गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष
प्रिलिम्स के लियेभारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, गुप्त साम्राज्य, शंखलिपि लिपि, कुमारगुप्त प्रथम मेन्स के लियेगुप्त साम्राज्य और भारतीय जीवनशैली के विभिन्न पहलुओं पर इसका प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के बिलसर गाँव में गुप्तकाल (5वीं शताब्दी) के एक प्राचीन मंदिर के अवशेषों की खोज की।
- वर्ष 1928 में ASI द्वारा बिलसहर को 'संरक्षित स्थल' घोषित किया गया था।
प्रमुख बिंदु
- स्तंभों के बारे में:
- खुदाई से प्राप्त दो स्तंभों पर गुप्त वंश के शक्तिशाली शासक कुमारगुप्त प्रथम के बारे में 5वीं शताब्दी ईस्वी की 'शंख लिपि' (शंख लिपि या शंख लिपि) में एक शिलालेख है।
- सर्वप्रथम गुप्तों ने संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण किया, जो प्राचीन रॉक-कट मंदिरों से अलग थे।
- शिलालेख को महेंद्रादित्य से संबंधित समझा गया था जो राजा कुमारगुप्त प्रथम की उपाधि थी, जिन्होंने अपने शासन के दौरान अश्वमेध यज्ञ भी किया था।
- इसी तरह के शिलालेख वाले अश्व मूर्ति लखनऊ के राजकीय संग्रहालय में है।
- अश्वमेध यज्ञ वैदिक धर्म की श्रौत परंपरा के बाद एक अश्व की बलि का अनुष्ठान है।
- यह खोज इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अभी तक केवल दो गुप्तकालीन संरचनात्मक मंदिर पाए गए हैं - दशावतार मंदिर (देवगढ़) और भितरगांव मंदिर (कानपुर देहात)।
- खुदाई से प्राप्त दो स्तंभों पर गुप्त वंश के शक्तिशाली शासक कुमारगुप्त प्रथम के बारे में 5वीं शताब्दी ईस्वी की 'शंख लिपि' (शंख लिपि या शंख लिपि) में एक शिलालेख है।
- शंखलिपि लिपि:
- इसे "शेल-स्क्रिप्ट" भी कहा जाता है, जो उत्तर-मध्य भारत में शिलालेखों में पाई जाती है और 4वीं एवं 8वीं शताब्दी की बीच की कालावधि से संबंधित है।
- शंखलिपि और ब्राह्मी दोनों ही शैलीबद्ध लिपियाँ हैं जिनका उपयोग मुख्य रूप से नाम तथा हस्ताक्षर के लिये किया जाता है।
- शिलालेखों में वर्णों की एक छोटी संख्या होती है, जो यह प्रदर्शित करती है कि शैल शिलालेख नाम या शुभ प्रतीक या दोनों का संयोजन है।
- इसकी खोज वर्ष 1836 में अंग्रेजी विद्वान जेम्स प्रिंसेप ने उत्तराखंड के बाराहाट में पीतल के त्रिशूल पर की थी।
- शैल शिलालेखों के साथ प्रमुख स्थल: मुंडेश्वरी मंदिर (बिहार), उदयगिरि गुफाएँ (मध्य प्रदेश), मानसर (महाराष्ट्र) और गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ गुफा स्थल।
- इस तरह के शिलालेख इंडोनेशिया के जावा और बोर्नियो में भी पाए गए हैं।
- इसे "शेल-स्क्रिप्ट" भी कहा जाता है, जो उत्तर-मध्य भारत में शिलालेखों में पाई जाती है और 4वीं एवं 8वीं शताब्दी की बीच की कालावधि से संबंधित है।
- कुमारगुप्त प्रथम:
- कुमारगुप्त प्रथम चंद्रगुप्त-द्वितीय के उत्तराधिकारी थे और उनका शासनकाल 414 से 455 ईस्वी के मध्य था।
- उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया जिसकी पुष्टि अश्वमेध सिक्कों से हुई। उनके 1395 सिक्कों की खोज से दक्षिण की ओर उनके विस्तार की पुष्टि होती है।
