‘विषाक्त होती कृषि’ को कीटनाशकों के विनियमन की आवश्यकता
संदर्भ
हाल ही में महाराष्ट्र के यवतमाल की कपास भूमि में कीटनाशकों के विषाक्त प्रभाव के कारण हुई किसानों की मृत्यु संबंधी रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ है कि विषाक्त रसायनों के उपयोग के विनियमन हेतु सरकार द्वारा वृहद् स्तर पर किये गए प्रयास विफल रहे हैं| दरअसल, इस प्रकार की घटनाओं को देखते हुए वर्ष 1968 के कीटनाशक अधिनियम में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा रही है|
प्रमुख बिंदु
- उल्लेखनीय है कि कपास उत्पादक अपनी फसल को कीड़ों के प्रभाव से बचाने के लिये बड़ी मात्र में कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं|
- इस प्रकार किसान कीटनाशकों में मिलाए गए विषाक्त रसायनों के प्रभाव में आ जाते हैं, जिसके कारण प्रायः उनकी मृत्यु हो जाती है|
- यह तथ्य कि किसान कीटनाशकों के लिये ‘कृषि विस्तार अधिकारियों (agricultural extension officers) की तुलना में प्रायः बेइमान एजेंटों और वाणिज्यिक दुकानों की सलाह पर विश्वास करते हैं, कृषि के प्रति सरकार के गैर-जिम्मेदराना रवैये को दर्शाता है|
- हालाँकि, इस समस्या की जड़ें काफी गहरी हैं| भारत में कीटनाशकों के नियमन की प्रणाली काफी पुरानी है| अतः विगत वर्षों में पिछली सरकारों द्वारा किये गए बेहतरीन प्रयास भी इस दिशा में उपयोगी सिद्ध नहीं हुए थे|
- वर्ष 2008 में एक नया ‘कीटनाशक प्रबंधन विधेयक’(Pesticides Management Bill) लाया गया था, जिसे उस समय तो संसदीय स्थायी समिति द्वारा संज्ञान में ले लिया गया था परन्तु यह अभी तक लंबित ही पड़ा हुआ है|
- हालाँकि इसी दौरान इस बात के भी चिंताजनक प्रमाण मिले थे कि आज किसानों को बेचे जा रहे अधिकांश कीटनाशक नकली हैं और इन नकली कीटनाशकों की बदौलत वास्तविक उत्पाद की तुलना उत्पादन में उच्च वृद्धि दर प्राप्त की जा रही है|
कीटनाशकों के प्रभाव
- भारत से निर्यात होने वाले कृषि उत्पादों (जिनमें फल और सब्जियाँ शामिल हैं) को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसलिये भी उच्च आयात शुल्क का सामान करना पड़ता है, क्योंकि वे सुरक्षा संबंधी मानकों पर खरा नहीं उतरते हैं|
- हाल ही में महाराष्ट्र में हुई मौतों के फलस्वरूप महाराष्ट्र के अधिकारियों ने कीटनाशक उपयोग की वृद्धि और इसके हानिकारक प्रभाव की व्याख्या करने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित कपास की कुछ संकर किस्मों में कीटों के कारण हुए नुकसान की ओर संकेत किया है|
क्या है आवश्यकता?
- स्पष्ट है कि आज देश में उपयोग किये जाने वाले कीटनाशकों तथा विनियामक व्यवस्था की विफलता के संदर्भ में एक उच्च स्तरीय जाँच समिति का गठन करने की आवश्यकता है|
- यह उच्च स्तरीय जाँच समिति वर्ष 2003 की संयुक्त संसदीय समिति के समान होनी चाहिये, जिसने पेय पदार्थों में हानिकारक रासायनिक अवक्षेपों का पता लगाया था तथा इनकी प्रभावी सीमा (tolerance limits) का निर्धारण करने की सिफारिश की थी| प्रभावी सीमा से तात्पर्य कीटनाशकों की उस मात्रा से है जिस मात्रा तक इन हानिकारक रासायनिक अवक्षेपों का मनुष्य पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े|
- कीटनाशकों के उपयोग करने हेतु सलाह देने के लिए एक ‘केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड’ का गठन किया जान चाहिये ताकि यह बोर्ड विषाक्त रसायनों के पंजीकरणों और वितरण और बिक्री का दृढ़तापूर्वक निरिक्षण करे| अतः वर्ष 1968 के कीटनाशक अधिनियम को अद्यतन रूप प्रदान करने में देरी नहीं की जानी चाहिये|
- एक कठोर और सख्त कानून वर्तमान नियमों में विद्यमान विसंगतियों को दूर कर सकता है| और यदि इस तरह की घटनाएँ देखने को मिलेंगी तो इसके लिये नये कानून में दंड का प्रावधान भी होना चाहिये| नए कीटनाशक विनियामक ढाँचे को खाद्य सुरक्षा नियमों और स्वास्थ्य देखभाल में उपयोग किये जाने वाले उत्पादों के साथ संरेखित कर इसे व्यापक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है|
निष्कर्ष
यह एक विडम्बना ही है कि केंद्र सरकार अपनी विस्तृत संचार अवसंरचनाओं जैसे-डी.डी किसान, दूरदर्शन से द सॅटॅलाइट टेलीविज़न चैनल जो व्यथित किसानों को संबोधित करने हेतु कृषि को ही समर्पित है, का उपयोग करने में विफल रही है | एक दूरदर्शी कृषि नीति विषाक्त रसायनों के उपयोग को न्यून करने में अहम योगदान कर सकती है| इसके अतिरिक्त उन स्थानों पर कार्बनिक विधियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये जहाँ पर वे प्रभावी हों| स्पष्ट है कि इससे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को ही लाभ पहुँचेगा|