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Sambhav-2023

  • 15 Dec 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 संस्कृति

    दिवस- 32

    प्रश्न.1 सातवाहन और मुगलकालीन सिक्कों के विशेष संदर्भ में, भारत में सिक्कों के विकास की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण हेतु सर्वोत्तम वैश्विक प्रतिमानों को अपनाने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    दृष्टिकोण:

    • प्राचीन भारत में प्रचलित मुद्रा और सिक्का प्रणाली का परिचय दीजिये।
    • भारत में सिक्कों के विकास की विवेचना कीजिये तथा सातवाहन एवं मुगलकालीन सिक्कों का विशेष उल्लेख कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • कॉइन (Coin) शब्द, लैटिन शब्द क्यूनियस (Cuneus) से लिया गया है और यह माना जाता है कि सिक्कों का पहला अभिलेखित उपयोग चीन और यूनान में लगभग 700 ईसा पूर्व में और भारत में छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था।
    • सिक्कों के अलावा प्राचीन भारत में विनिमय का एक अन्य प्रमुख माध्यम, ‘कौड़ी’ था। छोटे पैमाने के आर्थिक लेन-देन के लिये कौड़ी का उपयोग आम जनता द्वारा बड़ी संख्या में किया जाता था। ऐसा कहा जाता है कि कौड़ी का बाजार में सिक्कों की तरह निश्चित मूल्य होता था।

    मुख्य भाग:

    • सिक्कों और पदकों के अध्ययन को मुद्राशास्त्रीय कला (Numismatics art) के नाम से जाना जाता है। प्रारंभिक सिक्के ढाले हुए सिक्के थे जिससे यह आकार और डिजाइन में एक समान नहीं थे। इनमें केवल एक तरफ ही अंकन होता था।
    • भारत में सिक्कों का विकास आहत सिक्कों से शुरू हुआ और मुगल काल में इसका निर्णायक विकास हुआ। भारत में सिक्कों का विकासक्रम निम्नलिखित है:
    • आहत सिक्के: पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुसार, आहत सिक्कों में धातु के टुकड़ों पर प्रतीकों को अंकित किया जाता था। प्रत्येक इकाई को 0.11 ग्राम वजनी 'रत्ती' कहा जाता था। इन सिक्कों का पहला साक्ष्य छठी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की अवधि में मिलता है।
      • विभिन्न महाजनपदों (लगभग 6ठी शताब्दी ई.पू.) द्वारा जारी किये गए आहत सिक्के: इन सिक्कों का अनियमित आकार और वजन था जिन पर विभिन्न चिह्न अंकित होते थे।
        • मगध में सामान्यतः पाँच प्रतीक होते थे। मगध के आहत सिक्के दक्षिण एशिया में सबसे अधिक प्रचलित सिक्के थे।
      • मौर्य काल (322-185 ईसा पूर्व) के दौरान आहत सिक्के: इस दौरान सिक्कों में विभिन्न प्रतीक होते थे जिनमें सूर्य और छह भुजाओं वाला पहिया सबसे अधिक प्रचलित थे और इन्हें कार्षापण कहा जाता था।
    • हिंद-यूनानी सिक्के: इनके भारतीय सिक्कों पर दो भाषाओं - एक ओर यूनानी में और दूसरी ओर खरोष्ठी में- मुद्रालेख मिलता है। प्रारंभिक श्रृंखला में इनमें यूनानी देवताओं की छवियों का उपयोग किया गया था, लेकिन बाद के सिक्कों में भारतीय देवताओं की भी छवियाँ बनाई गईं।
      • इनमें जारी करने वाले राजा, जारी करने के वर्ष और कभी-कभी शासन करने वाले राजा के बारे में विस्तृत जानकारी भी अंकित होती थी।
      • कुषाण साम्राज्य के व्यापक मुद्रांकन ने बड़ी संख्या में जनजातियों, राजवंशों और राज्यों को प्रभावित किया, जिन्होंने अपने स्वयं के सिक्के जारी करना आरंभ किया।
    • गुप्त काल में जारी सिक्के: गुप्त काल (319 ईस्वी-550 ईस्वी), हिंदू पुनरुत्थान की अवधि का प्रतीक है। गुप्तकालीन सिक्के मुख्य रूप से सोने के बने थे, हालांकि उन्होंने चाँदी और ताँबे के सिक्के भी जारी किये थे।
      • इन सिक्कों में हम एक तरफ राजा को खड़ा और एक वेदी के सामने चढ़ावा चढ़ाते, वीणा बजाते, अश्वमेध यज्ञ करते और दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी को सिंहासन या कमलासन पर बैठे या स्वयं रानी की आकृति को देखते हैं।
      • सिक्कों के इतिहास में पहली बार सिक्कों पर लेख संस्कृत (ब्राह्मी लिपि) में लिखे गए थे।
    • सातवाहनों के सिक्के: सातवाहन राजा ज्यादातर अपने सिक्कों के लिये सामग्री के रूप में सीसे का इस्तेमाल करते थे। हालांकि सातवाहन सिक्के किसी भी सौंदर्य या कलात्मक योग्यता से रहित हैं लेकिन यह सातवाहनों के इतिहास के मूल्यवान स्रोत हैं। इनमें प्राकृत का प्रयोग किया गया था।
    • मुगल सिक्के: मुगलों का मानक सोने का सिक्का लगभग 170 से 175 ग्रेन का ‘मोहर’ था। अबुल फजल ने अपनी 'आईन-ए-अकबरी' में बताया है कि एक मोहर उस अवधि के नौ रुपए के बराबर होता था। उस समय आधी और एक चौथाई मूल्य वर्ग की मोहरों के प्रचलन का भी पता चलता है।
      • शेरशाह की मुद्रा से प्रेरित चाँदी का रूपया, सभी मुगल सिक्कों में सबसे प्रसिद्ध था।
      • मुगल ताँबे का सिक्का शेरशाह के ‘दाम’ से प्रेरित था जिसका वजन 320 से 330 ग्रेन होता था।
      • अकबर ने गोल और वर्गाकार दोनों तरह के सिक्के जारी किये थे। वर्ष 1579 में उन्होंने अपने नए धार्मिक पंथ 'दीन-ए-इलाही' का प्रचार करने के लिये इलाही सिक्के नामक सोने के सिक्के जारी किये। इस सिक्के पर लिखा था 'ईश्वर महान हैं, उनका महिमामंडन हो'।
        • एक इलाही सिक्के का मूल्य उस अवधि के 10 रुपए के बराबर होता था।
      • सबसे बड़ा सोने का सिक्का शहंशाह था। इन सिक्कों पर फारसी सौर महीनों के नाम अंकित हैं।
      • जहाँगीर ने सिक्कों पर छंद के रुप में लेख खुदवाए। उसने अपने कुछ सिक्कों पर अपनी प्रिय पत्नी नूरजहाँ का नाम अंकित कराया। उनके सबसे प्रसिद्ध सिक्कों पर राशि चक्र चिन्हों के अंकन थे।

