दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
परिचय:
- प्राचीन भारतीय साहित्य के बारे में संक्षेप में बताइए।
- प्राचीन भारत में विकसित धार्मिक और वैज्ञानिक साहित्य की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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प्राचीन भारतीय साहित्य वेदों और उपनिषदों जैसे पवित्र ग्रंथों तक ही सीमित नहीं था। प्राचीन भारतीय पुस्तकों में संस्कृति, विज्ञान, गणित आदि के बारे में बहुत विस्तृत वर्णन मिलता है। इन पुस्तकों में संस्कृत के अलावा प्राकृत, पाली और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी उपयोग किया गया है। इनमें देवनागरी और अपभ्रंश आदि का प्रयोग किया गया था।
मुख्य भाग:
प्राचीन भारत में धार्मिक ग्रंथ:
- वेद: 'वेद' शब्द ज्ञान का प्रतीक हैं और ये ग्रंथ वास्तव में पृथ्वी और उससे परे अपने पूरे जीवन का संचालन करने के लिये मनुष्य को ज्ञान उपलब्ध कराने के विषय में है। हमारे जीवन पर भी इनका बड़ा प्रभाव है क्योंकि ये ब्रह्मांड और इसके निवासियों को एक बड़े परिवार का हिस्सा मानते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम का उपदेश देते हैं।
- चार प्रमुख वेद हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। यह प्रमुख रुप से वैदिक ऋषियों और कवियों द्वारा लिखे गए थे जिन्हें ऋषि कहा जाता था इन्होंने लौकिक रहस्यों की कल्पना की और उन्हें संस्कृत कविता के रूप में लिखा।
- उपनिषद: इसका आशय "(शिक्षक) के समीप बैठने" से है। हमारे पास 200 से अधिक ज्ञात उपनिषद हैं और शिक्षक आमतौर पर इन्हें जंगल में अपने छात्रों को मौखिक रूप से प्रेषित करते थे। यह परंपरा गुरु-शिष्य परंपरा का हिस्सा थी। वेदों के अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत या 'वेद के अंत (अंत)' के रूप में भी जाना जाता है।
भारत का वैज्ञानिक साहित्य:
- विश्व की भौतिक संस्कृति को समृद्ध करने में भारत ने भी काफी योगदान दिया है। इत्र का आसवन हो, रंगों का निर्माण हो, चीनी का निष्कर्षण हो, कपास की बुनाई हो और यहाँ तक कि बीजगणित और एल्गोरिथ्म की तकनीक, शून्य की अवधारणा, शल्य चिकित्सा संबंधी तकनीक, परमाणु और सापेक्षता की अवधारणा, जड़ी-बूटी प्रणाली,चिकित्सा शास्त्र, कीमिया की तकनीक, धातु प्रगलन, शतरंज का खेल, कराटे की मार्शल आर्ट आदि के साक्ष्य प्राचीन भारत में देखने को मिलते हैं। यह इस तथ्य को इंगित करता है कि भारत में वैज्ञानिक विचारों और वैज्ञानिक साहित्य की समृद्ध विरासत रही है।
अब हम उन विभिन्न साहित्यों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे भारत के विभिन्न हिस्सों से वैज्ञानिक ज्ञान में योगदान का पता चलता है।
- गणित: हड़प्पा की नगर योजना और मंदिरों के निर्माण से संकेत मिलता है कि उस समय के लोगों को माप और रेखागणित का अच्छा ज्ञान था। ज्यामितीय पैटर्न का उपयोग मंदिरों में ज्यामितीय रूपांकनों के रूप में भी देखा जा सकता है।
- गणित पर आधारित सबसे पहली पुस्तक शुल्वसूत्र थी जिसे बौधायन ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी में लिखा था। शुल्वसूत्र में 'पाई' और पाइथागोरस प्रमेय के समान कुछ अवधारणाओं का भी उल्लेख मिलता है।
- आपस्तंब ने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में व्यावहारिक रेखागणित की अवधारणाओं को प्रस्तुत किया जिसमें न्यूनकोण, अधिककोण और समकोण का भी उल्लेख मिलता है। कोणों के इस ज्ञान ने उस समय अग्नि वेदियों के निर्माण में सहायता की।
- आर्यभट्ट ने लगभग 499 ईस्वी में आर्यभट्टीय की रचना की।
- 7वीं शताब्दी ईस्वी में ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ब्रह्मस्पुट सिद्धांतिका में पहली बार संख्या के रूप में शून्य का उल्लेख किया। अपनी पुस्तक में उन्होंने ऋणात्मक संख्याओं को भी प्रस्तुत किया और ऋणात्मक संख्याओं को ऋण के रूप में एवं धनात्मक संख्याओं को धन के रूप में वर्णित किया।
- औषधि:
