मूल्यों के निर्माण में परिवार व समाज

मूल्य परिभाषा

ये मूल्य ऐसे आदर्श या मानक होते हैं जो किसी समाज या संगठन या फिर व्यक्ति के लिये दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करते हैं।

विशेषताएँ:

  • मूल्य, व्यक्ति के व्यवहार या नैतिक आचार संहिता का महत्त्वपूर्ण घटक हैं। मूल्य की व्याख्या विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने अनुसार होती है। मूल्यों का अर्थ सबसे गहरे आदर्शों से होता है।
  • वस्तुत: अर्थव्यवस्था में जिसकी जितनी मांग है उसका उतना मूल्य है, नीतिशास्त्र में जो अनुचित है वह मूल्यहीन है और सौन्दर्यशास्त्र में जो सुन्दर है वह मूल्यवान है।
  • उदाहरणस्वरूप शांति, न्याय, सहिष्णुता, आनंद, ईमानदारी, समयबद्धता, अनुशासन, बड़ों का सम्मान करना आदि प्रसिद्ध मूल्य है।
  • मूल्य सामाजिक जीवन को संभव व श्रेष्ठ बनाने के लिये आवश्यक हैं।
  • विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से विकसित ये मूल्य हमारे मन में गहराई तक बैठे होते हैं।
  • मूल्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं तथा नागरिकों का चरित्र राष्ट्र के चरित्र का निर्माण करता है। 

सूचना निर्माण में परिवार:

  • मूल्यों के निर्माण में परिवार पहली सीढ़ी होती है जिस पर चढ़कर मानवीयता के लक्ष्य को प्राप्त करना आसान होता है।
    • परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। यह वह संस्था है जहाँ से निकलकर मानव नागरिक बनता है तथा समाज का निर्माण करता है। ध्यातव्य है कि कई समाज मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
  • नागरिकों के मूल्य, स्वभाव, विचार आचरण, व्यवहार से मिलकर राष्ट्र के चरित्र का निर्माण होता है।
  • जन्म के समय बच्चा न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक। बच्चे की प्रथम पाठशाला माता-पिता एवं परिवार होता है। बच्चे का नैतिक व अनैतिक होना प्रथमत: परवरिश के तौर-तरीकों एवं पारिवारिक परिवेश पर निर्भर करता है।
  • परिवार कब, कैसे, कितना और किस प्रकार? के मूल्यों को देना चाहता है।
  • 6 वर्ष तक की आयु ऐसा पड़ाव होता है जब बालक दूसरों के आचरण से सबसे अधिक प्रभावित होता है। इसीलिये प्राथमिक स्तर पर मूल्य इसी उम्र में निर्धारित होते हैं।
  • अर्थात् बच्चे के प्राथमिक मूल्यों का विकास परिवार से ही होता है यथा अच्छे-बुरे, सही-गलत का ज्ञान, सामाजिक-रीतिरिवाज, परंपरा, धर्म, राष्ट्रीयता, दया, करुणा, अनुशासन आदि। व्यावहारिक एवं चारित्रिक मूल्यों का बोध परिवार से ही होता है।
  • 6 वर्ष की आयु के बाद भी मूल्यों का विकास होता है, परंतु प्रभाव का स्तर धीरे-धीरे कम हो जाता है।
  • प्रशिक्षण, प्रोत्साहन, निंदा व दंड कुछ ऐसे उपकरण हैं; जिनसे ये मूल्य विकसित किये जा सकते हैं। इसका भी प्रभाव पड़ता है कि परिवार एकल है या संयुक्त।
  • ऐसा संभव है कि एकल परिवार से वैयक्तिक होने का मूल्य प्राप्त हो और संयुक्त परिवार से साथ रहने का।
  • परिवार का शैक्षणिक व आर्थिक स्तर भी मूल्यों की पृष्ठभूमि तय करने में सहायक होते हैं।

मूल्य निर्माण में समाज:

  • समान आचार-विचार, व्यवहार, मान्यताओं, रीति-रिवाजों वाले लोग मिलकर समाज का निर्माण करते हैं।
  • व्यक्तियों के सामाजिक-साहचर्य वाले समूह को समाज कहा जा सकता है।
  • परिवार के बाद व्यक्ति के मूल्य निर्माण में समाज की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • सामाजिक परिवेश में रहकर नैतिक मूल्यों में परिपक्वता आती है।
  • वैसे तो समाज की वास्तविक भूमिका विद्यालय जाने के साथ प्रारंभ होती है, परंतु उससे पूर्व 6 वर्ष तक समाज व परिवार मूल्य विकास में बराबर की भागीदारी निभाते हैं।
  • आरंभ में मूल्यों का विकास कम होता है, किंतु ज्यों-ज्यों संपर्क बढ़ता है, मूल्यों का विकास भी उत्तरोत्तर होता जाता है।
  • मीडिया, सामाजिक समूहों से वार्तालाप, सह-शिक्षा विद्यालय आदि में समाज के नैतिक मापदंड, सामाजिक गतिशीलता, परिवर्तन जैसे विचारों का प्रभाव पड़ता है।
  • विभिन्न धर्मों, जातियों व क्षेत्रों के लोगों के साथ संपर्क से धैर्य, सहिष्णुता जैसे मूल्यों को विकसित करना आसान होता है।
  • सामाजिक जीवन में हो रहे तीव्र परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिये तथा नवीन एवं प्राचीन के मध्य स्वस्थ संबंध बनाने में नैतिक मूल्य सेतु का कार्य करते हैं।
  • किसी संगठन या व्यवसाय के लिये निर्धारित किये गए नैतिक मूल्यों पर वहाँ के सामाजिक परिवेश का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है।

निष्कर्षतः परिवार एवं समाज दोनों मूल्यों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।