देश-देशांतर: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33(7) को चुनौती; एक उम्मीदवार-एक सीट
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
चुनाव का अधिकार ही वह अधिकार है, जो लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर करता है। भारतीय चुनाव व्यवस्था में किसी एक प्रत्याशी को कई सीटों से चुनाव लड़ने की छूट है, लेकिन अब चुनाव आयोग इस प्रकार की व्यवस्था को खत्म करने का मन बना चुका है।
हाल ही में किसी भी प्रत्याशी के एक से अधिक सीट से चुनाव लड़ने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर अपना पक्ष रखते हुए चुनाव आयोग ने 'एक उम्मीदवार-एक सीट' पर चुनाव लड़ने का समर्थन किया।
मामला क्या है?
- इस मामले में याचिकाकर्त्ता (भाजपा नेता और वकील अश्वनी उपाध्याय) ने जनहित याचिका दाखिल कर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33(7) को चुनौती देते हुए अपील की है कि संसद या विधानसभा सहित सभी स्तरों पर प्रत्याशी केवल एक ही सीट से चुनाव लड़े।
- धारा 33(7) में यह व्यवस्था की गई है कि कोई व्यक्ति दो सीटों से आम चुनाव अथवा कई उपचुनाव अथवा द्विवार्षिक चुनाव लड़ सकता है।
- मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, ए.एम. खानविलकर और डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने इस मामले में भारत के अटार्नी जनरल को अपनी राय देने का निर्देश दिया है।
क्या है चुनाव आयोग का रुख?
- 1996 से पूर्व कोई प्रत्याशी कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था।
- वर्तमान में कोई भी प्रत्याशी लोकसभा तथा विधानसभा के लिये दो सीटों से चुनाव लड़ सकता है और दोनों जगह से जीतने पर एक सीट उसे छोड़नी पड़ती है।
- चुनाव आयोग ने स्वीकार किया कि जब एक प्रत्याशी दो सीट पर चुनाव लड़ता है, तो वह दूसरी सीट से इस्तीफा दे देता है, जिसके कारण वहाँ पर दोबारा चुनाव होता है और खर्चा बढ़ता है।
- इससे पहले चुनाव सुधार की प्रक्रिया में चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को अपनी सिफारिश में कहा था कि एक प्रत्याशी को दो सीटों से चुनाव लड़ने की छूट नहीं होनी चाहिये। एक उम्मीदवार के दो सीटों से चुनाव लड़ने का प्रावधान समाप्त किया जाए।
- चुनाव आयोग ने कहा कि यदि सरकार इस प्रावधान को बनाए ही रखना चाहती है तो उपचुनाव का खर्च उठाने की ज़िम्मेदारी सीट छोड़ने वाले प्रत्याशी पर डाली जाए।
- विधानसभा व विधान परिषद के उपचुनाव के मामले में राशि 5 लाख रुपए और लोकसभा उपचुनाव में राशि 10 लाख रुपए होनी चाहिये। सरकार इसे समय-समय पर बढ़ा सकती है।
- दो सीटों पर चुनाव लड़ने से संसाधन की बर्बादी होती है क्योंकि 6 महीने के अंदर एक सीट खाली करनी ही होती है।
चुनाव कौन लड़ सकता है?
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84(क) में यह परिकल्पित है कि कोई व्यक्ति संसद में सीट को भरने के लिये चुने जाने हेतु तब तक पात्र नहीं होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो। संविधान के अनुच्छेद 173(क) में राज्य विधानसभाओं के लिये इसी प्रकार का प्रावधान है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84(ख) में यह प्रावधान है कि लोकसभा निर्वाचन हेतु अभ्यर्थी होने के लिये न्यूनतम आयु 25 वर्ष होगी। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 36(2) के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 173(ख) के द्वारा विधानसभाओं के अभ्यर्थी होने के लिये यही प्रावधान है।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 4(घ) व्यक्ति को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करती है जब तक कि वह किसी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में एक निर्वाचक न हो।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 5(ग) में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिये यही प्रावधान है।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 4(C), 4(CC) तथा 4(CCC) के अनुसार असम, लक्षद्वीप तथा सिक्किम को छोड़कर कोई भी मतदाता देश में किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(3) के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध का दोषी है तथा उसे 2 वर्ष या इससे अधिक की सज़ा दी गई है, तो वह चुनाव लड़ने के लिये अपात्र होगा।
- यद्यपि कोई व्यक्ति दोष सिद्धहोने के पश्चात् जमानत पर है, तथा उसकी अपील निपटान के लिये लंबित है, तो उसे भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किये गए दिशा-निर्देशों के अनुसार चुनाव लड़ने से निरर्हित किया जाता है।
- जन प्रतिनिधित्व, अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) के अनुसार, जेल में बंद कोई भी व्यक्ति निर्वाचन में मत नहीं डालेगा, चाहे वह कारावास की सज़ा के अधीन हो या देश निकाला हो या पुलिस की कानूनी हिरासत में हो।
चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की रिपोर्ट
अपनी इस रिपोर्ट में विधि आयोग ने जिन चुनाव सुधारों के बारे में विचार किया, उनमें चुनाव का सरकार की ओर से वित्त-पोषण, राजनीति में साम्प्रदायिकता, नकारात्मक मतदान, उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड के विषय शामिल थे। (टीम दृष्टि इनपुट) |
टी.एस. कृष्णमूर्ति ने भी सुझाए थे चुनाव सुधार के उपाय
फरवरी 2004 से मई 2005 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एस. कृष्णमूर्ति ने चुनाव सुधारों के तहत चुनावों में सरकारी धन के इस्तेमाल का समर्थन करते हुए राजनीतिक दलों के धन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी।
- उन्होंने अपनी सिफारिशों में राष्ट्रीय चुनाव कोष गठित करने का सुझाव भी दिया था, जिसके तहत कंपनियां और अन्य लोग अपना योगदान दे सकें और यह 100% करमुक्त हो।
- सर्वदलीय बैठक के ज़रिये तय किया जा सकता है कि विभिन्न चुनावों के लिये इस धन का इस्तेमाल कैसे किया जाए।
- चुनावों के सरकारी वित्त-पोषण के बाद किसी भी दल को चुनाव में धन खर्च करने की अनुमति नहीं होनी चाहिये।
- इसके बाद भी यदि राजनीतिक दल धन का भुगतान करते हैं तो 10 साल की कैद और उम्मीदवार को अयोग्य करार देने का प्रावधान हो।
- राजनीतिक दलों के लिये एक पृथक कानून होना चाहिये, जिसके तहत नियमन की रूपरेखा बने और इसके ज़रिये उनकी समीक्षा एवं निगरानी हो सके। इसमें उनके आंतरिक चुनावों और वित्तीय प्रबंधन की समीक्षा तथा निगरानी भी शामिल है।
- अगर कोई अदालत (पुलिस नहीं) पाँच साल या इससे ज्यादा की सज़ा वाले अपराध के संदर्भ में आरोप-पत्र तय कर देती है तो ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दे दिया जाना चाहिये। गलत उम्मीदवार इसलिये चुनावी दौड़ में आ जाते हैं, क्योंकि धनबल और बाहुबल चुनावों में अहम भूमिका निभाते हैं।
- सदन के कार्यकाल का 50 प्रतिशत पूरा हो जाने के बाद प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान भी किया जा सकता है। यदि सदन का कार्यकाल पाँच साल का है तो किसी व्यक्ति को ढाई साल शांति से काम करने की अनुमति होनी चाहिये।
- यदि किसी व्यक्ति पर हत्या, बलात्कार या भ्रष्टाचार का आरोप है तो उसे वापस बुलाने का अधिकार लोगों के पास होना चाहिये। हालाँकि वापस बुला लेना कोई हल नहीं हो सकता, लेकिन प्रतिरोधक हो सकता है। ऐसा करने से बेहतर बर्ताव के लिये निर्वाचित प्रतिनिधियों की कुछ तो ज़िम्मेदारी तय होगी।
चुनाव सुधारों पर गठित विभिन्न समितियों की प्रमुख सिफारिशें तारकुंडे समिति
दिनेश गोस्वामी समिति
इंद्रजीत गुप्त समिति
के. संथानम समिति
(टीम दृष्टि इनपुट) |
गौरतलब है कि कई बड़े दिग्गज नेता एक बार में दो जगह से चुनाव लड़ते हैं। जैसे-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव में वाराणसी और वडोदरा से चुनाव लड़ा था। उन्होंने दोनों जगहों से जीत दर्ज की थी, लेकिन वाराणसी सीट को अपने पास रखा था। इसके अलावा पूर्व में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित कई बड़े नेता दो जगहों से चुनाव लड़ चुके हैं। प्रायः देखा यही गया है कि विशेषकर वही नेता दो सीटों पर चुनाव लड़ते हैं, जो मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री जैसे बड़े पद के दावेदार होते हैं।
चुनाव सुधारों में न्यायपालिका का योगदान
(टीम दृष्टि इनपुट) |
निष्कर्ष: भारत ने संसदीय प्रणाली की सरकार की ब्रिटिश वेस्टमिन्सटर प्रणाली अपनाई है। हमारे जन प्रतिनिधित्व कानून में यह अधिकार दिया गया है कि कोई व्यक्ति लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव या फिर उपचुनाव में एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ सकता है। 1996 से पहले दो से अधिक स्थानों पर चुनाव उम्मीदवारी की छूट थी और कोई व्यक्ति कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से 1996 में जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अधिकतम दो सीटों से चुनाव लड़ने का नियम बनाया गया। मगर इससे भी निर्वाचन आयोग को छोड़ी गई सीटों पर दुबारा चुनाव कराने के लिये बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार दोबारा वही प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है, फिर से पैसे खर्च करने पड़ते हैं। प्रशासन को नाहक अपना तय कामकाज रोक कर चुनाव प्रक्रिया में भाग−दौड़ करनी पड़ती है। आम जनता भी इससे परेशान होती है, इसलिये लंबे समय से मांग की जाती रही है कि इस नियम में बदलाव कर एक उम्मीदवार-एक सीट का सिद्धांत लागू होना चाहिये। अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये दो स्थानों से चुनाव लड़ना और जीत जाने के बाद किसी एक स्थान से इस्तीफा दे देना हमारी चुनाव प्रक्रिया की बड़ी खामी है, जिस पर रोक लगाने से लोकतंत्र और मज़बूत होगा।