प्रश्न.1 मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत के सबसे महान साम्राज्यों में से एक था। भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य के महत्त्व का आकलन कीजिये और इसके पतन के कारणों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
प्रश्न.2 मौर्योत्तर काल को अंधकार युग के रुप में संदर्भित किया जाता है। मौर्योत्तर कालीन विकास के संबंध में दिये गए कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- प्राचीन भारत के मौर्य साम्राज्य का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- भारत के इतिहास में मौर्य साम्राज्य के महत्त्व का आकलन कीजिये और इसके पतन के कारणों की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
मौर्य वंश की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी। इसने नंद वंश की बढ़ती कमजोरी और अलोकप्रियता का लाभ उठाया। चाणक्य (जो कौटिल्य के नाम से जाने जाते हैं) की मदद से इसने नंद वंश को पराजित कर मौर्य वंश की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त के दुश्मनों के खिलाफ चाणक्य की कूटनीतियों का वर्णन नौवीं शताब्दी में विशाखदत्त द्वारा लिखित एक नाटक, मुद्राराक्षस में विस्तार से किया गया है। आधुनिक काल में इस पर आधारित अनेक नाटक बने हैं।
मुख्य भाग:
मौर्य साम्राज्य का महत्त्व:
- प्रशासन: जीवन के सभी आयामों को नियंत्रित करने के लिये विशाल नौकरशाही को बनाए रखना आवश्यक था। प्राचीन इतिहास के किसी अन्य काल में हमें इतनी विस्तृत प्रशासनिक संरचना देखने को नहीं मिलती जितनी कि मौर्य साम्राज्य की थी।
- इस समय महत्त्वपूर्ण पदाधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था।
- ऐसा लगता है कि अधिकांश पदाधिकारियों को नकद में भुगतान किया जाता था। सर्वोच्च पदाधिकारी मंत्री, पुरोहित, कमांडर-इन-चीफ (सेनापति) और युवराज थे, जिन्हें अधिक भुगतान किया जाता था।
- प्रशासनिक तंत्र में विस्तृत जासूसी प्रणाली थी। इस समय विभिन्न गुप्तचर विदेशी शत्रुओं के बारे में खुफिया जानकारी एकत्र करते थे और कई अधिकारियों पर नजर रखते थे।
- विस्तृत भौगोलिक साम्राज्य: मगध के साथ मौर्य साम्राज्य को चार प्रांतों में विभाजित किया गया था और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। अशोक के शासनकाल के दौरान कलिंग नामक पाँचवाँ प्रांत शामिल किया गया था।
- उत्तरापथ (उत्तर पश्चिम भारत) - राजधानी तक्षशिला
- दक्षिणापथ (दक्षिणी भारत) - राजधानी सुवर्णगिरि
- प्राची (मध्य देश) - पाटलिपुत्र
- अवंति - राजधानी उज्जयिनी
- कलिंग - राजधानी तोसली
- आर्थिक विनियमन: यदि हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र का संदर्भ लें तो ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य की आर्थिक गतिविधियों को विनियमित करने के लिये यहाँ 27 अधीक्षकों (अध्यक्षों) को नियुक्त किया गया था।
- कृषकों के लाभ के लिये सिंचाई सुविधाओं के साथ जल आपूर्ति का प्रबंधन किया गया था।
- मौर्य कला: राजनीतिक और धार्मिक कारणों से मौर्य शासकों द्वारा स्तंभों, स्तूपों और महलों के रूप में स्थापत्य का निर्माण कराया गया था।
- न्याय/सेना: राजा न्याय का प्रमुख होता था। कौटिल्य ने दो प्रकार के न्यायालयों के अस्तित्व का उल्लेख किया है - धर्मस्थीय (दीवानी मामलों से संबंधित) और कंटकशोधन (आपराधिक मामलों से संबंधित)।
- अशोक ने धर्म/धम्म पर बल देते हुए पूरे देश में इसकी अनिवार्यताओं को लागू करने के लिये अधिकारियों को नियुक्त किया था।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण:
- ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया: अशोक की सहिष्णु नीति के परिणामस्वरूप जीव हत्या पर रोक लगा दी गई और महिलाओं द्वारा किये गए अनावश्यक अनुष्ठानों की अवहेलना की गई। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उभरने वाले नए राज्यों पर ब्राह्मणों का शासन था। सातवाहन, शुंग और कण्व ब्राह्मण ही थे।
- वित्तीय संकट: सेना पर भारी खर्च, नौकरशाही (मौर्य काल में विस्तृत सेना और प्रशासनिक संरचना थी) और अशोक द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को दिये जाने वाले अनुदान से मौर्य साम्राज्य के समक्ष वित्तीय संकट पैदा हो गया।
- दमनकारी शासन: बिंदुसार के शासनकाल में तक्षशिला के नागरिकों ने कुशासन के खिलाफ शिकायत की।
- यहाँ पर अशोक की नियुक्ति से उनकी इस शिकायत का निवारण किया गया था।
- आसपास के क्षेत्रों में नई जानकारी का प्रसार: आसपास के प्रांतों में लोहे के औजारों और हथियारों के नियमित उपयोग से मौर्य साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- उत्तर-पश्चिम सीमांत और चीन की महान दीवार की उपेक्षा: देश और विदेश में अभियान के कारण अशोक उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र में मार्ग की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दे सका। नतीजतन तीसरी शताब्दी ई.पू. में मध्य एशिया की जनजातियों का इन क्षेत्रों में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- चीनी शासक शी हुआंग टी (247-210 ईसा पूर्व) ने लगभग 220 ईसा पूर्व में सीथियनों के हमलों के खिलाफ अपने साम्राज्य की रक्षा करने के लिये चीन की महान दीवार के निर्माण में भागीदारी की थी। अशोक द्वारा इस प्रकार के उपाय नहीं किये गए थे।
