23 Nov 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
उत्तर 1:
दृष्टिकोण :
- लोक अदालत और ग्राम न्यायालयों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- लोक अदालत और ग्राम न्यायालयों से संबंधित संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिये।
- लोक अदालतों के गुण और दोषों पर चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
गरीबों और वंचितों की न्याय तक पहुँच एक विश्वव्यापी समस्या बनी हुयी है साथ ही भारत सरकार के लिये समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से कमजोर लोगों की न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करा पाना एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि जहाँ एक ओर काफी अधिक मामले लंबित रहने के साथ इस क्षेत्र में कर्मियों की कमी भी बनी रहती है। इन चुनौतियों से निपटने के लिये भारत सरकार ने लोक अदालत और ग्राम न्यायालयों को अपनाने की दिशा में कार्य किया।
मुख्य बिन्दु
लोक अदालत और ग्राम न्यायालयों से संबंधित संवैधानिक और वैधानिक प्रावधान
- संविधान का अनुच्छेद 39-A राज्य को यह निर्देश देता है कि कानूनी प्रणाली का उद्देश्य समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देना होना चाहिये |
- 'लोक अदालत' शब्द का अर्थ है 'जनता का दरबार' और यह गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। यह वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) का एक अंग है जो आम लोगों को अनौपचारिक, सस्ता और त्वरित न्याय प्रदान कराने में सहायक है। समय के साथ इसकी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए, इसे विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत वैधानिक दर्जा दिया गया था। इस अधिनियम में लोक अदालतों के गठन और संचालन से संबंधित प्रावधान हैं। इनके पास वही शक्तियाँ होती हैं जो सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत दीवानी न्यायालय में निहित होती हैं।
- ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के अनुसार यह प्रथम श्रेणी के दंडाधिकार का न्यायालय होगा और इसके पीठासीन अधिकारी (न्यायाधिकारी) की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाएगी। न्यायाधिकारी की योग्यता, वेतन, सेवा नियम और शर्तें प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी के समान होंगी।
लोक अदालत की उपलब्धियाँ:
- कम शुल्क: इसके तहत कोई न्यायालय शुल्क नहीं जाता है और यदि न्यायालय शुल्क का भुगतान पहले ही कर दिया गया है तो लोक अदालत में विवाद का निपटारा होने पर राशि वापस कर दी जाती है।
- प्रक्रियात्मक लचीलापन: इसमें विवाद निपटान हेतु प्रक्रियात्मक लचीलेपन के साथ त्वरित सुनवाई होती है। लोक अदालत द्वारा दावे का मूल्यांकन करते समय प्रक्रियात्मक कानूनों को अत्यधिक सख्ती से लागू नहीं किया जाता है।
- परस्पर संवादात्मक : विवाद के पक्षकार सीधे अपने वकील के माध्यम से न्यायाधीश के साथ बातचीत कर सकते हैं जो नियमित न्यायालयों में संभव नहीं होता है।
- बाध्यकारी निर्णय : लोक अदालत द्वारा दिया जाने वाला निर्णय सभी पक्षों के लिये बाध्यकारी होता है और इसे दीवानी न्यायालय की डिक्री का दर्जा प्राप्त होता है। इसके निर्णय के संबंध में अपील नहीं की जा सकती है जिससे अंततः विवादों के निपटारे में देरी नहीं होती है।
यद्यपि लोक अदालतों ने समाज के कमजोर वर्गों तक न्याय की पहुँच को सुनिश्चित किया है लेकिन लोक अदालतों को भी निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
- कम मुआवजा: जब लोक अदालत द्वारा किसी मामले को संज्ञान में लिया जाता है तो वह मामला कम लागत और कम समय के अंदर हल हो जाता है जिसका अर्थ है कि इसमें संबंधित पक्ष को कम मुआवजा मिलने की उच्च संभावना बनी रहती है क्योंकि दावेदारों को मुआवजे की अधिक राशि का दावा करने का समय नहीं मिलता है।
- सीमित क्षेत्राधिकार: लोक अदालत का क्षेत्राधिकार सीमित प्रकार के मामलों पर होता है। लोक अदालत में ज्यादातर, समझौता और सुलह पर बल दिया जाता है जो हर मामले में आवश्यक नहीं होता है।
- न्याय के वितरण में अनावश्यक देरी: भारत में कई मामलों को सजा-आधारित और सुधारात्मक तरीकों के माध्यम से निपटाया जाना चाहिये, जिन्हें लोक अदालत में निपटाया नहीं जा सकता है। इस प्रकार के मामले यदि लोक अदालत के समक्ष लाए जाते हैं तो वे न्याय प्रदान करने में असमर्थ होंगे और ऐसा मामला न्यायालय में चला जाएगा। यह अनावश्यक जटिलता और कानूनी कार्यवाही में अतिरिक्त विलंब का कारण बनता है।
- राज्यों की इच्छाशक्ति का अभाव: कई राज्यों में राज्यों की इच्छाशक्ति के अभाव के कारण लोक अदालतों की स्थापना नहीं की गई है।
निष्कर्ष
लोक अदालतों और ग्राम न्यायालयों जैसी न्यायिक संस्थाएँ समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये न्याय को सुलभ बनाकर और न्याय की भावना को जीवंत रखने के माध्यम से सतत विकास लक्ष्य संख्या 16 (शांति, न्याय और सशक्त संस्थाएँ) को प्राप्त करने में भूमिका निभा रही हैं ।
