प्रश्न- 1. दबाव समूहों से आप क्या समझते हैं? दबाव समूह पिछड़े लोगों के हितों को कैसे प्रतिबिंबित कर रहे हैं? (250 शब्द)
प्रश्न- 2. क्षेत्रीय दलों के उदय होने से स्थानीय मुद्दे राजनीतिक विचार-विमर्श की मुख्यधारा में शामिल हुए हैं। क्या आपको लगता है कि एक साथ चुनाव (simultaneous election), स्थानीय मुद्दों की कीमत पर राष्ट्रीय स्तर के विचार-विमर्श का मार्ग प्रशस्त करेंगे ? चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
01 Dec 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण:
- दबाव समूहों के बारे में बताइए।
- पिछड़े लोगों के हितों को प्रतिबिंबित करने में दबाव समूहों द्वारा उपयोग की जाने वाली विधियों और दबाव समूहों की भूमिका का उल्लेख कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
दबाव समूह उन लोगों का समूह होता है जो अपने सामान्य हितों को बढ़ावा देने और संरक्षित करने के लिये सक्रिय रूप से संगठित होते हैं। यह सरकार पर दबाव डालकर सार्वजनिक नीतियों में बदलाव लाने का प्रयास करतें है और सरकार और अपने हितैषियों के बीच संपर्क के रूप में कार्य करतें है।
मुख्य बिन्दु:
- इन दबाव समूहों को हितैषी समूह या हितार्थ समूह भी कहा जाता है। ये राजनीतिक दलों से भिन्न होते हैं ये न तो चुनाव में भाग लेते हैं और न ही राजनीतिक शक्तियों को हथियाने की कोशिश करते हैं।
- ये कुछ खास कार्यक्रमों और मुद्दों से संबंधित होते हैं और यह सरकार में प्रभाव बनाकर अपने सदस्यों की रक्षा करने के साथ इनके हितों को बढ़ावा देते हैं।
- सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के लिये दबाव समूह सभाएँ करना, पत्राचार, जनप्रचार, प्रचार, व्यवस्था करना, अनुरोध करना, सार्वजनिक बहस, विधायकों के साथ संपर्क बनाए रखने जैसी विभिन्न तकनीकों और तरीकों को अपनाते हैं।
- हालाँकि ये कभी-कभी अवैध तरीकों जैसे हड़ताल, हिंसक गतिविधियों और भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं जो सार्वजनिक हित और प्रशासनिक अखंडता को नुकसान पहुँचाते हैं।
- ओडीगाड के अनुसार, दबाव समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये तीन अलग-अलग तरीकों का सहारा लेते हैं जैसे:
- चुनाव प्रचार: ये सरकारी कार्यालयों में उन कर्मचारियों की नियुक्ति की कोशिश करतें हैं जो कि इनके हितों का पक्ष लें।
- लॉबिंग: ये अपने लिये हितकारी नीतियों को स्वीकार करने के लिये लोकसेवकों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।
- प्रचार व्यवस्था: ये जनता की राय को प्रभावित करने का प्रयास करतें हैं और सरकार पर अप्रत्यक्ष प्रभाव का लाभ उठातें हैं।
दलित लोगों के हितों को प्रतिबिंबित करने में दबाव समूहों की भूमिका: दबाव समूह आमतौर पर अपने हितैषियों की आवाज उठातें हैं (ज्यादातर शक्तिहीन और दलितों की) और उनके हितों को संबोधित करतें हैं। दबाव समूह कई कार्य करते हैं जैसे :
प्रतिनिधित्व में: दबाव समूह उन समूहों और हितों के लिये प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं जिन्हें चुनावी प्रक्रिया या राजनीतिक दलों द्वारा पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। यह कार्यात्मक प्रतिनिधित्व के माध्यम से औपचारिक प्रतिनिधि प्रक्रिया का विकल्प प्रदान करते हैं।
राजनीतिक भागीदारी में: दबाव समूह राजनीतिक भागीदारी के महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि बन चुकें हैंं। इसके अलावा दबाव समूह, याचिकाओं, जुलूसों, प्रदर्शनों और राजनीतिक विरोध के अन्य रूपों जैसी गतिविधियों के माध्यम से लोकप्रिय समर्थन जुटाकर सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने की कोशिश करते हैं। राजनीतिक भागीदारी के ऐसे रूप युवाओं के लिये विशेष रूप से आकर्षक रहे हैं।
