दिवस 25
प्रश्न- 1. किन्हीं दो प्रसिद्ध अनुष्ठान नाट्यकला की चर्चा कीजिये और भारत में पारंपरिक नाट्यकला की लोकप्रियता में गिरावट हेतु उत्तरदायी कारणों पर भी चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न- 2. कठपुतलियों के विभिन्न प्रकारों को उदाहरण सहित बताते हुए उनके महत्त्व की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
07 Dec 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | संस्कृति
दृष्टिकोण:
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परिचय:
भारत के विभिन्न हिस्सों में लोक नाट्यकला की एक समृद्ध परंपरा रही है। यह पारंपरिक लोक नाट्यकला सामाजिक मानदंडों, मान्यताओं और रीति-रिवाजों सहित स्थानीय जीवन शैली के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है। संस्कृत नाट्यकला शहरीकरण की ओर उन्मुख और परिष्कृत थी जबकि लोक नाट्यकला की जड़ें ग्रामीण थीं और इसमें देहाती नाटकीय शैली परिलक्षित होता थी।
15वीं तथा 16वीं शताब्दी ईस्वी की अवधि में उभरी ये अधिकांश लोक नाट्यकला आज भी भक्ति प्रसंगों के साथ मौजूद हैं। हालाँकि समय के साथ इसमें स्थानीय नायकों के प्रेम गाथागीत और स्थानीय कलाकारों का अनुकरण किया गया और इस प्रकार इनकी प्रकृति धर्मनिरपेक्ष होती चली गयी। स्वतंत्रता काल के बाद, लोक नाट्यकला केवल सामाजिक मनोरंजन तक सीमित न रहते हुए सामाजिक ज्ञान के प्रसार का भी एक लोकप्रिय तरीका बन गयी।
मुख्य भाग:
भारत की दो प्रसिद्ध नाट्यकला इस प्रकार हैं:
अंकियानाट:
यह असम का पारंपरिक एकांकी नाटक है। इसकी शुरुआत प्रसिद्ध वैष्णव संत शंकरदेव और उनके शिष्य महादेव ने 16 वीं शताब्दी ईस्वी में की थी। यह ओपेरा शैली में किया जाता है और इसमें कृष्ण के जीवन की घटनाओं को दर्शाया जाता है। इसमें सूत्रधार या कथाकार के साथ संगीतकारों का एक समूह होता है जिसे गायन-बयान मंडली के रूप में जाना जाता है जो 'खोल' और करताल बजाते हैं। नाट्यकला के इस रूप की अनूठी विशेषताओं में से एक विशेषता यह है कि इसमें अभिव्यक्तियों हेतु मुखौटा का प्रयोग किया जाता है।
काला:
यह वैष्णव परंपरा की एक प्राचीन लोक नाट्यकला है। यह मुख्य रूप से विष्णु के जीवन और अवतारों पर आधारित है। कला की कुछ लोकप्रिय शाखाएँ दशावतार कला, गोपाल काला और गौलन काला हैं।
नाट्यकला की लोकप्रियता में गिरावट के पीछे कारण:
दर्शकों में बदलाव: दर्शकों के विचार समय के साथ विकसित हुए हैं लेकिन नाट्यकला अभी भी अपने पुराने विषयों और शैलियों के साथ जारी हैं, जिससे लोगों के बीच नाट्यकला की लोकप्रियता में कमीं आई है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने लोक संस्कृति और नाट्यकला के विकास को बाधित किया है क्योंकि लोग नाटक देखने के लिये बाहर जाने के बजाय टेलीविजन देखना अधिक पसंद करते हैं।
कम मौद्रिक लाभ होना: नाट्यकला में संलग्न अधिकांश कलाकारों के पास आय के सीमित अवसर उपलब्ध होते हैं जिससे यह हतोत्साहित होते हैं।
निष्कर्ष:
सरकार द्वारा नाट्यकला गतिविधियों में शामिल कलाकारों को प्रोत्साहित करना चाहिये जिससे उनके लिये आजीविका के अवसर सृजित हो सकें। इसके साथ ही आम लोगों के बीच नाट्यकला के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिये।
हल करने का दृष्टिकोण:
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परिचय:
कठपुतली कला दीर्घकाल से मनोरंजन और शैक्षिक उद्देश्यों से भारत में रुचि की विषयवस्तु रही है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के उत्खनन स्थलों से सॉकेट युक्त कठपुतलियाँ मिली हैं जिससे कला के एक रूप में कठपुतली कला की उपस्थिति का पता चलता है। कठपुतली रंगमंच के कुछ संदर्भ 500 ईसा पूर्व के आसपास की अवधि में पाए गए हैं। हालाँकि कठपुतली का लिखित संदर्भ प्रथम या द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास रचित तमिल ग्रंथ शिलप्पादिकारम तथा महाभारत में मिलता है।
मुख्य भाग:
भारत में कठपुतली कला को व्यापक रूप से चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ प्रमुख उदाहरणों के साथ प्रत्येक की एक संक्षिप्त रूपरेखा निम्नानुसार है:
धागा कठपुतलियों या मैरियोनेट का भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं में प्रमुख स्थान है। धागा कठपुतलियों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
छाया कठपुतलियाँ: भारत में छाया कठपुतली कला की एक समृद्ध परंपरा रही है, जो अब तक चल रही है। छाया कठपुतली की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार है:
इसमें आकृतियों को इस प्रकार चलाया जाता है की खाली स्क्रीन पर बनने वाला छायाचित्र कहानी कहने वाली छवि बनाता है। उदाहरण; तोूगालु गोम्बेयाट्टा, रावणछाया, थोलू बोम्मालाटा आदि।
दस्ताना कठपुतलियाँ: इन्हें आस्तीन, हाथ या हथेली की कठपुतलियों के रूप में भी जाना जाता है। ये पोशाक के रूप में एक लंबी, उड़ने वाली स्कर्ट पहने सिर और हाथों वाली छोटी आकृतियाँ होती हैं। यह कठपुतलियाँ आमतौर पर कपड़े या लकड़ी से बनी होती हैं, लेकिन कागज की कठपुतली के कुछ रूपांतर दिखाई देते हैं। कठपुतली नचाने वाला दस्ताने के रूप में कठपुतली पहनता है और अपनी तर्जनी से सिर को नचाता है। उदाहरण; पावाकूथु।
छड़ कठपुतलियाँ, दस्ताना कठपुतलियों की अपेक्षाकृत बड़ी रूपांतर है। इसमें स्क्रीन के पीछे से कठपुतली कलाकार छड़ी से इन्हें नियंत्रित करता हैं। यह मुख्य रूप से पूर्वी भारत में लोकप्रिय हैं। इसके कुछ लोकप्रिय उदाहरण में यमपुरी, पुतुल नाच आदि शामिल हैं।
कठपुतली कला का महत्त्व:
निष्कर्ष:
कठपुतली कला के लाभों को ध्यान में रखते हुए, कठपुतली कला में शामिल कलाकारों को प्रोत्साहन देकर इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिये क्योंकि यह हमारी स्थानीय संस्कृति को जीवंत रखने में सहायक है।