पश्चिमी घाट

चर्चा में क्यों?

नेशनल सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज़ (National Centre for Earth Science Studies- NCESS) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने भारी वर्षा और विनाशकारी बाढ़ की निरीक्षण के बाद बताया कि पश्चिमी घाट के संरक्षण के संधारणीय प्रयास में शिथिलता भविष्य के लिये अत्यंत विनाशकारी हो सकती है।

पश्चिमी घाट: 

  • पश्चिमी घाट ताप्ती नदी से लेकर कन्याकुमारी तक भारत के 6 राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात में फैला है।
  • पश्चिमी घाट,भारत के सबसे ज़्यादा वर्षण क्षेत्रों में से एक है साथ ही यह भारतीय प्रायद्वीप की जलवायु को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित भी करता है। 
  • प्रायद्वीपीय भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम पश्चिमी घाट से ही होता है। इसलिए दक्षिण भारत का संपूर्ण अपवाह तंत्र पश्चिमी घाट से ही नियंत्रित होता है।
  • पश्चिमी घाट से गोदावरी, कृष्णा, कावेरी और पेरियार नदियों का उद्गम होता है जो संपूर्ण दक्षिण भारत की सिंचाई की जीवनरेखा हैं। इन नदियों के जल का उपयोग सिंचाई के साथ ही  विद्युत उत्पादन के लिए भी किया जाता है।
  • पश्चिमी घाट भारतीय जैव विविधता के सबसे समृद्ध हॉटस्पॉट में से एक है, साथ ही यह कई राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों को भी समावेशित करता है। 
  • पश्चिमी घाट में चाय, कहवा, रबर और यूकेलिप्टिस जैसी वाणिज्यिक कृषि की जाती जो अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। 

पश्चिमी घाट से संबंधित मुद्दे: 

  • भूस्खलन (Landslide): 
    • इन क्षेत्रों में भू-संचालन, भूमि उप-विभाजन, पार्श्व प्रसार (दरार) और मिट्टी की कटाई से भूस्खलन का लगातार खतरा बना रहता है। इस प्रकार की स्थितियांँ केरल के त्रिशूर और कन्नूर ज़िलों में विशेष रूप से पाई जाती हैं। 
    • अत्यधिक वर्षा, अवैज्ञानिक कृषि और निर्माण गतिविधियांँ भी भूस्खलन हेतु जिम्मेदार  है।
    • पश्चिमी घाट के अधिकांश ढलानों का उपयोग फसलों को उगाने हेतु किया जाता है  जिससे कृषि के दौरान प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियांँ अवरुद्ध हो जाती हैं। जो भूस्खलन की प्रायिकता को बढ़ाते हैं। 

निगरानी नेटवर्क (Monitoring network):

  • केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने NCESS की सिफारिशों के आधार पर उच्च क्षेत्रों में भूस्खलन मॉनीटरिंग स्टेशनों का एक नेटवर्क स्थापित किया है।
  • ध्वनिक उत्सर्जन तकनीक (Acoustic Emission Technology) के प्रयोग के माध्यम से  स्थानीय समुदाय को भूस्खलन की प्रारंभिक चेतावनी दी जाती है।

जैव विविधता (Biodiversity):

  • इस क्षेत्र की प्रमुख पारिस्थितिकीय समस्याओं में जनसंख्या और उद्योगों का दबाव शामिल है।
  • पश्चिमी घाट में होने वाली पर्यटन गतिविधियों से भी इस क्षेत्र पर और यहाँ की वनस्पति पर दबाव बढ़ा है।
  • नदी घाटी परियोजनाओं के अंतर्गत वन भूमि का डूबना और वन भूमि पर अतिक्रमण भी एक बड़ी समस्या है।
  • पश्चिमी घाट की जैव विविधता के ह्रास का बड़ा कारण खनन है।
  • चाय, कॉफी, रबड़, यूकेलिप्टस की एक फसलीय कृषि व्यवस्था इस क्षेत्र की जैव विविधता को प्रभावित कर रही है।
  • रेल और सड़क जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ भी इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर दबाव डालती हैं।
  • भू-क्षरण और भू-स्खलन जैसे प्राकृतिक तथा मानवीय कारणों से भी पश्चिमी घाट की जैव विविधता प्रभावित हुई है।
  • तापीय ऊर्जा संयंत्रों के प्रदूषण के कारण भी जैव विविधता प्रभावित हो रही है।

