना पड़ता था जो समन्वय में नहीं रहते थे और युद्ध के बाद अपने क्षेत्रों में चले जाते थे।
- तुर्कों की जातीय संरचना और इक्ता एवं खालसा प्रणालियों के विकास से तुर्कों को बड़ी स्थायी सेना बनाए रखने में सहायता मिली थी।
- इसके अलावा भारतीय घुड़सवार एक संगठित निकाय के रूप में चलने और लंबी दूरी तय करते हुए युद्धाभ्यास में अभ्यस्त नहीं थे।
- राजपूतों के पास बेहतर घुड़सवार धनुर्धारी नहीं थे। तुर्की योद्धा अधिक दूरी से तीर चला सकते थे।
- तुर्कों के घोड़े, भारत में आयातित घोड़ों की तुलना में फुर्तीले और अधिक मजबूत थे।
- तुर्कों के सामाजिक और सांगठनिक ढाँचे से भी उन्हें लाभ प्राप्त हुआ था।
- तुर्की के कई अधिकारी गुलाम थे। जिन्हें युद्ध के लिये प्रशिक्षित किया गया था और वे सुल्तान की सेवा में तत्पर रहते थे। इन पर सुल्तान पूरा भरोसा कर सकते थे।
- तुर्क 'गाजी' की भावना से प्रेरित थे जबकि राजपूत युद्ध में पीछे हटने को अपमान मानते थे। इससे तुर्कों को सामरिक लाभ मिला था।
- राजपूतों ने उत्साहपूर्वक लंबे समय तक प्रतिरोध करते हुए तुर्की सेनाओं को कई बार हराया था, लेकिन राजपूतों में 'रणनीतिक दृष्टिकोण' का अभाव था।
- एक बार जब भारत के बाहरी क्षेत्र जैसे- काबुल और लाहौर, तुर्कों के अधीन हो गए थे तो राजपूतों द्वारा उन्हें वापस पाने के लिये कोई ठोस प्रयास नहीं किये गए थे।
- गजनवियों को पंजाब से बाहर करने के लिये भी बहुत कम प्रयास किये गए थे।
- राजपूतों ने बाहर के विकास पर बहुत कम ध्यान दिया था, विशेष रूप से मध्य एशिया में, जिसने भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
निष्कर्ष:
राजपूतों के बीच आंतरिक मतभेद एवं संघर्ष होने के साथ सैन्य दृष्टिकोण से कम तकनीकी विकास से न केवल स्थानीय लोगों के लिये कठिनाई पैदा हुई बल्कि इससे तुर्क और अफगान जैसे पड़ोसियों के आक्रमण का भी मार्ग प्रशस्त हुआ जिससे आगे चलकर दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई थी।