निष्कर्ष:
185 ईसा पूर्व में पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य साम्राज्य को अंततः नष्ट कर दिया गया था। शुंगों ने पाटलिपुत्र और मध्य भारत में शासन किया और ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान के रुप में कई वैदिक यज्ञों का आयोजन किया। कहा जाता है कि इस वंश के शासकों ने बौद्धों को सताया था। इनके उत्तराधिकारी के रुप में कण्व शासक आए और यह भी ब्राह्मण ही थे।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- मौर्योत्तर काल के बारे में संक्षेप में बताइए।
- बताइए कि इस युग को अंधकार युग क्यों माना जाता है और इसके महत्त्व का भी उल्लेख कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
मौर्यों के पतन से लेकर गुप्तों के उत्कर्ष (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी) तक के काल को मौर्योत्तर काल के रुप में जाना जाता है। इस काल में अनेक छोटे-छोटे राज्यों में संघर्ष होने के साथ इनका उत्थान और पतन हुआ। शुंग, सातवाहन और कण्व जैसे देशी राजवंशों का पूर्वी, मध्य और दक्कन क्षेत्र में शासन था। इंडो-ग्रीक या बैक्ट्रियन, शक, पार्थियन और कुषाण जैसे विदेशी राजवंशों ने उत्तर-पश्चिमी भारत में शासन किया था।
मुख्य भाग:
इस काल को परिवर्तन और निरंतरता के रुप में चिह्नित किया जाता है। अंधकार युग की अवधारणा को औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा भारत में औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन की स्थापना को सही ठहराने के लिये विकसित किया गया था।
मौर्योत्तर काल को अंधकार युग के रुप में प्रस्तुत करने के तर्क:
- मौर्योत्तर काल, भारत के राजनीतिक विखंडन का काल था। इस दौरान भारत पर कई विदेशी समूहों द्वारा आक्रमण किया गया था, जैसे, हिंद-यवन, शक और कुषाण आदि।
- इस दौरान मौर्य शासकों की तरह संगठित, मजबूत और कुशल केंद्रीकृत प्रशासन का अभाव था।
- सामाजिक जटिलता बहुत उच्च स्तर की होने के साथ इस अवधि के दौरान अस्पृश्यता और बाल विवाह जैसी कुरीतियों की शुरुआत हुई।
- तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य में रोमन साम्राज्य द्वारा लगाए गए भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध के कारण कस्बों का पतन हुआ था और वहाँ रहने वाले कारीगरों और व्यापारियों का काफी नुकसान हुआ था।
इस तथ्य के बावजूद कि इस समय उत्तर भारतीय क्षेत्र में राजनीतिक विखंडन का दौर था। मौर्योत्तर काल, राजनीतिक-प्रशासनिक दृष्टिकोण से उल्लेखनीय विकास का काल था। जैसे:
- इस दौरान सातवाहन साम्राज्य का उदय हुआ और उसने विस्तृत क्षेत्र पर शासन किया।
- दक्षिण भारत में चोल, चेर और पांड्यों का उदय हुआ। इस अवधि के दौरान चोल साम्राज्य के शासकों ने श्रीलंका पर आक्रमण किया।
- इस समय के संगम साहित्य से इनके प्रशासनिक और राजनीतिक ढाँचे के बारे में विवरण मिलता है।
- भारतीय संस्कृति का विस्तार इसकी सीमाओं से बाहर हुआ था। जैसे कि बौद्ध धर्म का प्रसार अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक हुआ था।
- इस अवधि में बाहरी आक्रमण तो हुए लेकिन इन आक्रमणकारियों ने धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर लिया था। इन शासकों ने व्यापक क्षेत्रों पर शासन किया और पहली बार मध्य एशिया के कुछ हिस्से भारतीय शासक के नियंत्रण में आए थे।
- कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी इस काल में उल्लेखनीय प्रगति हुई।
- इस दौरान स्तूप वास्तुकला का विकास हुआ। इस अवधि के दौरान गांधार, मथुरा और अमरावती जैसी नई कला शैलियों का उदय हुआ।
- बाहरी व्यापार होने से अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली थी। प्लिनी के विवरण से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि रोमनों को भारतीय व्यापार द्वारा काफी लाभ हुआ था।
- इस दौरान अर्थव्यवस्था के मुद्रीकरण में वृद्धि देखी गई। इस काल में बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के जारी किये गए थे।
- स्थानीय रुप से निर्मित वस्तुओं के व्यापार के अलावा, भारतीय व्यापारी रोमन साम्राज्य के साथ चीन की वस्तुओं के व्यापार में मध्यस्थ के रूप में कार्य करते थे।
निष्कर्ष:
- इस अवधि में सामाजिक जीवन में कुछ नकारात्मक पहलू विद्यमान थे लेकिन यहाँ सब कुछ नकारात्मक नहीं था क्योंकि बाहरी विश्व के साथ घनिष्ठ संपर्क के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ। विलीनीकरण पर आधारित यह उदार और प्रगतिशील संस्कृति तटीय कस्बों और शहरों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।