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25 Nov 2022
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
दिवस 15
प्रश्न- 1. केंद्र शासित प्रदेशों के गठन के पीछे क्या कारण हैं? केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के संबंध में किये गए कुछ विशिष्ट प्रावधानों और विनियमों का उल्लेख कीजिये। क्या आपको लगता है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिये? विवेचना कीजिये।
प्रश्न- 2. 5वीं और 6वीं अनुसूची पर लागू होने वाले विभिन्न प्रावधान और विनियम क्या हैं? इस अनुसूची में निहित धारणा और भावना को धरातल पर कहाँ तक साकार किया गया है? विवेचना कीजिये।
उत्तर
उत्तर 1:
हल करने का दृष्टिकोण:
- केंद्र शासित प्रदेशों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपना उत्तर शुरू कीजिये।
- केंद्र शासित प्रदेशों के निर्माण के कारणों पर चर्चा कीजिये।
- केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली से संबंधित विशेष प्रावधानों पर चर्चा कीजिये।
- दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के पक्ष और विपक्ष में दिये गए तर्कों की विवेचना कीजिये।
- उचित निष्कर्ष प्रदान कीजिये।
भूमिका:
संविधान के अनुच्छेद 1 के तहत, भारत के संघ क्षेत्र में तीन श्रेणियाँ शामिल हैं: (a) राज्यों के क्षेत्र; (b) केंद्र शासित प्रदेश; और (c) वे क्षेत्र, जो किसी भी समय भारत सरकार द्वारा नियंत्रण में लिये जा सकते हैं। वर्तमान में, 28 राज्य, 8 केंद्र शासित प्रदेश और कोई अधिग्रहित क्षेत्र नहीं हैं।
राज्य भारत के संघीय प्रणाली के वे क्षेत्र हैं जो केंद्र के साथ शक्ति का वितरण साझा करते हैं। दूसरी ओर, केंद्र शासित प्रदेश वे क्षेत्र हैं जो प्रत्यक्ष रूप से केंद्र द्वारा प्रशासित होते हैं और इसलिये, केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में जाने जाते हैं।
संघटन:
केंद्र शासित प्रदेशों के निर्माण के कई कारण होते हैं। इनका उल्लेख नीचे किया गया है:
- राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण: कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं, जो सुरक्षा और प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन क्षेत्रों को राज्य की स्थानीय राजनीति से बचाने के लिये केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है, उदाहरण के लिये दिल्ली और चंडीगढ़।
- सांस्कृतिक विशिष्टता: भारत के कुछ क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह भिन्न हैं और इस क्षेत्र के लोगों की अपनी विशिष्ट संस्कृति है, जो मुख्यधारा की संस्कृति के समान नहीं है। उदाहरण के लिये; पुदुचेरी, दादर और नगर हवेली, तथा दमन और दीव।
- सामरिक महत्त्व: कुछ क्षेत्र हमारी विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होते हैं जैसे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप।
- पिछड़े और जनजातीय क्षेत्र के लोगों के लिये विशेष प्रावधान: हालाँकि, जनजाति वर्ग भारत के पूरे क्षेत्र में रहते हैं, लेकिन कुछ जनजाति जनसंख्या ऐसी भी है जो मुख्यधारा के समाज से बिलकुल पृथक निवास करती हैं, जैसे मिज़ोरम, मणिपुर, त्रिपुरा आदि, जो बाद में राज्य बन गए।
दिल्ली केंद्रशासित प्रदेश से संबंधित विशेष प्रावधान
- 1991 के 69वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम ने केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्रदान किया और इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के रूप में पुनः नामित किया तथा दिल्ली के उपराज्यपाल को प्रशासक के रूप में नामित किया। इस अधिनियम के अंतर्गत दिल्ली के लिये एक विधानसभा और मंत्रिपरिषद का निर्माण किया गया।