उत्तर 2:
दृष्टिकोण :
- न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक के बारे में संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अतिरेक के लाभों पर चर्चा कीजिये।
- उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
न्यायिक सक्रियता: न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाती है। न्यायिक सक्रियता का प्रयोग सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में शुरू और विकसित हुआ। भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है और यदि ऐसा कानून संविधान के प्रावधानों के साथ असंगत पाया जाता है तो न्यायालय कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि अधीनस्थ न्यायालयों के पास कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति नहीं है। उदाहरण के लिये- सर्वोच्च न्यायालय ने ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिये सरकार को निर्देश दिया।
न्यायिक अतिरेक: जब न्यायिक सक्रियता एक सीमा से आगे निकल जाती है तो इसे न्यायिक अतिरेक कहा जाता है। सरल शब्दों में न्यायिक अतिरेक तब होता है जब न्यायपालिका सरकार के विधायी या कार्यकारी अंगों के कार्यों में हस्तक्षेप करना शुरू कर देती है। उदाहरण के लिये- राष्ट्रीय राजमार्ग के आसपास 500 मीटर के दायरे में शराब बेचने पर प्रतिबंध लगाना।
मुख्य बिन्दु
न्यायिक सक्रियता के लाभ
- जब विधायिका और कार्यपालिका अपने कार्यों का निष्पादन करने में विफल रहती है तब उत्तरदायी सरकार अप्रभावी हो जाती है। परिणामतः नागरिकों में संविधान और लोकतंत्र के प्रति विश्वास कम होता है।
- देश के नागरिक अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिये न्यायपालिका पर विश्वास करते हैं। इससे न्यायपालिका पर पीड़ित जनता की मदद करने का दबाव बनता है।
- न्यायिक उत्साह, अर्थात न्यायाधीश भी बदलते समय के साथ होने वाले सामाजिक सुधारों में हिस्सा लेना पसंद करते हैं। इससे जनहित याचिकाओं को 'लोकस स्टैंडी' अर्थात हस्तक्षेप के सिद्धांत के तहत प्रोत्साहन मिलता है।
- वैधानिक अंतराल को पूरा करना, अर्थात ऐसे कई क्षेत्र हो सकते हैं जिन पर कोई कानून नहीं बनाया गया है। इसलिये न्यायालय पर ही जिम्मेदारी आ जाती है कि वह बदलती सामाजिक जरूरतों के हिसाब से न्यायालयीय विधायन का कार्य करे।
- भारत के संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं जिनमे न्यायपालिका को कानून बनाने या सक्रिय भूमिका निभाने के लिये पर्याप्त आधार प्रदान किया गया है।
न्यायिक सक्रियता के नुकसान
न्यायविद उपेंद्र बक्सी ने न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न होने वाले भय को लेकर अपना विचार रखा है। यह भय भारत के सबसे कर्तव्यनिष्ठ न्यायाधीशों के अंदर भी भय पैदा करते हैं। उन्होंने निम्नलिखित प्रकार के भय का वर्णन किया:
- वैचारिक भय: इस बात की आशंका बढ़ रही है कि न्यायपालिका विधायिका, कार्यपालिका या अन्य स्वायत्त संस्थानों की शक्तियों को सीमित कर रही है और यह अधिक शक्तिशाली होती जा रही है जिससे कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के संबंधों में असंतुलन का खतरा पैदा हो गया है।
- जानकारी और अनुभव से संबंधित भय: कई बार न्यायालय बहुत तकनीकी और जटिल मामलों में भी दिशानिर्देश या निर्णय देती हैं। जैसे की समान नागरिक संहिता (UCC) और यूनिवर्सल बेसिक इनकम आदि जैसे जटिल मामलों से निपटना।
- प्रबंधन का भय: अक्सर यह प्रश्न उठता है कि क्या यह इस प्रकार की जिम्मेदारी लेकर न्याय कर पा रहे हैं क्योंकि इन पर पहले से ही अतिरिक्त कार्यभार है।
- वैधता संबंधी भय: सरकार के अन्य अंगों में न्यायपालिका का अनुचित हस्तक्षेप, न्यायपालिका के लिये वैधता संबंधी संकट पैदा करता है।
- लोकतांत्रिक भय: न्यायाधीश निर्वाचित नहीं होते हैं उन्हें नियुक्त किया जाता है। इसका मतलब यह है कि यह आम लोगों की इच्छाओं और विचारों के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह नहीं होते हैं इससे समकालीन सत्तारूढ़ पार्टी के लिये शासन संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- स्वहित संबंधी भय: कुछ न्यायाधीश एक ही प्रश्न को ध्यान में रखते हुए ऐसे कई कदम उठाते हैं कि यदि मैं किसी विशेष प्रकार के मामले में अधिक सक्रियता दिखाता हूँ तो सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मामलों में मेरा क्या स्थान होगा?
निष्कर्ष
न्यायिक सक्रियता,जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से आम लोगों के हित को सुनिश्चित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण युक्ति है लेकिन न्यायाधीशों को इस युक्ति का उपयोग करते समय सतर्क रहने की आवश्यकता है अन्यथा इसका अनुचित प्रयोग न्यायालयों की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है।