कैसे तेज़ हो आर्थिक विकास की धार?

सन्दर्भ

हाल ही पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए हैं, ईवीएम का भूत भी अब उतरने वाला है ऐसे में हमारे नीति निर्माताओं को चाहिये कि वे अपना सारा ध्यान अब आर्थिक विकास के रास्ते में पड़े कंकड़-पत्थरों को साफ करने में लगाएँ। ज़ाहिर है इस वर्ष के राष्ट्रीय आय के आँकड़ों ने कुछ उम्मीद जगाई है लेकिन यदि विमुद्रीकरण के आलोक में वर्ष 2016-17 के वृद्धि दर का अनुमान किया जाए तो आराम से इसमें 0.5 प्रतिशत की गिरावट देखी जा सकती है, वहीं वर्ष 2015-16 के वृद्धि दर के पूर्वानुमानों से इस वर्ष के पूर्वानुमानों की तुलना करें तो जहाँ पहले यह 7.9 प्रतिशत था वहीं इस बार यह 7.1 प्रतिशत ही है। वृद्धि दर में गिरावट की यह प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है। दरअसल, वर्ष 2012-13 के दौर में ही वैश्विक मंदी और राजकोषीय घाटे ने विकास दर का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था, लेकिन अब जब कहा जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है तो भारत की प्रगति के आकलन का यह उपयुक्त समय है।

कैसे निर्धारित होता है वृद्धि दर?

वृद्धि दर का निर्धारण दो कारकों के आधार पर किया जाता है एक है ‘पूंजी के उपयोग की दक्षता और दूसरा  निवेश की दर अर्थात किसी देश की वृद्धि दर उसकी पूँजी उपयोग की दक्षता और देश में होने वाले निवेश की दर पर निर्भर करता है। हेरोड-डोमर समीकरण के अनुसार वृद्धि दर वह है जो किसी देश में होने वाले निवेश की दर और वृद्धिशील पूँजी-उत्पादन अनुपात(incremental capital-output ratio-iCOR) के विभाजन का प्रतिफल होता है। उत्पादन की एक इकाई के निर्माण करने के लिये आवश्यक पूंजी की राशि को वृद्धिशील पूँजी-उत्पादन अनुपात यानी आईसीओआर कहते हैं। आईसीओआर का अधिक होना इस बात का सूचक है कि पूँजी उपयोग की हमारी दक्षता कम है। वहीं कम आईसीओआर यह दिखाता है कि हम पूँजी के उपयोग में दक्ष हैं।

वृद्धि दर में वृद्धि का मार्ग रोकती समस्याएँ

यदि विगत पाँच वर्षों में भारत के वृद्धि दर के माहौल का अवलोकन करें तो दो बातें निकलकर सामने आती हैं- पहली यह कि भारत में निवेश की दर में लगातार कमी देखी जा रही है और दूसरी यह कि आईसीओआर लगातार बढ़ता जा रहा है। इन दोनों ही परिस्थितियों में वृद्धि दर नीचे की ओर ही जाएगा। वस्तुतः आईसीओआर एक समग्र अवधारणा है जिसमें कई बातें निहित हैं जैसे, तकनीक की उपलब्धता और गुणवत्ता, कार्यबल की उपलब्धता और गुणवत्ता और प्रबन्धन की क्षमता आदि। अतः परियोजनाओं के कार्यान्वयन में  होने वाली  देरी और संबंधित क्षेत्रों में अपेक्षित निवेश नहीं होने से आईसीओआर में लगातार वृद्धि हो रही है जो कि चिंता का विषय है।

जहाँ तक निवेश दर का प्रश्न है यहाँ भी भारत के लिये चिंताजनक परिस्थितियाँ बनी हुई हैं। विदित हो कि भारत का निवेश दर वर्ष 2007-08 में जीडीपी का 38.0 प्रतिशत यानी अपने उच्चतम स्तर पर था, लेकिन उसके बाद निवेश दर में जो गिरावट दिखनी आरम्भ हुई वह अभी तक बनी हुई है। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-17 में निवेश दर 26 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। इन परिस्थितियों में भारत के लिये 8 से 9 प्रतिशत का विकास दर हासिल कर पाना नामुमकिन सा है।

क्या हो आगे का रास्ता?