बाढ़ (Flood): 

  • पश्चिमी घाट की अधिकांश नदियाँ खड़े ढलानों से उतरकर तीव्र गति से बहती हैं। जिसके कारण वे पुराने बांधों को आसानी से तोड़ देती हैं साथ ही वनों की कटाई के बाद कमज़ोर हुई ज़मीन को आसानी से काट भी देती हैं।
  • पुराने बांधों की समय पर मरम्मत न होना सदैव बाढ़ को आमंत्रित करता है।
  • पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर बनाई गई गाडगिल समिति ने भी बांधों की स्थिति पर चिंता व्यक्त की थी।                                                                

पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर गाडगिल और कस्तूरीरंगन समिति (Gadgil and Kasturirangan Committee) की अनुशंसाएँ:

  • पश्चिमी घाट के संरक्षण को लेकर गाडगिल और कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया गया था।
  • गाडगिल समिति ने पश्चिमी घाट के लिये तीन पर्यावरण संवेदनशील ज़ोन (Ecologically Sensitive Zones- ESZ) का विचार रखा गया था। जिसमें ESZ-1 के क्षेत्र में किसी भी प्रकार की मानवीय गतिविधियों का निषेध किया गया था 
  • इसके विपरीत कस्तूरीरंगन  समिति ने ESZ का श्रेणीगत विभाजन न करते हुए कुल पश्चिमी घाट के 37% क्षेत्र को ESZ घोषित किया 
  • गाडगिल समिति ने जहाँ सभी प्रकार के ऊर्जा संयंत्रों का विरोध किया वहीं कस्तूरीरंगन  समिति ने हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्टों की अनुमति दी।  
  • दोनों समितियों द्वारा बड़े स्तर पर बांधों के निर्माण की मनाही की गई।  
  • इसी प्रकार दोनों समितियों द्वारा संरक्षण हेतु नीतियों के क्रियान्वयन की शुरुआत के लिये  बॉटम टू टॉप दृष्टिकोण की अनुशंसा की गई थी।  
  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत पश्चिमी घाट पारिस्थिकी प्राधिकरण (Western Ghats Ecology Authority- WGEA) की स्थापना की सिफारिश की गई थी

गाडगिल और कस्तूरीरंगन  समिति की आलोचना: 

  • इन सिफारिशों को पर्यावरण हितैषी तो माना गया लेकिन इसमें किसानों, स्थानीय समुदायों को विशेष वरीयता नही दी गई।
  • पश्चिमी घाट को पर्यावरण संवेदनशील ज़ोन घोषित करने संबंधी प्रावधान भी व्यावहारिकता से दूर ही प्रतीत हुए।
  • ऊर्जा सुरक्षा, विकास, राजस्व जैसे मुद्दों को भी दरकिनार कर दिया गया था।

आगे की राह: 

  • पर्यावरण संवेदनशील ज़ोन (Ecologically Sensitive Zones- ESZ) की व्यवस्था को लागू करने से पहले पश्चिमी घाट का विस्तृत अध्ययन कराया जाना चाहिये। विस्तृत अध्ययन के बाद संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करके उन क्षेत्रों को ESZ घोषित किया जाए
  • बहुफसलीय व्यवस्था पर ज़ोर दिया जाए साथ ही किसानों के बीच इसके प्रभाव और फायदों संबंधी जागरूकता का भी प्रसार किया जाए 
  • भू-संचलन गतिविधियों का अध्ययन करके संवेदनशील क्षेत्रों में बांधों का निर्माण न होने दिया जाए
  • कृषि और वनों के अतिरिक्त  आजीविका हेतु जैसे मत्स्यन, समुद्री कृषि जैसे विकल्पों को अपनाने के प्रयास किये जाएँ
  • तापीय ऊर्जा के अतिरिक्त सागरीय, पवन और जलीय ऊर्जा के निर्माण एवं प्रयोग पर ज़ोर दिया जाएँ
  • पर्यावरण संवेदनशील ज़ोन में जनसंख्या के प्रसार पर रोक लगाई जाए साथ ही शहरी नियोजन में नवीन वैज्ञानिक और प्रासंगिक विधियों का प्रयोग किया जाए

स्रोत: द हिंदू एवं लाइवमिंट