- वैदिक काल के दौरान, अश्विनी कुमार महान चिकित्सक थे और उन्हें देव तुल्य माना जाता था। धनवंतरी औषधि के देवता थे। अथर्ववेद पहली पुस्तक थी जिसमें हमें रोगों, उसके उपचार और औषधियों के बारे में उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में दस्त, घाव, खांसी, कुष्ठ, बुखार और दौरे सहित कई बीमारियों के इलाज का उल्लेख मिलता है। हालाँकि बीमारियों के व्यावहारिक और अधिक तर्कसंगत उपचार का समय लगभग 600 ईसा पूर्व से आरंभ होता है। तक्षशिला और वाराणसी औषधीय शिक्षा के केंद्र के रूप में उभरे।
- इस समय की दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें:
- चरक द्वारा रचित चरक संहिता: यह मुख्य रूप से औषधीय प्रयोजनों के लिये पौधों और जड़ी-बूटियों के उपयोग से संबंधित है।
- सुश्रुत द्वारा रचित सुश्रुत संहिता: यह सर्जरी और प्रसूति की व्यावहारिक समस्याओं से संबंधित है। सुश्रुत ने एक मृत मानव शरीर की सहायता से शरीर रचना विज्ञान का बहुत विस्तार से अध्ययन किया। वह विशेष रुप से निम्नलिखित में निपुण थे: राइनोप्लास्टी (प्लास्टिक सर्जरी) नेत्र विज्ञान (मोतियाबिंद का निष्कासन)।
- इससे पहले आत्रेय और अग्निवेश, 800 ईसा पूर्व में ही आयुर्वेद के सिद्धांतों के बारे में बता चुके थे।
- भौतिकी और रसायन विज्ञान: वैदिक काल से ही पृथ्वी पर मौजूद सामग्रियों को पंचभूतों में वर्गीकृत किया गया है। इन पंचमहाभूतों की पहचान मानवीय इंद्रियों के बोध से की गई थी।
- छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारतीय दार्शनिक कणाद और पकुधा कात्यायन ने सबसे पहले परमाणुओं की अवधारणा के आधार पर यह स्पष्ट किया कि यह भौतिक संसार इन्हीं परमाणुओं से बना है। कणाद ने बताया कि यह भौतिक संसार ‘कणों’ से बना है जिसे मानव आँखों के माध्यम से नहीं देखा जा सकता है।
- भारतीय धातु विज्ञान का सबसे अच्छा साक्ष्य दिल्ली में महरौली का लौह स्तंभ और बिहार के सुल्तानगंज में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा है। हजारों साल पहले इनका निर्माण होने के बाद भी इनमें अभी तक जंग नहीं लगी है।
- प्राचीन काल के प्रसिद्ध धातुशोधक नागार्जुन थे। वह मूल धातुओं को सोने में बदलने में निपुण थे। 931 ईस्वी में गुजरात में जन्मे, नागार्जुन को लोगों की मान्यताओं के अनुसार मूल धातुओं को सोने में बदलने और "जीवन सुधा" के प्रदान करने की शक्ति प्राप्त थी।
- भूगोल: कालिदास ने अपनी पुस्तक मेघदूतम में पर्वतों (हिमालय), नदियों (गंगा) और विभिन्न शहरों के साथ भारत के भूगोल का वर्णन किया है।
निष्कर्ष:
प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य इस तथ्य को प्रतिबिंबित करते हैं कि भारत में वैज्ञानिक विचारों की एक समृद्ध विरासत रही है।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- जैन धर्म और बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के बारे में बताइए।
- जैन धर्म और बौद्ध धर्म की मूल शिक्षाओं और दर्शन पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
प्राचीन काल में जब समाज जन्म के आधार पर वर्णों में विभाजित था तब ब्राह्मणों का मानना था कि वे सबसे श्रेष्ठ और शासित समाज का हिस्सा थे। कई आध्यात्मिक लोगों ने इस अवधि के दौरान ब्राह्मण पुजारियों की शक्ति का विरोध किया और इनमें मगध के दो उत्कृष्ट व्यक्तित्व, गौतम बुद्ध और महावीर जैन शामिल थे। दोनों ने समानता, विश्वास और कर्म के सिद्धांतों के आधार पर अपनी-अपनी शिक्षाएँ और दर्शन दिये और जन्मजात श्रेष्ठता की धारणा का विरोध किया।
मुख्य भाग:
जैन धर्म की शिक्षाएँ और दर्शन:
जैन शब्द की उत्पत्ति जिन या जैन से हुई है जिसका अर्थ 'विजेता' होता है। इनका यह मानना है कि इनके धर्म में ऐसे लोग शामिल हैं जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित या उन पर विजय पाने में सफल रहे हैं। जैन धर्म में महावीर सहित 24 तीर्थंकर या महान विद्वान पुरुष हुए हैं।
जैन धर्म में बौद्ध धर्म की ही तरह, वेदों की सत्ता को अस्वीकार किया गया है। हालाँकि बौद्ध धर्म के विपरीत, इनका आत्मा के अस्तित्व में विश्वास है।