- उनकी अवधि को गुप्तों के स्वर्ण युग का हिस्सा माना जाता है।
- पाँचवीं शताब्दी ई. के मध्य में कुमारगुप्त-प्रथम का शासन पुष्यमित्र के विद्रोह और हूणों के आक्रमण से अस्त-व्यस्त हो गया था।
- पुष्यमित्र के विरुद्ध सफल प्राप्त करना कुमारगुप्त प्रथम की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
- कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद स्कंदगुप्त 455 ईस्वी में शासक बना और उसने 455 से 467 ईस्वी तक शासन किया।
गुप्त साम्राज्य
- परिचय
- गुप्त साम्राज्य 320 और 550 ईसवीं के बीच उत्तरी, मध्य और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था।
- यह अवधि कला, वास्तुकला, विज्ञान, धर्म एवं दर्शन में अपनी उपलब्धियों के लिये जानी जाती है।
- चंद्रगुप्त प्रथम (320 - 335 ईसवीं) ने गुप्त साम्राज्य का तेज़ी से विस्तार किया और जल्द ही साम्राज्य के पहले संप्रभु शासक के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया।
- इसी के साथ ही प्रांतीय शक्तियों के 500 सौ वर्षों के प्रभुत्त्व का अंत हो गया और परिणामस्वरूप मौर्यों के पतन के साथ शुरू हुई अशांति भी समाप्त हो गई।
- इसके परिणामस्वरूप समग्र समृद्धि एवं विकास की अवधि की शुरुआत हुई, जो आगामी ढाई शताब्दियों तक जारी रही जिसे भारत के इतिहास में एक स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता है।
- शासन
- गुप्त साम्राज्य की ‘मार्शल’ प्रणाली की दक्षता सर्वविदित थी। इसमें बड़े राज्य को छोटे प्रदेशों (प्रांतों) में विभाजित किया गया था।
- व्यापार
- सोने और चाँदी के सिक्के बड़ी संख्या में जारी किये गए जो स्वस्थ्य अर्थव्यवस्था का संकेतक है।
- व्यापार और वाणिज्य देश के भीतर और बाहर दोनों जगह विकास हुआ। रेशम, कपास, मसाले, औषधि, अमूल्य रत्न, मोती, कीमती धातु और स्टील का निर्यात समुद्र द्वारा किया जाता था।
- धर्म
- गुप्त सम्राट स्वयं वैष्णव (विष्णु के रूप में सर्वोच्च निर्माता की पूजा करने वाले हिंदू) थे, फिर भी उन्होंने बौद्ध एवं जैन धर्म के अनुयायियों के प्रति सहिष्णु का प्रदर्शन किया।
- साहित्य
- इसी काल के दौरान कवि और नाटककार कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम, मालविकाग्निमित्रम, रघुवंश और कुमारसम्भम जैसे महाकाव्यों की रचना की। हरिषेण ने ‘इलाहाबाद प्रशस्ति’ की रचना की, शूद्रक ने मृच्छकटिका की, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस की रचना की और विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की रचना की।
- वराहमिहिर द्वारा बृहतसंहिता लिखी गई और खगोल विज्ञान एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भी योगदान दिया। प्रतिभाशाली गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धांत लिखा जिसमें ज्यामिति, त्रिकोणमिति और ब्रह्मांड विज्ञान के कई पहलुओं को शामिल किया गया। शंकु द्वारा भूगोल के क्षेत्र में कई में ग्रंथों की रचना की गई।
- वास्तुकला
- उस काल की चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्य कला के बेहतरीन उदाहरण अजंता, एलोरा, सारनाथ, मथुरा, अनुराधापुरा और सिगिरिया में देखे जा सकते हैं।