जुलाई 2018 | 14 Nov 2018
PRS कैप्सूल जुलाई 2018
PRS की प्रमुख हाइलाइट्स
- भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक 2018
- डाटा प्राइवेसी पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट
- मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधेयक, 2018
- कमर्शियल अदालत (संशोधन विधेयक), 2018
- जुआ खेलने और सट्टेबाज़ी के कानूनी ढाँचे पर विधि आयोग की रिपोर्ट
- भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक, 2018
- दिवाला एवं दिवालियापन संहिता (संशोधन) विधेयक, 2018
- शिक्षा का अधिकार (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2017
- राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय विधेयक, 2018
- सरकार द्वारा छह उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थानों की घोषणा
- डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग एवं अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2018 को मंज़ूरी
- होम्योपैथी केंद्रीय परिषद का अधिग्रहण करने के लिये विधेयक
- भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण (संशोधन) विधेयक, 2018
- मानव तस्करी (निवारण, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018
- पेट्रोलियम क्षेत्र में बचाव, सुरक्षा और पर्यावरण पहलुओं पर स्थायी समिति की रिपोर्ट
- आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018
- पूर्वोत्तर में सुरक्षा की स्थिति पर स्थायी समिति की रिपोर्ट
- सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम विकास (संशोधन) विधेयक
- मॉब हिंसा तथा लिंचिंग की जाँच के लिये उच्चस्तरीय समिति का गठन
- भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक, 2018
चर्चा में क्यों?
भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक को संसद ने पारित कर दिया है। यह विधेयक ऐसे आर्थिक अपराधियों की संपत्ति को ज़ब्त करने का प्रयास करता है जो आपराधिक मुकदमे से बचने के लिये देश छोड़ चुके हैं।
कौन है भगोड़ा आर्थिक अपराधी?
भगोड़ा आर्थिक अपराधी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसके खिलाफ किसी अपराध (अनुसूची में दर्ज) के संबंध में गिरफ्तारी को लेकर वारंट जारी किया गया है। इसके अतिरिक्त उस व्यक्ति ने-
- मुक़दमे से बचने के लिये देश छोड़ दिया है या
- मुकदमे का सामना करने से बचने के लिये देश लौटने से इनकार कर दिया हो।
अनुसूची में दर्ज अपराधों में से कुछ प्रमुख अपराध इस प्रकार हैं-
- नकली सरकारी स्टाम्प या करेंसी बनाना।
- पर्याप्त धन न होने के कारण चेक का भुनाया न जाना।
- मनी लॉन्ड्रिंग।
- क्रेडिटर्स के साथ लेन-देन में धोखाधड़ी करना।
यह विधेयक केंद्र सरकार को अधिसूचना के ज़रिये इस अनुसूची में संशोधन की अनुमति देता है।
भगोड़ा आर्थिक अपराधी की घोषणा
आवेदन पर सुनवाई के बाद विशेष अदालत किसी व्यक्ति को भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित कर सकती है।
विशेष अदालत निम्नलिखित संपत्तियों को ज़ब्त कर सकती है-
- अपराध से प्राप्त आय।
- बेनामी संपत्ति।
- भारत में या विदेश में कोई अन्य संपत्ति।
ज़ब्ती के बाद संपत्ति से संबंधित सभी अधिकार और टाइटल केंद्र सरकार में निहित होंगे लेकिन केंद्र सरकार संपत्ति से जुड़ी सभी देनदारियों से मुक्त होगी।
केंद्र सरकार इन संपत्तियों के प्रबंधन या निस्तारण के लिये एक प्रशासक नियुक्त कर सकती है।
सिविल दावा दायर करने पर रोक : यह विधेयक सिविल अदालत या न्यायाधिकरण को यह अनुमति देता है कि वे किसी ऐसे व्यक्ति, जिसे भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित किया गया है को सिविल दावा दायर करने या अपनी सफाई देने की अनुमति न दे।
विशेष अदालत : विशेष अदालत प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट 2002 के तहत प्राप्त शक्तियों का उपयोग कर सकती हैं, विशेष अदालत की शक्तियाँ सिविल अदालत के समान ही होंगी। इन शक्तियों में शामिल हैं:
- यह मानकर किसी स्थान में प्रवेश करना कि व्यक्ति भगोड़ा आर्थिक अपराधी है, और
- यह निर्देश देना कि किसी इमारत की तलाशी ली जाए या दस्तावेज़ों को ज़ब्त किया जाए।
2. डाटा प्राइवेसी पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट
भारत के लिये डेटा संरक्षण फ्रेमवर्क पर विशेषज्ञों की समिति (जिसके अध्यक्ष अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्ण हैं) ने अपनी रिपोर्ट तथा विधेयक का मसौदा इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को सौंप दिया। इसे डेटा संरक्षण से संबंधित मुद्दों की जाँच करने, उन्हें संबोधित करने के तरीकों की सिफारिश करने तथा डेटा संरक्षण विधेयक का मसौदा तैयार करने हेतु अगस्त 2017 में गठित किया गया था।
समिति ने पाया कि विनियामक फ्रेमवर्क को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डेटा के संबंध में उसके हितों तथा कंपनी, जैसे- सेवा प्रदाता जिसके पास डेटा है, के हितों के बीच संतुलन स्थापित करना होगा।
समिति ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति तथा सेवा प्रदाता के बीच के संबंध को भरोसेमंद रिश्ते के रूप में देखना चाहिये। ऐसा सेवा प्राप्त करने हेतु सेवा प्रदाता पर किसी व्यक्ति की निर्भरता के कारण होता है। इसलिये, डेटा प्रोसेस करने वाले सेवा प्रदाता का यह दायित्व बनता है कि किसी व्यक्ति के डेटा के इस्तेमाल में सावधानी बरते और केवल अधिकृत उद्देश्यों के लिये इसका उपयोग करे।
मुख्य प्रावधान:
- डाटा प्रोसेसिंग के लिये आधार:सहमति की स्थिति में यह विधेयक जिम्मेदार व्यक्ति को डेटा के इस्तेमाल की अनुमति देता है। इसके अलावा, संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा (उदाहरण के लिये, जाति, धर्म तथा किसी व्यक्ति की लैंगिक पहचान) के इस्तेमाल के लिये स्पष्ट सहमति की आवश्यकता होगी।