जागरूकता में: कई दबाव समूह बड़े पैमाने पर जनता के साथ संवाद करने और राजनीतिक चेतना बढ़ाने का कार्य करते हैं।
नीति निर्माण में: दबाव समूह सरकारों के लिये सूचना और सलाह का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इसलिये नीति निर्माण की प्रक्रिया में कई समूहों से नियमित रूप से परामर्श लिया जाता है। इस तरह के समूह का एक उदाहरण ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) है जो मुख्य रूप से विदेशी मामलों से संबंधित नीतिगत मुद्दों पर काम करता है।
नीति कार्यान्वयन: कुछ दबाव समूहों की भूमिका सार्वजनिक नीतियों को आकार देने की कोशिश से परे नीति को व्यवहार में लाने में भूमिका निभाने तक होती है।
आगे का राह
- दबाव समूहों को अब लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य और सहायक तत्त्व माना जाता है। वर्तमान के जटिल समाज में सभी व्यक्ति अपने हितों की रक्षा स्वतः नहीं कर सकते हैं। उन्हें अपने हितों से संबंधित मुद्दों के लिये आवाज उठाने के लिये अन्य के समर्थन की आवश्यकता होती है जिससे दबाव समूहों के गठन का मार्ग प्रशस्त होता है।
- अतः सरकार को नीति निर्माण और कार्यान्वयन के समय इन संगठित समूहों से परामर्श करना बहुत आवश्यक है।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण:
- क्षेत्रीय दलों के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- चर्चा कीजिये कि किस प्रकार क्षेत्रीय दल, स्थानीय मुद्दों को राजनीतिक विचार-विमर्श की मुख्यधारा में शामिल करते हैं।
- एक साथ चुनाव के पक्ष और विपक्ष के बारे में बताइए।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
- बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। ये स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मुख्य भाग:
स्थानीय मुद्दों को राजनीतिक विचार-विमर्श की मुख्यधारा में लाने वाले क्षेत्रीय दलों की विशेषताएँ:
- यह आमतौर पर एक विशेष राज्य या विशिष्ट क्षेत्र में कार्यरत होते हैं जैसे झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड में कार्यरत है।
- विशेष सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई या जातीय समूह के रुप में यह क्षेत्रीय हितों को व्यक्त करते हैं जैसे DMK, तमिलों के हितों पर अधिक बल देता है।
- यह मुख्य रूप से स्थानीय असंतोष एवं भाषा, जाति, समुदाय या क्षेत्र के आधार पर विभिन्न प्रकार की मांगों को संरक्षित करने से संबंधित होते हैं जैसे शिवसेना मराठी लोगों (भूमि पुत्र) के हितों पर बल दे रही है।
- यह स्थानीय या क्षेत्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ राज्य स्तर पर सत्ता पर अधिकार जमाने का प्रयास करते हैं ।
- विकास में आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय असंतुलन के संबंध में यह अपनी मांग रखते हैं । उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश की YSR कांग्रेस पार्टी, आंध्र प्रदेश के लिये विशेष दर्जे की मांग कर रही है।
- ऐतिहासिक कारकों से यह अलग पहचान बनाए रखने के लिये कुछ वर्गों या क्षेत्रों की इच्छा से प्रेरित होते हैं। जैसे नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट (NPF)।
वर्तमान चुनाव प्रणाली में राज्य विधानमंडल और संसद के चुनाव आमतौर पर अलग-अलग समय पर होते हैं। जिससे जन-धन की अधिक आवश्यकता होती है।
