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10 Dec 2022
सामान्य अध्ययन पेपर 1
संस्कृति
दिवस- 28
प्रश्न.1 दर्शन की रूढ़िवादी विचारधारा क्या है? वेदांत दर्शन की चर्चा कीजिये। (250 शब्द )
प्रश्न.2 दर्शन की नास्तिक (heterodox) विचारधारा क्या है? चार्वाक या लोकायत दर्शन की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- दर्शन की रूढ़िवादी विचारधारा के बारे में बताइए।
- वेदांत दर्शन की चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
प्राचीन भारतीय साहित्य में दर्शन की एक लंबी परंपरा रही है। कई दार्शनिक जीवन और मृत्यु के रहस्यों और इन दोनों से परे जानने में प्रयत्नशील रहे हैं। अक्सर धार्मिक संप्रदायों और उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन के बीच संबंध होता है। भारतीय उपमहाद्वीप में एक बार जब राज्य और वर्ण-विभाजित सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार बन गए तो विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के बीच अंतर स्पष्ट होने लगा। इस क्रम में सभी विचारधाराओं के बीच लगभग एक बात समान थी कि मनुष्य को चार लक्ष्यों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) की पूर्ति के लिये प्रयासरत रहना चाहिये।
मुख्य भाग:
दर्शन की रूढ़िवादी विचारधारा के अनुसार, वेद सर्वोच्च ग्रंथ हैं जिनमें मोक्ष के रहस्यों को शामिल किया गया है। इसमें वेदों की प्रामाणिकता पर सवाल नहीं उठाया गया था। इसकी छह शाखाएँ (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) थी जिन्हें षड्दर्शन कहा जाता था।
वेदांत दर्शन:वेदांत दो शब्दों- 'वेद' और अंत, अर्थात वेदों का अंत से बना है। यह विचारधारा उपनिषदों में वर्णित जीवन के दर्शन को स्वीकार करती है। इस दर्शन का आधार बनने वाला सबसे पुराना ग्रन्थ बादरायण का ब्रह्मसूत्र था जिसे दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा और संकलित किया गया था।
इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही इस जीवन की वास्तविकता है और बाकी सब मिथ्या या माया है। इसके अलावा, आत्मा या स्वयं की चेतना ब्रह्म के समान है। यह तर्क आत्मा और ब्रह्म को एकाकार करता है। इसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति स्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वह स्वतः ही ब्रह्म का बोध हो जाने’ से मोक्ष प्राप्त कर लेगा।
यह तर्क ब्रह्म और आत्मा को अविनाशी और शाश्वत बना देता है। इस दर्शन के सामाजिक निहितार्थ थे, अर्थात सच्ची आध्यात्मिकता उस अपरिवर्तनीय सामाजिक और भौतिक स्थिति में भी निहित थी जिसमें एक व्यक्ति का जन्म और निवास होता है।
यह दर्शन 9वीं शताब्दी ईस्वी में उपनिषदों और गीता पर टीका लिखने वाले शंकराचार्य के दार्शनिक परिवर्द्धन के माध्यम से विकसित हुआ। उनके द्वारा लाए गए परिवर्तनों से अद्वैत वेदांत का विकास हुआ। इस विचारधारा के एक अन्य प्रमुख दार्शनिक रामानुज थे जिन्होंने 12वीं शताब्दी ईस्वी में कृतियों की रचना की। उनके परिवर्द्धन के कारण वेदांत विचारधारा में कुछ मतभेद भी उत्पन्न हुए।
शंकराचार्य का दृष्टिकोण रामानुज का दृष्टिकोण ब्रह्म निर्गुण हैं। ब्रह्म के कुछ गुण भी होते हैं। ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन है। श्रद्धा तथा समर्पण मोक्ष प्राप्त करने के साधन हैं। वेदांत सिद्धांत में कर्म के सिद्धांत को भी महत्त्व दिया गया। इसमें पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास किया गया। इसमें यह भी तर्क दिया गया कि व्यक्ति को अपने पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। इस दर्शन के कारण कुछ लोगों को यह भी तर्क देने की सुविधा हुई कि कभी-कभी लोगों को अपने पिछले जन्म में किये गए किसी बुरे कर्म के कारण वर्तमान में कष्ट उठाना पड़ता है तथा ब्रह्म प्राप्ति के अतिरिक्त इसका अन्य कोई समाधान उनके वश में नहीं है।
वेदांत की उप-विचारधाराएँ:
उप-विचारधारा मुख्य प्रवर्तक विवरण अद्वैत (एकत्ववाद) आदि शंकराचार्य (आठवीं शताब्दी ई.) यह वेदांत की सबसे पुरानी विचारधारा है जो जीवनमुक्ति पर जोर देती है। अन्य भारतीय दर्शन (मृत्यु के बाद मोक्ष पर बल) के विपरीत, इसके अनुसार मोक्ष (मुक्ति) इस जीवन में प्राप्त किया जा सकता है।
अद्वैत का लक्ष्य आत्मज्ञान प्राप्त करना और ब्रह्म की पहचान एवं पूरी समझ हासिल करना है।
आत्मा और ब्रह्म के सही ज्ञान से सभी द्वैतवादी प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं और फिर अंत में मुक्ति (मोक्ष) मिलती है।