- ज़िम्मेदार लोगों के दायित्व:व्यक्तिगत डेटा तक पहुँच वाली कंपनियों के कई दायित्व हैं, जिनमें- (i) डेटा को उचित तथा यथोचित रूप से इस्तेमाल करना और (ii) विभिन्न अंतरिम स्थितियों में डेटा एकत्र करते समय लोगों को नोटिस देना शामिल हैं।
- डेटा सुरक्षा प्राधिकरण:यह विधेयक (i) लोगों के हितों की रक्षा करने (ii) व्यक्तिगत डेटा के गलत इस्तेमाल को रोकने (iii) विधेयक का अनुपालन सुनिश्चित करने हेतु डेटा सुरक्षा प्राधिकरण की स्थापना भी करता है। इसमें डेटा संरक्षण तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कम-से-कम 10 वर्षों का अनुभव रखने वाला एक अध्यक्ष एवं छह सदस्य होंगे।
- लोगों के अधिकार:यह विधेयक लोगों के लिये कुछ निश्चित अधिकार तय करता है। इसमें शामिल हैं- (i) ज़िम्मेदार व्यक्ति से प्रमाण प्राप्त करने का अधिकार कि क्या व्यक्तिगत डेटा का इस्तेमाल किया गया है (ii) गलत, अपूर्ण या पुराने व्यक्तिगत डेटा में सुधार की मांग रखने का अधिकार और (iii) कुछ परिस्थितियों में किसी अन्य ज़िम्मेदार व्यक्ति के पास व्यक्तिगत डेटा स्थानांतरित कराने का अधिकार।
- अपराध और ज़ुर्माना:इस विधेयक के तहत डेटा के लिये ज़िम्मेदार व्यक्ति पर विभिन्न अपराधों के लिये प्राधिकरण ज़ुर्माना लगा सकता है। इसमें शामिल हैं- (i) अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने में विफलता (ii) विधेयक का उल्लंघन करते हुए डेटा का इस्तेमाल और (iii) प्राधिकरण द्वारा जारी निर्देशों के अनुपालन में विफलता।
- अन्य कानूनों में संशोधन: यह विधेयक सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में अहम संशोधन करता है। यह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में भी संशोधन करता है और व्यक्तिगत जानकारी के प्रकटीकरण, जिससे लोगों को नुकसान पहुँचाया जा सकता हो, को भी रोकता है।
3.मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधयेक, 2018
- मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में संशोधन करने के लिये मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) विधयेक, 2018 को लोकसभा में पेश किया गया था। इस अधिनियम में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता से संबंधित प्रावधान निहित हैं तथा इसमें सुलह हेतु कार्यवाही के संचालन के लिये कानून को भी परिभाषित किया गया है।
प्रमुख विशेषताएँ
- भारत की मध्यस्थता परिषद:यह विधेयक मध्यस्थता, बीच-बचाव, सुलह और अन्य विवादों के निवारण हेतु वैकल्पिक तंत्र को बढ़ावा देने के लिये भारत की मध्यस्थता परिषद (ACI) नामक एक स्वतंत्र निकाय स्थापित करना चाहता है।
- इसके कार्य:
- मध्यस्थ संस्थानों का ग्रेड निर्धारण करने तथा मध्यस्थों को मान्यता देने हेतु नीतियाँ तैयार करना,
- संस्थान के लिये नीतियाँ बनाना तथा सभी प्रकार के विवाद के मामलों के निवारण हेतु समान वैकल्पिक पेशेवर मानकों का रखरखाव।
- भारत और विदेशों में दिये गए मध्यस्थता संबंधी निर्णयों के निक्षेपागार स्थापित करना और उसे बनाए रखना।
- संरचना:एसीआई में एक अध्यक्ष होगा जो या तो (i) सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश या (ii) उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या (iii) उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या (iv) मध्यस्थता के संचालन तथा प्रशासन में विशेषज्ञता रखने वाला कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति हो। अन्य सदस्यों में एक प्रतिष्ठित मध्यस्थ पेशेवर, मध्यस्थता संबंधी कार्यों में अनुभवी एक अकादमीशियन और सरकार द्वारा नियुक्त किये गए लोग शामिल होंगे।
- मध्यस्थों की नियुक्ति:इस अधिनियम के तहत, वादी-प्रतिवादी (Party) मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये स्वतंत्र थे। किसी नियुक्ति पर असहमति के मामले में, वादी-प्रतिवादी सर्वोच्च न्यायालय या संबंधित उच्च न्यायालय या इस तरह के न्यायालय द्वारा नामित किसी भी व्यक्ति या संस्था से मध्यस्थ नियुक्त करने का अनुरोध कर सकते थे।
- इस विधेयक के तहत सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय मध्यस्थ संस्थानों को नामित कर सकते हैं। मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये वादी-प्रतिवादी इन संस्थानों से संपर्क कर सकते हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नामित संस्थान द्वारा नियुक्तियाँ की जाएंगी।
- राष्ट्रीय मध्यस्थता के लिये संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा नामित संस्थान द्वारा नियुक्तियाँ की जाएंगी। यदि कोई मध्यस्थ संस्थान उपलब्ध नहीं है, तो मध्यस्थ संस्थानों के कार्यों को करने के लिये संबंधित उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थों के एक पैनल को नेतृत्त्व दे सकता है।
समय-सीमा में छूट: अधिनियम, 1996 के तहत मध्यस्थता न्यायाधिकरणों को सभी मध्यस्थता कार्यवाहियों के लिये 12 महीने की अवधि के भीतर अपना निर्णय देना आवश्यक है। विधेयक में अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता हेतु इस प्रतिबंध को हटाने का प्रस्ताव रखा गया है।
4. कमर्शियल अदालत (संशोधन विधेयक), 2018
कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिवीज़न और कमर्शियल अपीलीय डिवीज़न (संशोधन) विधेयक, 2018 को लोकसभा में पेश किया गया। यह विधेयक कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिवीज़न और कमर्शियल अपीलीय डिवीज़न अधिनियम, 2015 में संशोधन करता है।
विधेयक के अंतर्गत प्रमुख प्रावधान