- विधानसभा में सदस्यों की क्षमता 70 है, जो प्रत्यक्ष आम चुनाव के माध्यम से निर्वाचित होते हैं। चुनाव भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा आयोजित किये जाते हैं। विधानसभा राज्य सूची के तीन मामलों, लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि को छोड़कर राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के सभी मामलों पर विधि बना सकती है। लेकिन, संसद द्वारा बनाई विधि विधानसभा द्वारा बनाई गई विधि से अधिक प्रभावी होती है।
- मंत्रिमंडल की संख्या, विधानसभा की कुल संख्या का 10 प्रतिशत है, यानी मंत्रिमंडल में सदस्यों की संख्या सात है-एक मुख्यमंत्री और छह अन्य मंत्री। मुख्यमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है (उपराज्यपाल द्वारा नहीं)। अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्यमंत्री के परामर्श पर की जाती है।
- मंत्री, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। मंत्रिमंडल, सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। मंत्रिमंडल, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में, उपराज्यपाल द्वारा स्व-विवेक से लिये गए निर्णयों को छोड़कर अन्य सभी कार्यों में सहायता और परामर्श प्रदान करती है। लेकिन, उपराज्यपाल और मंत्रिमंडल के बीच किसी मुद्दे पर टकराव की स्थिति में उपराज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकता है और तदनुसार कार्यवाही कर सकता है।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने के विरोध में तर्क
- दिल्ली में, आवास, पानी, बिजली, परिवहन आदि जैसे मुद्दों की बहुलता है, जिन्हें एक राज्य द्वारा अकेले नहीं सुलझाया जा सकता है।
- दिल्ली में उच्त्तम न्यायालय, उच्च न्यायालय, भारत की संसद, राष्ट्रपति भवन आदि प्रमुख संवैधानिक संस्थान स्थित हैं। केंद्र सरकार इन संस्थानों के संरक्षण और सुरक्षा का बेहतर ध्यान रख सकती है।
- दिल्ली में, भारत के सभी राज्य के लोग रहते हैं, अगर इसे एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाता है, तो सत्ता में आने वाली पार्टी "भूमिपुत्रों की नीति" को बढ़ावा देगी, जिससे अव्यवस्था उत्पन्न होगी।
- यह दूरगामी प्रभाव उत्पन्न करेगा क्योंकि यह अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों को एक अलग राज्य की मांग उठाने के लिये प्रेरित करेगा।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के पक्ष में तर्क
- 2.7 करोड़ की बढ़ती जनसंख्या की दृष्टि से दिल्ली अब सिर्फ केंद्रशासित प्रदेश नहीं है। इसलिये इसे राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिये।
- दिल्ली के पूर्ण राज्य बनने की स्थिति में, निर्वाचित प्रशासन पूरी तरह से उत्तरदायी होगा। चूँकि, दिल्ली के पूर्ण राज्य बनने की स्थिति में उपराज्यपाल का पद राज्यपाल को हस्तांतरित हो जाएगा। राज्य और समवर्ती सूची के सभी विषय, जिसमें पुलिस, विधि और व्यवस्था, अचल परिसंपत्ति तथा नगरपालिका सेवाएँ, सरकारी उत्तरदायित्व के अधीन होंगी।
- यह केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार दोनों के अधिकार क्षेत्र में अस्पष्टता को स्पष्ट करेगा। जैसे, नियंत्रण, शक्तियों और अधिकार के क्षेत्र में अस्पष्टता का समाधान हो जाएगा एवं स्थिति अन्य राज्यों की तरह पूर्णतः स्पष्ट हो जाएगी। इससे दिल्ली में स्थिति के संबंध में केंद्र सरकार या राज्य सरकार के उत्तरदायित्व का उचित निर्वहन होगा।
- वर्तमान में, दिल्ली एक नौकरशाही प्रणाली के तहत कार्य करती है। यह दिल्ली के लोगों के लोकतांत्रिक जनादेश की उपेक्षा करता है क्योंकि विभिन्न पदाधिकारी न तो शहर के प्रति उत्तरदायी हैं और न ही जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं। पूर्ण राज्य बनने की स्थिति में दिल्ली की स्थिति पर नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य उत्तरदायी होंगे।
निष्कर्ष