विशिष्टाद्वैत रामानुज (11-12वीं शताब्दी ई.) यह ईश्वर के अद्वैतवाद से संबंधित है, जिसमें ब्रह्म को सर्वोच्च वास्तविकता के रूप में देखा जाता है, लेकिन इस उप-विचारधारा के अनुसार "सभी विविधता एक अंतर्निहित एकता के अधीन है"। शिव-अद्वैत श्रीकांत शिवचार्य (12वीं शताब्दी ई.) इसमें कहा गया है कि शिव और ब्रह्मा एक ही हैं। द्वैत माधवाचार्य (1238-1317 ई.) इस विचारधारा के अनुसार, आत्मा और ब्रह्म के बीच एक मूलभूत अंतर है। द्वैत- अद्वैत निम्बार्क (13वीं शताब्दी ई.) इस दर्शन के अनुसार मनुष्य ईश्वर से भिन्न और अभिन्न दोनों है। शुद्ध-अद्वैत वल्लभाचार्य ((1479-1531 ई.) इसके अनुसार ईश्वर और आत्मा भिन्न नहीं, अपितु एक हैं। इस विचारधारा के अनुयायी पुष्टिमार्ग संप्रदाय के हैं। इस मत के अनुयायियों की प्रार्थना में नाथद्वारा (राजस्थान) स्थित श्रीनाथजी मंदिर और आठ कवियों की रचनाएँ मुख्य हैं। अचिंत्य भेद अभेद चैतन्य महाप्रभु ( (1486-1534 ई.) इस वेदांत उप-विचारधारा के अनुयायी गौड़ीय वैष्णव थे। इस विचारधारा को माधवाचार्य के कठोर द्वैतवादी (द्वैत) सिद्धांत और रामानुज के विशिष्टाद्वैत के एकीकरण के रूप में समझा जाता है। इस विचारधारा के अनुसार, सर्वोच्च भगवान और व्यक्तिगत आत्मा एक ही समय में, एक और भिन्न-भिन्न हैं। इस्कॉन (ISKCON) इस दर्शन का अनुसरण करता है। वेदांत दर्शन में उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्म सूत्र को ज्ञान का प्राथमिक स्रोत माना जाता है। इन तीनों ग्रन्थों को सामूहिक रुप से प्रस्थानत्रयी कहा जाता है।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- दर्शन की नास्तिक विचारधारा के बारे में बताइए।
- चार्वाक या लोकायत दर्शन की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
दर्शन की नास्तिक विचारधारा के समर्थक वेदों की मौलिकता में विश्वास नहीं करते हैं और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं। ये पाँच प्रमुख उप-विचारधाराओं में विभाजित हैं: बौद्ध धर्म (बौद्ध दर्शन), जैन धर्म (जैन दर्शन), चार्वाक विचारधारा या लोकायत दर्शन, अज्ञान और अजीविका।
मुख्य भाग:
चार्वाक विचारधारा या लोकायत दर्शन:
बृहस्पति ने इस विचारधारा की आधारशिला रखी। इसे दार्शनिक सिद्धांत विकसित करने वाली सर्वाधिक पूर्ववर्ती विचारधाराओं में से एक माना जाता है। यह दर्शन काफी पुराना है जिसका उल्लेख वेदों और बृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है। चार्वाक विचारधारा मोक्ष प्राप्त करने के लिये भौतिकवादी दृष्टिकोण की मुख्य प्रतिपादक थी। जैसा कि यह आम लोगों की ओर प्रवृत्त थी,इसे जल्द ही लोकायत या आम लोगों से व्युत्पादित की संज्ञा प्रदान कर दी गई।
'लोकायत' शब्द का अर्थ भौतिक दुनिया (लोक) से गहरा लगाव भी है। उन्होंने मनुष्य के निवास के लिये इस दुनिया से परे किसी भी दुनिया की पूर्ण अवहेलना के लिये तर्क दिया। उन्होंने किसी भी अलौकिक या दिव्य कारक के अस्तित्व से इनकार किया जो पृथ्वी पर हमारे आचरण को नियंत्रित कर सके। उन्होंने मोक्ष प्राप्त करने की आवश्यकता के खिलाफ तर्क दिया और ब्रह्म और ईश्वर के अस्तित्व को भी नकारा। वे मानवीय इंद्रियों द्वारा छूने और अनुभव की जा सकने वाली चीज़ में ही विश्वास करते थे। उनकी कुछ प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं:
- उन्होंने देवताओं और पृथ्वी पर उनके प्रतिनिधियों - पुरोहित वर्ग के खिलाफ तर्क दिया। उन्होंने तर्क दिया कि ब्राह्मण झूठे अनुष्ठानों का सृजन करते हैं ताकि अनुयायियों से उपहार (दक्षिणा) प्राप्त किया जा सके।
- मनुष्य सभी गतिविधियों का केंद्र है और जब तक वह जीवित है, उसे स्वयं का आनंद उठाना चाहिये। उसे सभी सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करना चाहिये और इंद्रिय आनंद में लिप्त होना चाहिये।
- चार्वाक समर्थक आकाश की गणना, पाँच आवश्यक तत्त्वों में नहीं करते हैं क्योंकि यह मनुष्य की अनुभूति से परे है। इसलिये इनके अनुसार ब्रह्मांड में केवल चार तत्त्व हैं: अग्नि, पृथ्वी, जल और वायु।
- इस विचारधारा के अनुसार इस विश्व के परे कोई अन्य जगत नहीं है इसलिये मृत्यु, मनुष्य का अंत है और आनंद प्राप्त करना ही जीवन का अंतिम उद्देश्य होना चाहिये। इसलिये उन्होंने 'खाओ, पियो और मस्त रहो' के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
निष्कर्ष:
समय के साथ भौतिकवादी दर्शन को आदर्शवादी दर्शन पर अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ। आदर्शवादी दार्शनिकों ने भौतिकवादी दर्शन में अनुशंसित भोगों की आलोचना करते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की। इन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य को मोक्ष की दिशा में ईश्वर का अनुसरण करने के साथ अनुष्ठानों का पालन करना चाहिये। फिर भी इन दोनों ही विचारधाराओं का विकास हुआ और आने वाले दशकों में इनके सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिये कई और ग्रंथों की रचना की गई।