- कमर्शियल विवादों से संबंधित प्रावधान : यह विधेयक कमर्शियल विवादों (जैसे- निर्माण संबंधी कॉन्ट्रैक्ट्स और वस्तुओं एवं सेवाओं के लेन-देन से संबंधित कॉन्ट्रैक्ट्स) पर न्यायिक फैसले लेने के लिये उच्च न्यायालयों में कमर्शियल डिवीज़न और ज़िला स्तर पर कमर्शियल अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है।
- आर्थिक क्षेत्राधिकार में कटौती: अधिनियम के तहत कमर्शियल अदालतें और उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिवीज़न न्यूनतम 1 करोड़ रुपए मूल्य तक के विवादों पर फैसला ले सकती है लेकिन प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, यह सीमा कम-से-कम 3 लाख रुपए तक हो सकती है। केंद्र सरकार आर्थिक क्षेत्राधिकार की सीमा निर्धारित करने हेतु अधिसूचना जारी कर सकती है।
- कमर्शियल अदालतों की स्थापना: अधिनियम के तहत राज्य सरकारें संबंधित उच्च न्यायालय की सलाह से ज़िला न्यायाधीश वाली कमर्शियल अदालतों की स्थापना कर सकती है। लेकिन यह अधिनियम उन स्थितियों में कमर्शियल अदालतों की स्थापना पर प्रतिबंध लगाता है जब न्यायालयों को कमर्शियल मामलों पर सुनवाई करने का मूल न्यायाधिकर (मूल न्यायाधिकार से तात्पर्य यह है कि किसी अदालत को नए मामलों पर सुनवाई करने का अधिकार मिलना) प्राप्त होता है। प्रस्तावित विधेयक इस प्रतिबंध को हटाता है।
- कमर्शियल अपीलीय अदालतें: जिन क्षेत्रों में उच्च न्यायालयों को सामान्य मूल दीवानी क्षेत्राधिकार (Ordinary Origional Civil Jurisdiction) प्राप्त नहीं है, वहाँ राज्य सरकारें ज़िला न्यायाधीश के स्तर पर कमर्शियल अपीलीय अदालतों को अधिसूचित कर सकती हैं।
- अपीलीय अदालत में कमर्शियल अदालतों (ज़िला न्यायाधीश के स्तर से नीचे) के आदेश के खिलाफ अपील की जा सकती है।
- मध्यस्थता : अनिवार्य मध्यस्थता का प्रावधान उन मामलों में किया गया है जिनमें विवाद से जुड़े पक्षों द्वारा तत्काल राहत (जैसे निषेधाज्ञा) की माँग नहीं की जाती है। यह मध्यस्थता विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 (Legal services Authorities Act) के तहत स्थापित प्राधिकरण (जैसे- राष्ट्रीय तथा ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण) द्वारा की जा सकती है। मध्यस्थता की प्रक्रिया तीन महीने के अंदर पूरी की जानी चाहिये।
5. सट्टेबाजी और जुए के लिये कानूनी ढाँचे पर विधि आयोग की रिपोर्ट
भारत के लॉ कमीशन ने एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें इस बात की जाँच की गई कि क्या भारत में सट्टेबाजी को वैध बनाया जा सकता है। 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने कमीशन से सट्टेबाजी को विनियमित करने के लिये कानून बनाए जाने की संभावना की जाँच करने को कहा था।
कमीशन द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट के अनुसार, सट्टेबाजी और जुए पर प्रतिबंध वांछनीय है, लेकिन इसे पूरी तरह से रोकना बहुत मुश्किल है। इसलिये कमीशन ने सट्टेबाजी और जुए को विनियमित करने का सुझाव दिया है।
महत्त्वपूर्ण सिफारिशें:
- सट्टेबाजी और जुए का विनियमन: कमीशन ने इंगित किया कि संविधान के अनुसार, सट्टेबाजी और जुए की समस्या का निवारण करना राज्य की ज़िम्मेदारी है। इसलिये राज्य विधानमंडल सट्टेबाजी और जुए को विनियमित करने के लिये कानून बना सकते हैं। हालाँकि कमीशन ने यह भी इंगित किया है कि ससंद सट्टेबाजी और जुए को विनियमित करने हेतु एक मॉडल कानून बना सकती है और जिसे राज्य अपना सकेंगे। संसद अनुच्छेद 249 (राष्ट्र के हित में) या अनुच्छेद 252 (यदि दो या दो से अधिक राज्यों की सहमति हो) के अंतर्गत भी कानून बना सकती है। कमीशन ने इस बात की तरफ़ भी इशारा किया कि संसद ऑनलाइन सट्टेबाजी और जुए से जुड़े कानून बनाने में सक्षम है।
- सट्टेबाजी और जुए को नियंत्रित करने वाले विनियमन: कमीशन ने सुझाव दिया कि केवल लाइसेंसशुदा ऑपरेटर को ही सट्टेबाजी और जुए की अनुमति होनी चाहिये। इसके साथ ही यह सुझाव भी दिया गया कि ऑपरेटर और जुआ खेलने सट्टेबाजी करने वालों के मध्य लेनदेन कैशलेस होना चाहिये।
- नकदी लेनदेन की स्थिति में सज़ा का प्रावधान भी होना चाहिए तथा जुए और सट्टेबाजी में संलिप्त लोगों के के लेनदेन आधार और पैन कार्ड से लिंक होने चाहिये।
- इसके आलावा, सट्टेबाजी और जुए से प्राप्त होने वाली आय, आय कर अधिनियम (आईटी एक्ट), 1961 और वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, 2017 तथा ऐसे ही अन्य दूसरे कानूनों के तहत कर के दायरे में होगी।
- सट्टेबाजी और जुए से प्रतिबंधित व्यक्ति: कमीशन ने सुझाव दिया कि कुछ खास वर्ग के लोगों को सट्टेबाजी और जुए से प्रतिबंधित किया जाना चाहिये।
- नाबालिग
- सरकारी सब्सिडी प्राप्त करने वाले लोग
- ऐसे लोग जो आयकर अधिनियम, 1961 और वस्तु एवं सेवा कर, 2017 के दायरे से बाहर हों
6. भ्रष्टाचार निवारण विधेयक, 2018
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में संशोधन करने के लिये संसद द्वारा भ्रष्टाचार निवारण विधेयक, 2018 पारित किया गया।
मुख्य विशेषताएँ
- रिश्वत देना: इस विधेयक के अनुसार, रिश्वत देना अपराध की श्रेणी में माना जाएगा। हालाँकि, रिश्वत देने के लिये बाध्य किये गए किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जाएगा यदि वह कानून प्रवर्तन प्राधिकरण को 7 दिनों के अंदर सूचित कर देता है।
- आपराधिक दुर्व्यवहार: यह विधेयक आपराधिक दुर्व्यवहार से संबंधित प्रावधानों को फिर से परिभाषित करता है ताकि केवल दो प्रकार के अपराधों को शामिल किया जा सके:
- संपत्ति संबंधी धोखाधड़ी एवं दुरुपयोग।
- अवैध तरीके से धन जुटाना (जैसे-किसी व्यक्ति द्वारा आय से अधिक संपत्ति जुटाना)।