हालाँकि, केंद्र और दिल्ली प्रशासन के बीच विभिन्न मुद्दे मौजूद हैं, लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करना इसका समाधान नहीं हो सकता। इसके बजाय निर्वाचित प्रतिनिधि को अधिक अधिकार प्रदान करना चाहिये तथा दिल्ली के निवासियों और भारत के नागरिकों के हितों को भी बनाए रखना चाहिये। संघर्षों की संभावना को कम करने के लिये केंद्र और राज्यों के बीच अधिकार क्षेत्र का उचित सीमांकन भी होना चाहिये।
उत्तर 2:
हल करने के दृष्टिकोण:
- 5वीं और 6वीं अनुसूची के बारे में संक्षिप्त जानकारी देकर अपना उत्तर शुरू कीजिये।
- 5वीं और 6वीं अनुसूची से संबंधित विभिन्न प्रावधानों पर चर्चा कीजिये।
- उनकी उपलब्धियों पर चर्चा कीजिये।
- इन अनुसूचियों से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष प्रदान कीजिये।
पृष्ठभूमि
संविधान के भाग X में अनुच्छेद 244 'अनुसूचित क्षेत्रों' और 'जनजातीय क्षेत्रों' के रूप में नामित कुछ क्षेत्रों के लिये प्रशासन की एक विशेष प्रणाली की परिकल्पना करता है। संविधान की 5वीं अनुसूची चार राज्यों असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम को छोड़कर अन्य राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन तथा नियंत्रण से संबंधित है। दूसरी ओर, संविधान की छठी अनुसूची चार पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है।
मुख्य भाग
पाँचवीं अनुसूची में निहित प्रशासन की विभिन्न विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- राष्ट्रपति के पास किसी भी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने का अधिकार होता है। वह संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से अनुसूचित क्षेत्र की सीमा को घटा-बढ़ा भी सकता है और उस क्षेत्र से अनुसूचित क्षेत्र का दर्जा भी वापस ले सकता है।
- किसी राज्य की कार्यकारी शक्ति उसमें अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तृत होती है। लेकिन ऐसे क्षेत्रों के संबंध में राज्यपाल की एक विशेष ज़िम्मेदारी होती है। उसे ऐसे क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में वार्षिक रूप से या जब भी राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक हो, राष्ट्रपति के समक्ष एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होती है। केंद्र की कार्यकारी शक्ति का विस्तार ऐसे क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राज्यों को निर्देशित करने तक है।
- अनुसूचित क्षेत्रों वाले प्रत्येक राज्य को अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति पर परामर्श देने के लिये एक जनजाति आदिवासी सलाहकार परिषद की स्थापना करनी होती है।
- राज्यपाल या राष्ट्रपति को यह निर्देश देने का अधिकार है कि संसद या राज्य विधानमंडल का कोई विशेष अधिनियम अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होता है या निर्दिष्ट संशोधनों तथा अपवादों के साथ लागू होता है। वह जनजाति सलाहकार परिषद से परामर्श के बाद अनुसूचित क्षेत्र में शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये नियम भी बना सकता है।
छठी अनुसूची में निहित प्रशासन की विभिन्न विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
- चार राज्यों असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजाति क्षेत्रों को स्वायत्त ज़िलों के रूप में गठित किया गया है। लेकिन यदि स्वायत्त ज़िले में अलग-अलग जनजातियाँ निवास करती है, तो वे इसके अंतर्गत शामिल नहीं होते हैं और राज्यपाल के पास ज़िले को कई स्वायत्त क्षेत्रों में विभाजित करने का अधिकार होता है।
- प्रत्येक स्वायत्त ज़िले में एक ज़िला परिषद होता है जिसमें 30 सदस्य होते हैं, जिनमें से चार राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं और शेष 26 वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने जाते हैं। प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय परिषद भी होता है।
- ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें अपने अधिकार क्षेत्र के तहत क्षेत्रों का प्रशासन करती हैं। वे कुछ निर्दिष्ट मामलों जैसे भूमि, वन आदि पर विधि बना सकते हैं।
- अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर ज़िला और क्षेत्रीय परिषदें जनजातियों के बीच मुकदमों और मामलों की सुनवाई के लिये ग्राम परिषदों या पंचायतों का गठन कर सकती हैं। वे उनकी अपील सुनते हैं। इन मुकदमों और मामलों पर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है।
- संसद या राज्य विधानमंडल के अधिनियम स्वायत्त ज़िलों और स्वायत्त क्षेत्रों पर लागू नहीं होते हैं या निर्दिष्ट संशोधनों और अपवादों के साथ लागू होते हैं।
5 वीं और 6वीं अनुसूची की उपलब्धियाँ
- स्वदेशी संस्कृति का संरक्षण: इन अनुसूचियों के प्रावधान आदिवासियों को अपने स्थानीय रीति-रिवाजों और परंपराओं के संरक्षण का अधिकार प्रदान करते हैं।
- सच्ची भावना से लोकतंत्र सुनिश्चित करना: यह आदिवासियों को बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के अपने रीति-रिवाजों के अनुसार अपने स्वयं के मामलों को नियंत्रित करने का अधिकार देता है।
- मुख्यधारा से आदिवासियों के अलगाव को रोकता है: स्थानीय संस्कृति के संरक्षण का अधिकार देकर और उन्हें उचित मात्रा में स्वायत्तता देकर उन्हें पूरी तरह से संतुष्ट रखने में मदद मिलती है।
- निधियों का विवेकपूर्ण उपयोगः स्थानीय निकाय आवंटित निधियों का उपयोग स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार करते हैं जिससे उनका पूर्ण उपयोग होता है।
5वीं और 6वीं अनुसूची से संबंधित मुद्दे
- संवैधानिक सिद्धांतों को कमजोर करना: ये अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों में गैर-आदिवासी निवासियों के खिलाफ विभिन्न तरीकों से भेदभाव करते हैं और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जैसे विधि के समक्ष समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 15), और भारत में कहीं भी निवास और व्यवसाय की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19)।
- शक्तियों का विभाजन: इसने क्षेत्र में स्वायत्तता की एक वास्तविक प्रक्रिया लाने के बजाय कई शक्ति केंद्रों का निर्माण किया है। स्थानीय शासी निकायों और राज्य विधानसभाओं के बीच अक्सर हितों के टकराव के मामले होते हैं।
- एक्ट-ईस्ट नीति के साथ संघर्ष: एक्ट ईस्ट नीति की सफलता में ये अधिनियम एक अवरोध के रूप में कार्य करते हैं, जिसके लिये पूर्वोत्तर राज्यों के भीतर निर्बाध संपर्क और विनिमय आवश्यक है। इसी तरह, इनर लाइन परमिट (ILP) निवेशकों और पर्यटकों को रोकता है और इस तरह इस क्षेत्र में आर्थिक विकास को बाधित करता है।
- स्व-शासन के अधिकार से वंचित: जनजातीय समुदायों को उत्तरोत्तर स्व-सरकार और उनके समुदायों के प्राकृतिक संसाधनों के अधिकारों से वंचित किया गया है जो विधि के तहत प्रदान किये जाने चाहिये थे।
- स्वायत्तता का अभाव: 5वीं और 6वीं अनुसूची के क्षेत्रों में अधिक स्वायत्तता प्रदान करने के हालिया संसदीय कदमों के वांछित परिणाम नहीं मिले हैं।
- अनियमित चुनाव: इन क्षेत्रों के स्थानीय निकायों के चुनाव नियमित रूप से नहीं होते हैं और जानबूझकर निलंबन के तहत आयोजित किये जाते हैं।
- अभिजात्य वर्ग का उदय: इन क्षेत्रों में आवंटित विभिन्न प्रकार के संसाधनों और पूंजी ने केवल मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों को लाभान्वित किया है जिससे अभिजात्य वर्ग का उदय हुआ है।
आगे की राह
संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची जनजातियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने और सच्चे अर्थों में उनके विकास को सुनिश्चित करने के लिये बहुत सारे अवसर प्रदान करती है। यदि इन अनुसूचियों के प्रावधानों को ठीक से लागू किया जाता है तो इससे जनजातीय पंचशील नीति के लक्ष्यों की प्राप्ति होगी।