जैन शिक्षाएँ और दर्शन: महावीर ने जैनियों को सही रास्ता या धर्म सिखाया है और विश्व में त्याग, कठोर तपस्या और नैतिकता विकसित करने पर जोर दिया है। जैन नैतिक रूप से अपने धर्म के आधार पर इस तरह से जीने के लिये बाध्य हैं कि किसी भी प्राणी को नुकसान न हो।
उनका मानना है कि त्रिरत्न:
- सम्यक दर्शन
- सम्यक ज्ञान
- सम्यक चरित्र
के माध्यम से कोई व्यक्ति बुरे कर्मों से छुटकारा पा सकता है और स्वयं को पुनर्जन्म के चक्र से बाहर निकाल सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जैनियों को जीवन में इन पाँच अनुशासन का पालन करने की आवश्यकता है:
- अहिंसा: जीव को चोट न पहुँचाना
- सत्य: झूठ न बोलना
- अस्तेय: चोरी न करना
- अपरिग्रह: संपत्ति का संचय न करना और
- ब्रह्मचर्य- यह सिद्धांत महावीर द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
अनेकांतवाद, जैन धर्म का मूल सिद्धांत है जो इस बात पर जोर देता है कि परम सत्य और वास्तविकता जटिल है और इसके कई पहलू हैं। इसलिये यह निरंकुश है। जिसका अर्थ है कि कोई एकल विशिष्ट कथन अस्तित्व की प्रकृति और पूर्ण सत्य का वर्णन नहीं कर सकता है।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ और दर्शन: बौद्ध धर्म की उत्पत्ति सिद्धार्थ की कहानी से जुड़ी हुई है जिन्हें बुद्ध के रूप में जाना जाता है। यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।
अपने जन्म के दिन 35 वर्ष की आयु में, उन्होंने पीपल के पेड़ के नीचे आत्मज्ञान (निर्वाण) प्राप्त किया और वह बुद्ध (प्रबुद्ध व्यक्ति) बन गए। बोधगया में निर्वाण प्राप्त करने के बाद, उन्होंने वाराणसी के पास सारनाथ के मृगदाव में अपने पाँच साथियों को अपना पहला उपदेश दिया। इस घटना को धर्म-चक्र-प्रवर्तन कहा गया।
बौद्ध धर्म के अंतर्गत त्रिरत्न:
- बुद्धः प्रबुद्ध
- धम्म: बुद्ध की शिक्षाएँ (सिद्धांत)
- संघ: समूह
बौद्ध धर्म के तहत अवधारणाएँ और दर्शन: बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों को चार प्रमुख श्रेष्ठ सत्यों के माध्यम से समझाया गया है। वे इस प्रकार हैं:
- संसार में दुख हैं।
- दुख के कारण हैं।
- दुख के निवारण हैं।
- निवारण के लिये आस्टांगिक मार्ग है।
जीवन के सभी पहलुओं में दुख के बीज सम्मिलित हैं। दु:ख का कारण इच्छाएँ होती हैं। इससे हम संसार में पुनर्जन्म के अंतहीन चक्र में फंस जाते हैं जिससे फिर दुःख से गुजरते हुए व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यदि कोई इच्छाओं और आवश्यकताओं से छुटकारा पा सकता है, तो वह मोक्ष और शांति प्राप्त कर सकता है। इसे ‘अष्टांगिक मार्ग' का पालन करके प्राप्त किया जा सकता है। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- दयालुता, सत्यवादी और उचित भाषण
- ईमानदार, शांतिपूर्ण और उचित कर्म
- उचित आजीविका की खोज करना जिससे किसी भी प्राणी को नुकसान न हो
- उचित प्रयास और आत्म-संयम
- उचित मानसिक चेतना
- उचित ध्यान और जीवन के अर्थ पर ध्यान केंद्रित करना
- सच्चे और बुद्धिमान व्यक्ति का मूल्य उसके उचित विचारों से है
- व्यक्ति को अंधविश्वास से बचना चाहिए और सही समझ विकसित करनी चाहिए।
बुद्ध के अनुसार मध्यम मार्ग, अष्टांगिक मार्ग के चरित्र का वर्णन करता है जो मोक्ष की ओर ले जाता है। बौद्ध धर्म, वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार करता है। यह जैन धर्म के विपरीत आत्मा के अस्तित्व की अवधारणा को भी नकारता है।
बुद्ध द्वारा कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त कर लेने के बाद उनकी शिक्षाओं को पिटकों में संकलित करने के लिये चार बौद्ध संगीतियों का आयोजन किया गया था। इसके परिणामस्वरुप तीन प्रमुख पिटकों अर्थात विनय, सुत्त और अभिधम्म का संकलन हुआ, जिन्हें संयुक्त रुप से त्रिपिटक कहा गया। इन सभी को पालि भाषा में लिखा गया था।
निष्कर्ष:
समय के साथ ये मूल विचार समकालीन विश्व की मान्यताओं और परिवर्तनों के आधार पर कई प्रमुख शाखाओं में विभाजित हो गए । इन धर्मों की विभिन्न शाखाओं में रूढ़िवादी, उदारवादी और इसमें विश्वास रखने वाले लोग विभाजित हैं।