- जाँच-पड़ताल से पहले मंज़ूरी: किसी सरकारी कर्मचारी के अपराध के आरोपों की जाँच करने से पहले पुलिस अधिकारी को संबंधित सरकार या सक्षम अधिकारी की पूर्व स्वीकृति लेनी चाहिये। ऐसी स्वीकृति की आवश्यकता उन मामलों में नहीं होगी जिनमें रिश्वत लेते समय पकड़े जाने पर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया हो।
मामलों की सुनवाई के लिये समयावधि: विधेयक के अनुसार, दो वर्ष के भीतर विशेष न्यायाधीश द्वारा मुकदमे की सुनवाई पूरी करने का प्रयास किया जाना चाहिये। अभिलिखित कारणों की वज़ह से इस अवधि को एक बार में छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है। हालाँकि सुनवाई पूरी करने की कुल अवधि चार वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिये।
7. इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2018
संदर्भ
23 जुलाई, 2018 को इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2018 को पेश किया गया। यह विधेयक इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता, 2016 में संशोधन करता है तथा इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (संशोधन) अध्यादेश, 2018 का स्थान लेता है जिसे 6 जून, 2018 को जारी किया गया था।
प्रमुख विशेषताएँ
- इनसॉल्वेंसी वह स्थिति होती है जब कोई व्यक्ति या कंपनी अपना बकाया ऋण चुकाने में सक्षम नहीं हो पाती है।
- यह संहिता कंपनियों और व्यक्तियों के बीच इनसॉल्वेंसी का समाधान करने के लिये एक समयबद्ध प्रक्रिया प्रदान करती है।
- फाइनेंसियल क्रेडिटर्स (वित्तीय लेनदार): यह संहिता स्पष्ट करती है कि फाइनेंसियल क्रेडिटर्स ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनका वित्तीय ऋण बकाया होता है। इस ऋण में ऐसी कोई भी राशि शामिल हो सकती है जिसे व्यावसायिक स्तर पर उधार लेकर जमा किया गया हो।
- फाइनेंसियल क्रेडिटर्स का प्रतिनिधि: विधेयक यह भी स्पष्ट करता है यदि ऋण क्रेडिटर्स के किसी समूह पर बकाया हो तो कमिटी ऑफ क्रेडिटर्स में अधिकृत प्रतिनिधियों द्वारा फाइनेंसियल क्रेडिटर्स का प्रतिनिधि चुना जाएगा।
- नवंबर 2017 में संहिता की समीक्षा करने, उसे लागू करने में आने वाली समस्याओं को चिह्नित करने और सुझाव देने के लिये इनसॉल्वेंसी लॉ कमिटी का गठन किया गया था।
कमिटी ने मार्च 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कई सुझाव दिये, जैसे-सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम दर्जे के उपक्रमों को संहिता के कुछ प्रावधानों से छूट दी जाए, रियल इस्टेट के पट्टेदारों को फाइनेंसियल क्रेडिटर्स के तौर पर देखा जाए। इसके बाद 6 जून, 2018 को इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी संहिता (संशोधन) अध्यादेश, 2018 जारी किया गया।
8. निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017
संदर्भ
निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017 लोकसभा द्वारा पास कर दिया गया है। परंतु यह अभी राज्यसभा में लंबित है। नो डिटेंशन प्रावधान को हटाने के लिये निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 में संशोधन हेतु लोकसभा में निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017 पेश किया गया था।
निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009
इस अधिनियम के अंतर्गत छह से चौदह वर्ष के बीच के सभी बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1-8) प्राप्त करने का अधिकार है। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, प्राथमिक शिक्षा समाप्त होने तक किसी भी बच्चे को किसी भी कक्षा में रोका नहीं जा सकता है। अगली कक्षा में स्वतः प्रमोशन से यह सुनिश्चित होता है कि पहले की कक्षा में बच्चे को न रोकने के परिणामस्वरूप वह स्कूल नहीं छोड़ता है।
हाल ही के वर्षों में विशेषज्ञ कमेटियों ने इस अधिनियम के नो डिटेंशन प्रावधान की समीक्षा की और यह सुझाव दिया कि इसे हटा दिया जाए या चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर दिया जाय।
विधेयक की मुख्य विशेषताएँ
- निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक बच्चों को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन को प्रतिबंधित करता है।
- प्रस्तुत विधेयक इस प्रावधान में संशोधन करता है और कहता है कि कक्षा 5 तथा कक्षा 8 में प्रत्येक शैक्षणिक वर्ष के अंत में नियमित परीक्षा संचालित की जाएगी। अगर बच्चा परीक्षा पास करने में असफल हो जाता है तो उसे अतिरिक्त शिक्षण दिया जाएगा और दोबारा परीक्षा ली जाएगी।
- अगर बच्चा दोबारा असफल हो जाता है तो संबंधित केंद्र या राज्य सरकार का स्कूल बच्चे को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन की अनुमति दे सकता है।
मुख्य मुद्दे एवं विश्लेषण
- असफल होने पर बच्चों को पिछली कक्षा में रोका जाना चाहिये या नहीं इस संबंध में अधिनियम के इस प्रावधान को लेकर भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि अगली कक्षा में स्वतः प्रमोशन देने से बच्चों में सीखने और अध्यापकों में सिखाने की भावना कम हो जाती है।
- कुछ अन्य लोगों का यह मानना है कि बच्चों को पिछली कक्षा में रोकने यानी डिटेंशन करने के परिणामस्वरूप वे स्कूल छोड़ (ड्राप आउट) देते हैं। जबकि वे व्यवस्था संबंधी उन कारकों पर ध्यान नहीं देते हैं जिसमें अध्यापकों और स्कूल की गुणवत्ता, मूल्यांकन का तरीका, पठन-पाठन की शैली जैसे कारक शामिल हैं।
- विधेयक के मूल्यांकन तथा डिटेंशन संबंधी प्रावधान, अधिकतर राज्यों द्वारा दिये गए सुझावों से भिन्न हैं। इस संबंध में प्रश्न यह है कि क्या संसद को ये फैसले लेने चाहिये या इसे राज्य विधानमंडलों पर छोड़ देना चाहिये।
- यह भी अस्पष्ट है कि शैक्षणिक वर्ष के अंत में नियमित परीक्षा कौन संचालित कराएगा जिसके पश्चात बच्चों को पिछली कक्षा में रोका जाएगा, केंद्र सरकार, राज्य सरकार या फिर स्कूल?
9. राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय विधेयक, 2018
संदर्भ
23 जुलाई, 2018 को लोकसभा में राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय विधेयक पेश किया गया। यह विधेयक राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय अध्यादेश, 2018 का स्थान लेता है जिसे 31 मई, 2018 को जारी किया गया था। इस विधेयक के तहत मणिपुर में राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रावधान है।
विश्वविद्यालय की स्थापना
राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय के मुख्यालय की स्थापना मणिपुर में की जाएगी। यह मुख्यालय दूरस्थ क्षेत्रों में कैंपस, कॉलेज या क्षेत्रीय केंद्रों की स्थापना करने में सक्षम होगा।
विश्वविद्यालय के कार्य इस प्रकार हैं:
- शारीरिक शिक्षा पर शोध
- खेल के प्रशिक्षण कार्यक्रमों को मज़बूती देना
- शारीरिक शिक्षा इत्यादि के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना।
विश्वविद्यालय के प्राधिकार
- कोर्ट (सभा), जो विश्वविद्यालय की व्यापक नीतियों की समीक्षा करेगा तथा उनके विकास के लिये उचित उपाय सुझाएगा।
- कार्यकारी परिषद, जो मुख्य कार्यकारी की भूमिका निभाएगी।
- शैक्षिक और कार्यकलाप परिषद शैक्षिक नीतियों का निरिक्षण करेगी।
- खेल अध्ययन बोर्ड अनुसंधान के विषयों को मंज़ूरी देगा और शिक्षण के मानदंडों में सुधर के लिये उपाय सुझाएगा।
- वित्त समिति विभिन्न पदों के सृजन से संबंधित प्रस्तावों की जाँच करेगी और विश्वविद्यालय द्वारा किये जाने वाले व्यय की सीमा के संबंध में सुझाव देगी।
केंद्र सरकार की भूमिका
केंद्र सरकार विश्वविद्यालय के कामकाज की समीक्षा और निरिक्षण करेगी। कार्यकारी परिषद केंद्र द्वारा प्रस्तुत निरीक्षण के निष्कर्षों के आधार पर कार्रवाई करेगी। यदि निश्चित समय-सीमा के अंदर परिषद कार्रवाई नहीं करती है तो केंद्र सरकार बाध्यकारी निर्देश जारी कर सकती है।
10 .सरकार द्वारा छह उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थानों की घोषणा
हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने छह उच्च शिक्षा संस्थानों को उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थान घोषित किया। गौरतलब है कि मंत्रालय ने अनुसंधान कार्य को बढ़ाने और भारतीय शैक्षणिक संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग में सुधार के लिये विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय बनाने की अपनी योजना के तहत छह उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थानों की घोषणा की है।
मंत्रालय द्वारा चुने गए संस्थान: घोषित किये गए इन छह संस्थानों में से 3 संस्थान सार्वजानिक क्षेत्र से जबकि अन्य 3 निजी क्षेत्र से हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र :
- भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरू, कर्नाटक
- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई, महाराष्ट्र
- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली।
निजी क्षेत्र :
- जियो इंस्टीट्यूट (रिलायंस फाउंडेशन) पुणे, ग्रीन फील्ड श्रेणी के तहत
- बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज, पिलानी, राजस्थान और
- मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन, मणिपाल, कर्नाटक।
उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थानों की विशेषताएँ:
- इन संस्थानों को अपना कार्यक्रम और पाठ्यक्रम निर्धारित करने की पूरी छूट होगी।
- बिना किसी फीस प्रतिबंध के 30% विदेशी छात्रों को प्रवेश दे सकेंगे।
- ये संस्थान AICTE, UGC और HECI के विनियमों से स्वतंत्र होंगे।
11. डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग एवं अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2018 को मंज़ूरी
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग एवं अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2018 (DNA Technology (Use and Application) Regulation Bill, 2018) को मंज़ूरी दे दी है जो कानून प्रवर्तन एजेंसियों को डीएनए के नमूने एकत्र करने, ‘डीएनए प्रोफाइल’ बनाने और अपराधों की फोरेंसिक जाँच के लिये विशेष डेटाबेस तैयार करने की अनुमति देता है।
विधेयक का उद्देश्य
इस विधेयक का उद्देश्य अपराधों की जाँच दर में बढ़ोतरी के साथ देश की न्यायिक प्रणाली को समर्थन देने एवं उसे सुदृढ़ बनाने के लिये डीएनए आधारित फोरेंसिक प्रौद्योगिकियों के अनुप्रयोग को विस्तारित करना है।
प्रमुख बिंदु
- डीएनए परीक्षण प्रयोगशालाओं के अनिवार्य प्रत्यायन एवं विनियमन के प्रावधान के ज़रिये विधेयक में इस प्रौद्योगिकी का देश में विस्तारित उपयोग सुनिश्चित किया गया है।
- विधेयक में इस बात का भी भरोसा दिलाया गया है कि डीएनए परीक्षण परिणाम भरोसेमंद हों और नागरिकों के गोपनीयता अधिकारों के लिहाज़ से डाटा का दुरुपयोग न हो सके।
- विधेयक के प्रावधान जहाँ एक तरफ, गुमशुदा व्यक्तियों तथा देश के विभिन्न हिस्सों में पाए जाने वाले अज्ञात शवों की पहचान करने में सक्षम बनाएंगे, वहीं दूसरी तरफ, बड़ी आपदाओं के शिकार हुए व्यक्तियों की पहचान करने में भी सहायता प्रदान करेंगे।
- केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित होने के बाद विधेयक को 18 जुलाई से शुरू होने वाले संसद के आगामी मानसून सत्र में प्रस्तुत किया जाएगा।
12. होम्योपैथी केंद्रीय परिषद का अधिग्रहण करने के लिये विधेयक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में लोकसभा द्वारा होम्योपैथी केंद्रीय परिषद (संशोधन) विधेयक, 2018 पारित किया गया। इसके अंतर्गत होम्योपैथी केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1973 में संशोधन करने का प्रावधान किया गया है।
विधेयक के प्रमुख प्रावधान
- होम्योपैथी केंद्रीय परिषद (संशोधन) अधिनियम, 2018 के लागू होने के एक वर्ष के भीतर केंद्रीय परिषद को पुनर्गठित किया जाएगा और केंद्रीय परिषद के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों के पद रिक्त हो जाएंगे।
- केंद्र सरकार द्वारा शासी बोर्ड का गठन किया जाएगा जिसमें अधिकतम सात सदस्य होंगे, जो होम्योपैथी तथा होम्योपैथी शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति-प्राप्त और सत्यनिष्ठा रखने वाले होंगे ये केंद्र सरकार द्वारा नामनिर्दिष्ट या उसके द्वारा नियुक्त किये जाने वाले पदेन सदस्य होंगे जिनमें से एक का चयन केंद्र सरकार द्वारा शासी बोर्ड के सभापति के रूप में किया जाएगा।
- शासी बोर्ड का सभापति और अन्य सदस्य केंद्र सरकार के प्रसाद पर्यंत अपना पद धारण करेंगे।
- सभी होम्योपैथी चिकित्सा महाविद्यालयों द्वारा केंद्र सरकार की पूर्व अनुज्ञा अभिप्राप्ति के लिये उपबंध करना।
- यह विधेयक पूर्वोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिये है।
संशोधन की आवश्यकता क्यों है?