    निष्कर्ष:

    प्राचीन सिक्के न केवल उस समय की अर्थव्यवस्था के प्रमाण हैं बल्कि शाही रीति-रिवाजों, प्रथाओं और सामाजिक विश्वासों के भी प्रमाण हैं। ये सिक्के प्राचीन राजाओं और राजवंशों, सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं आदि के बारे में जानकारी के स्रोत हैं। इन प्राचीन संपत्तियों का संरक्षण समय की आवश्यकता है।


    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • संक्षेप में यह बताते हुए परिचय दीजिये कि समय बीतने के साथ कलाकृति, मूर्तियाँ, स्मारक और पेंटिंग क्षतिग्रस्त हो गई हैं।
    • कुछ उदाहरणों के साथ उन्हें संरक्षित करने के लिये उपयोग की जाने वाली तकनीकों पर चर्चा कीजिये।
    • उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    समय के साथ कलाकृति का अक्सर गंदगी या दरारों के कारण क्षरण होने लगता है। दो तकनीकों, लेजर एब्लेशन और बैक्टीरिया का उपयोग करके कलाकृति को संरक्षित किया जा सकता है। लेजर एब्लेशन में प्रकाश ऊर्जा कणों को उत्तेजित कर गंदगी को हटाया जाता है। बैक्टीरिया का उपयोग प्रदूषणकारी सामग्री को हटाने और कलाकृति में दरारें भरने के लिये किया जाता है। लेकिन कुछ लोगों द्वारा इस प्रकार के संरक्षण को पारंपरिक प्रणाली के जितना प्रभावी नहीं माना जाता है।

    मुख्य भाग:

    कलाकृति प्रकाश, नमी, धूल और प्रकृति के अन्य तत्त्वों से लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो जाती है। ताजमहल के चारो ओर कारखानों और तेल रिफाइनरियों के कारण होने वाले प्रदूषण के कारण इसका रंग पीला हो गया है और वर्षों से इसकी चमक भी कम हो रही है।

    जिन तकनीकों का उपयोग मूर्तियों, स्मारकों और चित्रों को संरक्षित करने के लिये किया जा सकता है, वे हैं:

    • लेजर एब्लेशन: यह तकनीक गंदगी और वार्निश को हटा देगी लेकिन ऐसा नहीं कि इससे कलाकृति मूल रुप में आ जाएगी।
    • लेजर इंड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोपी (LIBS): इस तकनीक से केवल सतही तौर पर कलाकृति को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
    • बैक्टीरिया का उपयोग कलाकृति में पाए जाने वाले कई सामान्य प्रदूषकों को हटाने के लिये किया जा सकता है, इससे कलाकृति को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचता है। उदाहरण के लिये: स्यूडोमोनास एस टुटजेरी। कैल्शियम कार्बोनेट का उत्पादन करने वाले बैसिलस सेरेस, टूटी हुई कलाकृति को बहाल करने में भी मदद करते हैं।
    • वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग किया जा सकता है ताकि अम्लीय वर्षा की संभावना कम हो, जो मुख्य रूप से कलाकृति को नष्ट करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: यह मौजूदा सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण को पिछले तरीकों की तुलना में कहीं अधिक आसान और बेहतर बना देगी। इससे सूचना को डिजिटल किया जाता है। इससे वायु प्रदूषण की रियल टाइम मॉनिटरिंग होगी, जिससे संरक्षण में मदद मिलेगी।
    • नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग: तापीय ऊर्जा के बजाय अक्षय ऊर्जा जैसे- सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के उपयोग से प्रदूषण कम होने के साथ सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में मदद मिलेगी।
    • वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये कारखानों में ओज़ोन मुक्त नकारात्मक आयन जनरेशन प्रौद्योगिकी पर आधारित अवशोषक, फिल्टर और वायु शोधक का उपयोग किया जा सकता है।

    निष्कर्ष:

    विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति ने कला, मूर्तियों और चित्रों को संरक्षित करने के लिये सुरक्षित और अधिक प्रभावी दृष्टिकोणों को जन्म दिया है। आधुनिक संरक्षण पद्धतियाँ इस बात पर बल देती हैं की किसी भी प्रकार के संरक्षण के क्रम में मूल कलाकृति में कोई स्थायी रूपांतरण नहीं होना चाहिये।

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