Sambhav-2023

दिवस- 102

प्रश्न.1 ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीव क्या होते हैं? कृषि और जैव प्रौद्योगिकी में इनके उपयोग के संभावित गुणों और दोषों की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

प्रश्न.2 खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में रसायनों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है लेकिन मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर इनके संभावित जोखिमों के बारे में चिंताएँ बढ़ रही हैं। दिये गए कथन के आलोक में इन मुद्दों को हल करने हेतु नियामक ढाँचे पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

07 Mar 2023 | सामान्य अध्ययन पेपर 3 | विज्ञान-प्रौद्योगिकी

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

उत्तर: 1

हल करने का दृष्टिकोण:

  • ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीवों के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  • कृषि और जैव प्रौद्योगिकी में इन जीवों के उपयोग से जुड़े गुणों और दोषों की व्याख्या कीजिये।
  • समग्र और उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

  • ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक शब्दों को आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMOs) का वर्णन करने के लिये उपयोग किया जाता है।
  • ट्रांसजेनिक जीवों में जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीकों का उपयोग करके किसी बाहरी जीन के माध्यम से जीनोम में परिवर्तन किया जाता है। इनमें प्रवेश कराए जाने वाले बाहरी जीन विभिन्न प्रजातियों के हो सकते हैं। उदाहरण के लिये ट्रांसजेनिक पौधे को कुछ कीटों या शाकनाशियों के प्रति प्रतिरोधी बनाने के लिये इनमें बैक्टीरिया के जीन का प्रवेश कराया जा सकता है।
  • दूसरी ओर सिसजेनिक जीवों में प्रवेश कराए जाने वाले जीन सामान प्रजाति या निकट संबंधी प्रजातियों के हो सकते हैं। उदाहरण के लिये सिसजेनिक आलू में किसी अन्य आलू की किस्म के जीन का प्रवेश कराने के माध्यम से इसे किसी विशेष रोग के प्रति प्रतिरोधी बनाया जा सकता है।
  • सिसजेनिक और ट्रांसजेनिक जीवों के बीच मुख्य अंतर उनके जीनोम को संशोधित करने के लिये उपयोग की जाने वाली आनुवंशिक सामग्री का स्रोत है। सिसजेनिक में केवल निकट संबंधी जीवों से आनुवंशिक पदार्थ का उपयोग किया जाता है जबकि ट्रांसजेनिक में अन्य जीवों के आनुवंशिक पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है।

मुख्य भाग:

  • कृषि और जैव प्रौद्योगिकी में ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीवों के उपयोग के निम्नलिखित संभावित लाभ हैं:
    • फसल उत्पादकता में वृद्धि होना: आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की कीटों, बीमारियों और पर्यावरणीय असंतुलन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सकती है जिससे फसल की उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है।
    • पोषण स्तर में सुधार होना: आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की पोषण सामग्री में भी सुधार हो सकता है जैसे कि विटामिन और खनिजों की मात्रा में वृद्धि होना।
    • कीटनाशकों के उपयोग में कमी आना: कीटों के प्रति प्रतिरोधी फसलों में हानिकारक कीटनाशकों की आवश्यकता में कमी आने के साथ पर्यावरण को कम नुकसान होता है।
    • औद्योगिक प्रक्रियाओं की दक्षता में वृद्धि होना: इसका उपयोग रोगाणुओं या एंजाइमों को बनाने के लिये भी किया जा सकता है जिनका उपयोग औद्योगिक प्रक्रियाओं में किया जा सकता है जैसे कि जैव ईंधन के उत्पादन में।
    • नए उत्पादों का निर्माण होना: नए उत्पादों को बनाने के लिये भी इसका उपयोग किया जा सकता है जैसे कि फार्मास्यूटिकल्स उद्योग में।
  • हालाँकि ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीवों के उपयोग के कुछ नुकसान भी हैं जैसे:
    • पर्यावरणीय जोखिम में वृद्धि होना: आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों से संभावित रूप से प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बाधित हो सकता है।
    • स्वास्थ्य जोखिम: ऐसी चिंताएँ हैं कि आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों का मानव स्वास्थ्य पर अज्ञात प्रभाव हो सकता है हालाँकि इससे संबंधित कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।
    • नैतिक चिंताएँ: कुछ लोगों को आनुवंशिक संशोधन के उपयोग के बारे में नैतिक चिंताएँ हैं, खासकर जब इसमें बाहरी प्रजातियों से जीन सम्मिलित किया जाता है।
    • आर्थिक मुद्दे: किसानों के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों का उपयोग महंगा साबित हो सकता है क्योंकि उन्हें नए बीज खरीदने या लाइसेंस शुल्क का भुगतान करने की आवश्यकता हो सकती है।
    • आनुवंशिक विविधता में कमी आना: आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों के व्यापक उपयोग से फसलों में आनुवंशिक विविधता में कमी आ सकती है जिससे यह लंबी अवधि में बीमारियों या कीटों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती हैं।