- परिषद में गंभीर दुराचार के मामले सामने आए हैं जिसके परिणामस्वरूप चिकित्सा शिक्षा की क्वालिटी में गिरावट आई है। हालाँकि केंद्र सरकार ने परिषद की कार्यकारिणी को कारगर बनाने और परिषद के कार्यकलापों में पारदर्शिता लाने के लिये विभिन्न कदम उठाए हैं, तथापि परिषद ने केंद्र सरकार की ऐसी सभी पहलों को बाधित किया है।
- परिषद के बहुत से सदस्य अपनी पदावधि पूर्ण होने के बाद भी लंबे समय से परिषद में बने हुए हैं।
- इसके अतिरिक्त परिषद के सभापति के विरुद्ध गंभीर कदाचार के कई आरोप भी सामने आए हैं जो कि पदावधि की समाप्ति के पश्चात् भी परिषद के सदस्य के तौर पर कार्य कर रहे थे, इसका मुख्य कारण यह है कि नए पदाधिकारी के चयन की प्रक्रिया समय पर पूरी नहीं की जा सकी।
पृष्ठभूमि
- होम्योपैथी केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1974 को होम्योपैथी केंद्रीय परिषद के गठन, होम्योपैथी रजिस्टर के रख-रखाव तथा उससे संबंधित विषयों के लिये अधिनियमित किया गया था।
- वर्ष 2002 में होम्योपैथी केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1973 को नए महाविद्यालय स्थापित करने और विद्यमान महाविद्यालयों में नए पाठ्यक्रम आरंभ करने या प्रवेश क्षमता बढ़ाने हेतु संशोधित किया गया था।
13. भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण (संशोधन) विधेयक, 2018
भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण (संशोधन) विधेयक, 2018 भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण अधिनियम, 2008 में संशोधन करता है। इसी अधिनियम के तहत भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण (AERA) की स्थापना की गई थी। AERA प्रतिवर्ष 15 लाख से अधिक यात्रियों के आवागमन की क्षमता वाले नागरिक हवाई अड्डे पर प्रदान की जाने वाली वैमानिक सेवाओं के लिये टैरिफ तथा अन्य शुल्कों को विनियमित करता है। यह इन हवाई अड्डों में सेवाओं के मानक प्रदर्शन पर भी नज़र रखता है।
विधेयक की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- प्रमुख हवाई अड्डों की परिभाषा:प्रतिवर्ष 15 लाख से अधिक यात्रियों के आवागमन की क्षमता वाले नागरिक हवाई अड्डों या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किये गए किसी भी अन्य हवाई अड्डे को यह अधिनियम प्रमुख हवाई अड्डे के रूप में परिभाषित करता है। यह विधेयक प्रमुख हवाई अड्डों के लिये तय की गई यात्रियों की सीमा को 15 लाख प्रतिवर्ष से बढ़ाकर 35 लाख प्रतिवर्ष करता है।
- AERA द्वारा टैरिफ निर्धारण:इस अधिनियम के तहत AERA (i) प्रत्येक पाँच वर्ष के अंतराल पर विभिन्न हवाई अड्डों पर वैमानिक सेवाओं के लिये टैरिफ (ii) प्रमुख हवाई अड्डों का विकास शुल्क और (iii) यात्री सेवा शुल्क को निर्धारित करने के लिये ज़िम्मेदार है। यह अंतरिम अवधि में आवश्यक होने पर टैरिफ में संशोधन सहित टैरिफ निर्धारित करने तथा टैरिफ से संबंधित किसी अन्य कार्य को करने के लिये आवश्यक जानकारी की मांग भी कर सकता है।
इस विधेयक के अनुसार AERA (i) टैरिफ (ii) टैरिफ संरचना या (iii) कुछ मामलों में विकास शुल्क का निर्धारण नहीं करेगा। इसमें ऐसे मामले को शामिल किया जाएगा जिसमें टैरिफ की रकम नीलामी के दस्तावेज़ का हिस्सा थी और जिसके आधार पर हवाई अड्डे के संचालन का फैसला लिया गया था। नीलामी के दस्तावेज़ में ऐसे टैरिफ को शामिल करने से पहले AERA से परामर्श लिया जाएगा, जो अधिसूचना के रूप में होगी।
14. मानव तस्करी (निवारण, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018
संदर्भ: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने लोकसभा में मानव तस्करी (निवारण, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 प्रस्तुत किया। यह विधेयक तस्करी के शिकार लोगों की समस्याओं के निवारण, संरक्षण और पुनर्वास का प्रावधान करता है।
विधेयक की प्रमुख विशेषताएँ
- राष्ट्रीय तस्करी-रोधी ब्यूरो: विधेयक तस्करी संबंधी मामलों की जाँच और विभिन्न प्रावधानों को लागू करने हेतु राष्ट्रीय तस्करी-रोधी ब्यूरो (National Anti-traffficking Bureao) की स्थापना किये जाने का प्रावधान करता है।
- इस ब्यूरो में पुलिस अधिकारियों के अलावा अन्य अधिकारियों को भी शामिल किया जाएगा।
- यह ब्यूरो विधेयक के अंतर्गत आने वाले ऐसे किसी भी अपराध की जाँच कर सकता है जिसे दो या दो से अधिक राज्यों द्वारा रेफर किया गया हो।
- उपरोक्त के अलावा यह ब्यूरो राज्य सरकारों से जाँच में सहयोग देने का अनुरोध कर सकता है अथवा केंद्र सरकार की अनुमति से किसी भी मामले को जाँच और ट्रायल के लिये राज्य सरकार को ट्रांसफर कर सकता है।
- ब्यूरो के कार्य
- जिन मार्गों के बारे में जानकारी है (Known Routes) उनकी निगरानी करना।
- स्रोत, पारगमन और गंतव्य बिंदुओं पर नज़र रखना, प्रवर्तन (enforcement) और बचाव संबंधी कदम उठाना।
- कानून का प्रवर्तन करने वाली एजेंसियों और गैर-सरकारी संगठनों तथा दूसरे साझेदारों के बीच समन्वय स्थापित करना।
- ख़ुफ़िया सूचनाओं को साझा करने और परस्पर कानूनी सहायता के लिये विदेशी प्राधिकरणों के साथ अंतर्राष्ट्रीय समन्वय को बढ़ावा देना।
- राज्यस्तर पर तस्करी-रोधी अधिकारी की नियुक्ति: प्रस्तुत विधेयक के अंतर्गत राज्य सरकार राज्य नोडल अधिकारी की नियुक्ति करेगी जिसकी निम्नलिखित ज़िम्मेदारियाँ होंगी-
- राज्य तस्करी रोधी समिति की सिफारिशों के अनुसार, विधेयक के अंतर्गत फॉलो-अप की कार्रवाई करना।
- राहत और पुनर्वास सेवाएँ प्रदान करना।