भारतीय चुनाव प्रणाली को इस तरह से व्यवस्थित करने से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ और निश्चित समय के भीतर हो सकेंगे।
एक साथ चुनाव प्रणाली के कई फायदे हैं और इनसे क्षेत्रीय लोगों के हितों को ध्यान में रखा जा सकता है जैसे:
- नागरिक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों के बीच अंतर कर सकते हैं और अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न दलों के लिये एक साथ मतदान कर सकते हैं।
- भारत में इसे उदाहरण के रुप में देखा जा सकता है जैसे वर्ष 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में लोगों ने कांग्रेस (NCP) को अधिक पसंद किया था लेकिन वर्ष 2019 के आम चुनाव में यहाँ से बीजेपी के सबसे अधिक सांसद थे दिल्ली के संदर्भ में भी यह प्रवृत्ति देखी गई।
- ब्रिटेन और अमेरिका की चुनाव प्रणाली भी एक साथ चुनाव का व्यावहारिक उदाहरण है।
- वर्ष 1952 में प्रथम आम चुनाव में सभी चुनाव एक साथ संपन्न हुए।
- उप-चुनाव या मध्यावधि चुनाव से इतर, राज्य में एकल चुनाव की निरंतरता के रुप में स्थानीय निकायों की चुनाव प्रणाली एक आदर्श उदाहरण है।
- इससे सरकारी नीतियों का समय पर क्रियान्वयन सुनिश्चित होने के साथ इससे प्रशासनिक तंत्र का चुनाव गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में कार्य सुनिश्चित होता है।
- पाँच साल में एक बार चुनाव होने से इसकी तैयारी के लिये सभी हितधारकों यानी राजनीतिक दलों, भारत निर्वाचन आयोग (ECI), अर्धसैनिक बलों और नागरिकों को अधिक समय मिलेगा।
- राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च पर नियंत्रण होने से जनता के पैसे की बचत होने के साथ प्रशासनिक ढाँचे और सुरक्षा बलों पर भार में कमीं आएगी।
एक साथ चुनाव से विभिन्न लाभों के बावजूद कुछ नुकसान भी हैं जैसे:
- लोकतंत्र के खिलाफ: इससे चुनाव अवधि सीमित हो जाने से राजनेताओं को चुनने में मतदाताओं की पसंद भी सीमित हो जाती है।
- मतदाता व्यवहार पर प्रभाव: सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) का तर्क है कि इससे राज्य के चुनावों में भी राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर मतदान की प्रवृत्ति समाप्त हो जाएगी और इससे बड़े राष्ट्रीय दलों की जीत की संभावना बढ़ जाएगी और क्षेत्रीय दल हाशिये पर चले जाएँगे।
- चुनावी मुद्दे: राज्य और राष्ट्रीय चुनाव अक्सर अलग-अलग मुद्दों पर होते हैं और एक साथ चुनाव कराने में मतदाता कुछ मुद्दों को नजरंदाज कर कुछ अन्य मुद्दों पर अधिक बल दे सकते हैं।
- लोगों के जनादेश की उपेक्षा करना: देश के बाकी हिस्सों के लिये एकसमान चुनाव तिथियों को निर्धारित करने के लिये मौजूदा विधानसभाओं की अवधि को मनमाने ढंग से कम करना या बढ़ाना लोकतंत्र और संघवाद की भावना को कमजोर कर सकता है।
आगे की राह:
हर कुछ महीनों में अलग-अलग जगहों पर होने वाले चुनाव से विकास कार्यों के बाधित होने के साथ बेहतर नीति-निर्माण नहीं हो पाता है। इसलिये आदर्श आचार संहिता लागू होने से समय-समय पर विकास कार्यों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को रोकने के लिये इस पर गहन अध्ययन और विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है।
देश को एक राष्ट्र, एक चुनाव की जरूरत है या नहीं, इस पर आम सहमति होना आवश्यक है। सभी राजनीतिक दलों को कम से कम इस मुद्दे पर विचार-विमर्श शुरू करना चाहिये और विचार-विमर्श शुरू होने के बाद इसमें आम लोगों की राय भी ली जा सकती है।