निष्कर्ष:

ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीवों में कृषि और जैव प्रौद्योगिकी में महत्त्वपूर्ण योगदान देने की क्षमता है जिसमें फसल की पैदावार में वृद्धि होना, पोषण स्तर में सुधार होना, कीटनाशकों के उपयोग में कमी आना, औद्योगिक प्रक्रियाओं में अधिक दक्षता आना और नए उत्पादों का विकास होना शामिल है। हालाँकि इनके उपयोग के संभावित जोखिम भी हैं जैसे कि पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ, नैतिक मुद्दे एवं आनुवंशिक विविधता में कमी आना आदि। इसलिये आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों के संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम करना आवश्यक है। अंततः ट्रांसजेनिक और सिसजेनिक जीवों का उपयोग नैतिक, पर्यावरणीय और आर्थिक कारकों के संदर्भ में इनके संभावित लाभों और कमियों के विश्लेषण पर आधारित होना चाहिये।


उत्तर: 2

हल करने का दृष्टिकोण:

  • कृत्रिम खाद्य योजक पदार्थों के उपयोग का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  • खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में उपयोग किये जाने वाले खाद्य रसायनों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा कीजिये।
  • समग्र और उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

  • कृत्रिम रसायनों (जिन्हें खाद्य योजक (food additives) के रूप में भी जाना जाता है) को उत्पादन या प्रसंस्करण के दौरान खाद्य पदार्थों के स्वाद या अवधि को बेहतर बनाने के लिये शामिल किया जाता है। कुछ खाद्य योजक को उपभोग हेतु सुरक्षित माना गया है लेकिन इन रसायनों में से कुछ के दीर्घकालिक जोखिम के बारे में चिंताएँ बनी हुई हैं। भोजन में कृत्रिम रसायनों के कुछ प्रभाव इस प्रकार हैं:
    • उदाहरण के लिये कीटनाशकों का उपयोग अक्सर फसलों में कीटों और बीमारियों को नियंत्रित करने के लिये किया जाता है लेकिन इसमें से कुछ जहरीले हो सकते हैं और मृदा, जल एवं हवा को दूषित कर सकते हैं। पशुओं के चारे में आमतौर पर एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल बीमारियों की रोकथाम और इलाज के लिये किया जाता है लेकिन इसके अत्यधिक इस्तेमाल से इंसानों में एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है।

मुख्य भाग:

  • खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में व्यापक रूप से उपयोग किये जाने वाले रसायनों का प्रभाव:
    • स्वास्थ्य जोखिम: कुछ खाद्य योजक से विभिन्न स्वास्थ्य जोखिम जैसे एलर्जी, अस्थमा, कैंसर और ADHD जैसे विकारों का खतरा बना रहता है।
      • एलर्जी होना: कुछ लोगों को सल्फाइट्स जैसे कुछ खाद्य योजक से एलर्जी हो सकती है, जिनका उपयोग आमतौर पर सूखे मेवों और शराब को संरक्षित करने के लिये किया जाता है।
      • कैंसर: कुछ खाद्य योजक जैसे नाइट्रेट और नाइट्राइट से कैंसर का जोखिम बढ़ता है (विशेष रूप से बेकन और हॉट डॉग जैसे प्रसंस्कृत मांस में)।
      • तंत्रिका संबंधी विकार: कुछ कृत्रिम स्वीटनर्स (जैसे कि एस्पार्टेम) से सिरदर्द, माइग्रेन और अन्य तंत्रिका संबंधी विकारों का जोखिम बना रहता है।
      • हार्मोनल व्यवधान: खाद्य पैकेजिंग में उपयोग किये जाने वाले कुछ रसायन जैसे कि बिस्फेनॉल A (BPA) से पुरुषों और महिलाओं में प्रजनन क्षमता प्रभावित होने का खतरा बना रहता है।
      • मोटापा और अन्य बीमारियाँ: कुछ खाद्य योजक जैसे कि हाई फ्रक्टोज कॉर्न सीरप से मोटापा, टाइप 2 मधुमेह और अन्य बीमारियों का जोखिम बना रहता है।
    • पर्यावरणीय प्रभाव: खाद्य उत्पादन में प्रयुक्त कृत्रिम रसायनों से जल और मृदा प्रदूषण होने के साथ वन्यजीवों को नुकसान हो सकता है जैसे:
      • प्रदूषण: खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में इस्तेमाल होने वाले रसायन मृदा, जल और वायु को दूषित कर सकते हैं जिससे प्रदूषण हो सकता है और इससे वन्यजीवों एवं पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो सकता है। उदाहरण के लिये कृषि में उपयोग होने वाले कीटनाशक नदियों में बहकर जा सकते हैं जिससे जल दूषित होने के साथ जलीय जीवों को नुकसान हो सकता है।
      • अपशिष्ट: खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में एकल-उपयोग वाली प्लास्टिक और पैकेजिंग सामग्री का उपयोग करने से कचरे की समस्या हो सकती है जिससे वन्यजीवों को नुकसान होने के साथ पर्यावरण प्रदूषित हो सकता है।
      • जलवायु परिवर्तन: खाद्य पदार्थों के उत्पादन और परिवहन के साथ ही इसे संसाधित करने और संग्रहीत करने के लिये उपयोग होने वाली ऊर्जा से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को बढ़ावा मिल सकता है। उदाहरण के लिये खाद्य प्रसंस्करण सुविधाओं में रेफ्रिजरेशन और एयर कंडीशनिंग के उपयोग से उच्च ऊर्जा खपत होने से अधिक कार्बन उत्सर्जन हो सकता है।
      • जैव विविधता की हानि होना: कृषि में रसायनों के उपयोग से स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में मदद करने वाले लाभकारी कीटों, पक्षियों और अन्य वन्यजीवों की विविधता को नुकसान पहुँच सकता है।
  • खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में रसायनों के संभावित जोखिमों को कम करने हेतु भारत के नियामक ढाँचे में निम्नलिखित शामिल हैं:
    • खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006: इस अधिनियम द्वारा FSSAI को भारत में खाद्य सुरक्षा और मानकों के लिये केंद्रीय नियामक प्राधिकरण के रूप में स्थापित किया गया है। इस अधिनियम द्वारा खाद्य सुरक्षा और मानकों के लिये नियामक ढाँचा निर्धारित किया गया है।
    • खाद्य सुरक्षा और मानक (खाद्य उत्पाद मानक और खाद्य योजक) विनियम, 2011: ये विनियम खाद्य योजकों के उपयोग के लिये दिशानिर्देश प्रदान करते हैं और खाद्य उत्पादों में इनकी अधिकतम अनुमेय सीमा निर्दिष्ट करते हैं। यह नियम खाद्य योजकों की लेबलिंग आवश्यकताओं को भी निर्दिष्ट करते हैं।
    • कीटनाशक प्रबंधन विधेयक, 2020: इस विधेयक का उद्देश्य भारत में कीटनाशकों के निर्माण, बिक्री, उपयोग, आयात और निर्यात को विनियमित करना है। यह विधेयक मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करने के क्रम में कीटनाशकों के पंजीकरण, लाइसेंसिंग और लेबलिंग के लिये एक नियामक ढाँचा का प्रावधान करता है।
    • भारतीय मानक ब्यूरो (BIS): यह भारत का एक राष्ट्रीय मानक संगठन है जो उत्पादों, प्रक्रियाओं और सेवाओं के मानकों को विकसित करता है। BIS द्वारा खाद्य उत्पादों के लिये मानक विकसित किये गए हैं, जिनमें खाद्य योजकों और परिरक्षकों के मानक भी शामिल हैं।

निष्कर्ष:

खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में रासायनिक पदार्थों के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिये विभिन्न पहल की जा रही हैं। कुछ हितधारकों का मानना है कि इन रसायनों से जुड़े जोखिमों को पूरी तरह से समझने के लिये और अधिक शोध की आवश्यकता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये इस संदर्भ में नियामक ढाँचा मौजूद है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) भी सुरक्षित खाद्य हैंडलिंग प्रथाओं को बढ़ावा देने और नियामक अनुपालन को लागू करने के लिये निरीक्षण और परीक्षण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुल मिलाकर पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य दोनों की रक्षा के लिये खाद्य उत्पादन और प्रसंस्करण में रसायनों के स्थायी और सुरक्षित विकल्पों की खोज जारी रखना महत्त्वपूर्ण है।