- तस्करी रोधी यूनिट्स: प्रस्तावित विधेयक में ज़िला स्तर पर तस्करी-रोधी यूनिट्स (Anti Trafficking Units- ATU) बनाने का भी प्रावधान है। ATU के कार्य इस प्रकार होंगे-
- तस्करी को रोकना और लोगों का बचाव करना।
- पीड़ितों एवं गवाहों को सुरक्षा प्रदान करना।
- तस्करी संबंधी अपराधों में जाँच एवं कार्रवाई करना।
- जिन ज़िलों में ATU नहीं होगी वहाँ उपरोक्त कार्य स्थानीय पुलिस द्वारा किये जाएंगे।
- राहत और पुनर्वास कमेटी: यह विधेयक राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर पर तस्करी-रोधी राहत और पुनर्वास समितियों के गठन का प्रावधान करता है। समिति निम्नलिखित कार्यों के लिये ज़िम्मेदार होगी-
- पीड़ितों को मुआवज़ा देना।
- पीड़ितों को उनके देश भेजना।
- पीड़ितों को समाज में दोबारा एकीकृत करना इत्यादि।
- सर्च एवं बचाव कार्य: तस्करी रोकने से संबंधित पुलिस अधिकारी अथवा ATU उन लोगों का बचाव कर सकते हैं जिनके तस्करी का शिकार होने की आशंका है।
- सज़ा का प्रावधान: विधेयक विभिन्न अपराधों जैसे- लोगों की तस्करी करना, तस्करी को बढ़ावा देना, पीड़ित की पहचान का खुलासा करने, तस्करी के गंभीर रूपों (बंधुआ मज़दूरी या भीख मंगवाने के लिये तस्करी) के लिये सज़ा का प्रावधान करता है। उदहारण के लिये –
- तस्करी के गंभीर रूप के लिये 10 साल के सश्रम कारावास की सज़ा दी जाएगी उल्लेखनीय है कि इस सज़ा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है।
- ऐसी किसी सामग्री, जिसका परिणाम मानव तस्करी हो सकता है, को प्रकाशित करने पर 05 से 10 वर्ष के बीच कारावास की सज़ा हो सकती है और 50,000 रुपए से एक लाख रुपए तक ज़ुर्माना भरना पड़ सकता है।
15. पेट्रोलियम क्षेत्र में बचाव, सुरक्षा और पर्यावरणीय पहलुओं पर स्थायी समिति की रिपोर्ट
पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस पर स्थायी समिति ने ‘पेट्रोलियम क्षेत्र में बचाव, सुरक्षा और पर्यावरणीय पहलुओं’ पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है।
मुख्य अवलोकन और सिफारिशें:
- पेट्रोलियम क्षेत्र में बचाव, सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण:समिति ने पाया कि पेट्रोलियम उद्योग में अत्यधिक ज्वलनशील हाइड्रोकार्बन का उपयोग होता है तथा यह उच्च ताप एवं दाब के तहत विभिन्न प्रक्रियाओं को संचालित करता है। इसके अलावा, इस उद्योग का अन्वेषण तथा उत्पादन, तेल के फैलाव और परिष्करण प्रक्रियाओं के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण पर काफी प्रभाव पड़ता है। इसलिये यह सिफारिश की गई है कि इन सभी प्रक्रियाओं की निरंतर निगरानी की जानी चाहिये तथा सुरक्षा बढ़ाने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिये कानूनी ढाँचे को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- सुरक्षा परिषद की भूमिका:सुरक्षा निदेशालय द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों से पता चलता है कि तेल और गैस उद्योग में दुर्घटनाओं के प्रमुख मामलों की वजह है- (i) मानक ऑपरेटिंग प्रक्रियाओं का पालन न करना (SOPs) (ii) वर्क परमिट सिस्टम का उल्लंघन और (iii) ज्ञान की कमी।
- समिति ने यह भी पाया कि सुरक्षा परिषद, जो कि पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के तहत एक शीर्ष निकाय, ने हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में सुरक्षा मामलों तथा प्रक्रियाओं में अपनी नियामक भूमिका नहीं निभाई है।
- इसके अलावा, तेल और गैस प्रतिष्ठानों में दुर्घटनाओं के लिये जवाबदेही तय करने हेतु कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं है। समिति ने सिफारिश की कि सुरक्षा परिषद को निश्चित समय-सीमा के भीतर तेल और गैस उद्योग में नियमों के अनुपालन का प्रयास करना चाहिये।
नियमों के पालन में विफलता पर दंड दिया जाना चाहिये। पेट्रोलियम मंत्रालय और अन्य एजेंसियों, जिन्हें सुरक्षा नियमों के प्रवर्तन की ज़िम्मेदारी सौपी गई है, को SOPs के उल्लंघन के किसी भी मामले के लिये उत्तरदायित्व तय करना चाहिये।
16. आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018
संदर्भ
भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 और यौन अपराधों से बाल सुरक्षा (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 तथा महिलाओं से बलात्कार से संबंधित अन्य दूसरे कानूनों में संशोधन करने हेतु आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018 को लोकसभा में पेश किया गया था। गौरतलब है कि 21 अप्रैल, 2018 को केंद्र सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2018 जारी किया था।
प्रमुख विशेषताएँ
- यह विधेयक महिलाओं से बलात्कार के लिये दी जाने वाली न्यूनतम सज़ा को सात वर्ष से बढ़ाकर दस वर्ष करने हेतु भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 में संशोधन करता है।
- इस विधेयक के अनुसार, 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कारावास होगा जिसे आजीवन कारावास या मृत्यु दंड में बदला जा सकता है।
- 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार के लिये 20 वर्ष या आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान है।
प्रमुख मुद्दे और विश्लेषण
- यह विधेयक भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 में संशोधन तो करता है किंतु नाबालिग लड़कों से बलात्कार की सज़ा में कोई बदलाव नहीं किया गया है। इस प्रकार नाबालिग लड़कों से बलात्कार पर कम सज़ा का प्रावधान है। दोनों स्थितियों में सज़ा की अवधि (quantum of punishment) के बीच काफी अंतर आ जाता है।