भारत में वृद्धि दर में गिरावट की प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी जब समूचा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, हालाँकि वैश्विक आर्थिक मंदी का भारत में कम ही प्रभाव देखने को मिल रहा था, लेकिन हमारे देश के अन्दर की परिस्थितियों ने हमसे सम्भलने का मौका भी छीन लिया। क्योंकि वर्ष 2012 के आसपास जब हमें आर्थिक मोर्चे पर सुधार के लिये सख्त कदम उठाने थे तब गठबंधन सरकार की मजबूरियों ने विकास पथ पर भारत के बढ़ते क़दमों को जकड़ रखा था। लेकिन अब हमारे यहाँ वैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं। इसलिये सरकार को बिना देरी किये आर्थिक सुधारों को गति देनी होगी।

जब निवेश दर कम हो और आईसीओआर में लगातार वृद्धि हो रही हो तो मानक उपाय तो यही है कि सरकार सार्वजनिक निवेश के माध्यम से निवेश दर में बढ़ोतरी करने का प्रयास करे, और सरकार को इस मानक उपाय पर ही ध्यान केन्द्रित करना होगा।ऐसे में कुछ लोगों का तर्क यह हो सकता है कि सरकार के खर्चे में कटौती से राजकोषीय घाटा नियंत्रण में रहेगा, ऐसे में सरकार को अपने खजाने से ज़्यादा निवेश नहीं करना चाहिये। हालाँकि ऐसी तमाम चिंताएँ निर्मूल हैं क्योंकि पिछले दो सालों में केंद्र सरकार का पूंजी व्यय जीडीपी का केवल 1.8% ही रहा। जबकि अभीष्ट परिणाम हेतु यह व्यय 8 प्रतिशत तक रखा जा सकता है। केवल केंद्र सरकार ही अकेले इस बोझ को न उठाए इसके लिये होना यह चाहिये कि सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 से 4% सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के माध्यम से निवेश किया जाए और शेष राज्य सरकारों द्वारा संचालित उपक्रमों के माध्यम से।

कहते हैं संतुलन हर जगह बना रहना चाहिये और यह बात निवेश क्षेत्र पर भी लागू होती है, सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा निवेश को बढ़ावा देना जहाँ एक मानक प्रक्रिया है वहीं निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले निवेश को एक सामान्य स्तर तक बनाए रखना भी अत्यंत आवश्यक है। गौरतलब है कि वर्ष 2009 में निजी क्षेत्र द्वारा होने वाला निवेश की कुल लागत 5,560 बिलियन रुपए था वहीं वर्ष 2015 में यह गिरकर 954 बिलियन रुपए के स्तर पर पहुँच गया। इसका बड़ा कारण यह है कि हम अभी भी बेहतर निवेश के वातावरण का निर्माण करने में असफल रहे हैं। अतः प्रक्रियाओं को सरल करने के प्रयास होने चाहिये, सभी रुकी हुई परियोजनाओं को अविलम्ब पूरा किया जाना चाहिये और वित्तीय बाधाओं को दूर करने के प्रयास होने चाहियें।

निष्कर्ष

भारत आने वाले दिनों में विश्व पटल पर एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरे, इसके लिये उपरोक्त सुधारों को अमल में लाना ही होगा, वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों की रजत जयंती मना चुके भारत को अब नए सुधारों को अंगीकृत करना है। लेकिन स्मरण रहे कि 1991 में आर्थिक सुधार जहाँ संकट चालित थे, वहीं उसके बाद के सुधार सहमति आधारित रहे हैं, इसलिये सुधारों के प्रति आम स्वीकृति व आम विश्वास सुनिश्चित करना भी आवश्यक है, जिनकी लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष व विविधतापूर्ण समाज में अपेक्षा की जाती है । सम्भवत: भारत में अभी तक आर्थिक सुधारों की विफलता या कम सफलता का एक प्रमुख कारण यह माना जा सकता है कि ये जन आन्दोलन का रूप नहीं ले पाया है। भारत में कुछ वैसा ही किये जाने की आवश्यकता है जैसा कि परमाणु हमले में तबाह होने के बाद जापान ने किया था। आर्थिक सुधारों को समग्र सुधारों के तौर अपनाकर ही हम भारत को कल का नेतृत्वकर्ता बना सकते हैं।