- इस विधेयक में 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार के लिये मृत्यु दंड का प्रावधान है। लेकिन बलात्कार के लिये मृत्यु दंड पर भिन्न-भिन्न विचार हैं। कुछ लोगों का यह मानना है कि मृत्यु दंड के प्रावधान से यौन अपराधी हतोत्साहित होते हैं और अपराध रुक जाता है। वहीं दूसरी तरफ, कुछ लोगों का यह मानना है कि मृत्यु दंड बलात्कार के अनुपात में ज़्यादा बड़ा दंड है।
- बलात्कार की परिभाषा जेंडर न्यूट्रल नहीं है:
पॉक्सो एक्ट, 2012 के अनुसार, नाबालिगों से बलात्कार के मामले में पीड़ित लड़का या लड़की (और अपराधी भी किसी भी लिंग का हो सकता है) हो सकता है। IPC, 1860 के अनुसार, बलात्कार तभी माना जा सकता है जब अपराधी पुरुष हो और पीड़ित महिला। विधि आयोग (2000) की रिपोर्ट और जस्टिस वर्मा कमिटी (2013) ने सुझाव दिया था कि बलात्कार की परिभाषा जेंडर न्यूट्रल होनी चाहिये तथा पुरुष एवं महिला, दोनों पर लागू होनी चाहिये। अध्यादेश इस बारे में कुछ नहीं कहता है।
17. स्थायी समिति ने पूर्वोत्तर भारत में सुरक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत की
मुख्य सिफारिशें
- अरुणाचल प्रदेश:समिति ने पाया कि अन्य राज्यों के विपरीत अरुणाचल प्रदेश में विद्रोह से संबंधित घटनाओं तथा आकस्मिक-दुर्घटनाओं की संख्या में वृद्धि देखी गई है। समिति ने सिफारिश की कि सरकार, अरुणाचल प्रदेश में अन्य राज्यों से उत्प्रेरित विद्रोही गतिविधियों को नियंत्रित करने के अपने प्रयासों को गति प्रदान करे।
- असम:समिति ने पाया कि भारत के सभी राज्यों की तुलना में हिंसक अपराधों की दर असम में सबसे ज़्यादा है। पुनर्वास तथा आत्मसमर्पित विद्रोहियों की खराब स्थिति की वज़ह से ऐसा हो सकता है।
- सिफारिश:समिति ने सिफारिश की कि केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार आपसी समन्वय के साथ उनकी गतिविधियों पर बारीकी से नज़र रखें।
- नगालैंड: समिति ने पाया कि नागा शांति वार्ता के निष्कर्ष प्राप्त करने में देरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप नागा आदिवासी हो-हो के बीच अशांति बढ़ रही थी।
- सिफारिश:समिति ने सिफारिश की कि सरकार जल्द-से-जल्द शांति वार्ता का निष्कर्ष निकाले और गृह मंत्रालय विद्रोहियों के लिये एक उदार तथा विस्तृत पुनर्वास-सह-निपटान योजना तैयार करे जो समझौते के रूप में विद्रोहियों से आत्मसमर्पण कराएगी।
- सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम (AFSPA) का अनुप्रयोग:समिति के संज्ञान में आया कि मंत्रालय ने कहा है, असम में सुरक्षा की स्थिति में सुधार हुआ है। हालाँकि, दूसरी ओर, AFSPA के तहत इस क्षेत्र को अशांत घोषित किया गया है। समिति ने यह भी पाया कि असम राज्य सरकार ने पूरे राज्य को अशांत क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया है।
सिफारिश: समिति ने सिफारिश की कि केंद्र और राज्य सरकार इस मुद्दे पर चर्चा करें और असम में AFSPA की आवश्यकता के संदर्भ में किसी निष्कर्ष पर पहुँचें।
18. सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम विकास (संशोधन) विधेयक
यह विधेयक लघु और मध्यम उद्यम विकास अधिनियम 2006 में संशोधन करता है।
विधेयक के प्रावधान
- इस विधेयक के अंतर्गत सभी MSMEs चाहे वे विनिर्माण के क्षेत्र से जुड़े हों या सेवाएँ प्रदान करते हों, को उनके वार्षिक टर्नओवर के आधार पर वर्गीकृत किया जाएगा, जबकि लघु और मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 के अनुसार,
- विनिर्माण क्षेत्र वाले उद्यमों को संयत्र और मशीनरी में निवेश के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
- सेवाएँ प्रदान करने वाले उद्यमों को उपकरणों में निवेश के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
- केंद्र सरकार एक अधिसूचना के माध्यम से वार्षिक टर्न ओवर की उपरोक्त सीमा में परिवर्तन कर सकती है। अधिकतम टर्नओवर, विधेयक में निर्दिष्ट सीमा से 3 गुना अधिक हो सकता है।
- अधिनियम के तहत केंद्र सरकार सूक्ष्म या ग्रामीण उद्योगों को लघु उद्यम के रूप में वर्गीकृत कर सकती है लेकिन प्रस्तुत विधेयक सूक्ष्म या ग्रामीण उद्योगों को लघु उद्यम के साथ-साथ मध्यम उद्यम के दायरे में वर्गीकृत करने के लिये इस दायरे को बढ़ाने का प्रावधान करता है।
19. मॉब हिंसा तथा लिंचिंग की जाँच के लिये उच्चस्तरीय समिति का गठन
देश में मॉब हिंसा तथा लिंचिंग की घटनाओं की समीक्षा और इनका समाधान करने के लिये एक समिति का गठन किया गया है।
समिति की सदस्यता
समिति की अध्यक्षता केंद्रीय गृह सचिव करेंगे और इसमें निम्नलिखित को सदस्य के रूप में शामिल किया जाएगा-
- सचिव, न्याय विभाग।
- सचिव, विधि कार्य विभाग।
- सचिव, विधायी विभाग।
- सचिव, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता।
समिति को चार सप्ताह के भीतर सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करनी होंगी।
इस अवधि के पश्चात्, समिति की सिफारिशों पर विचार करने के लिये मंत्रियों के एक समूह का गठन किया जाएगा।
मंत्रियों के समूह की सदस्यता
इसकी अध्यक्षता गृह मंत्री करेंगे तथा इसमें निम्नलिखित को सदस्य के रूप में शामिल किया जाएगा-
- विदेश मंत्री।
- सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री, नौवहन मंत्री तथा जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्री।
- विधि एवं न्याय मंत्री।
- सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय।
समूह की सिफारिशें प्रधानमंत्री को सौंपी जाएंगी।