संरक्षणवाद बनाम वैश्वीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

वैश्वीकरण, संरक्षणवाद, आत्मनिर्भर भारत पहल

मेन्स के लिये:

वैश्वीकरण के पक्ष और विपक्ष, वैश्वीकरण में गिरावट, भारत में संरक्षणवाद


चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैश्विक प्रौद्योगिकी शिखर सम्मेलन में भारत के विदेश मंत्री (EAM) द्वारा ज़ोर देकर कहा गया है कि कोविड -19 महामारी ने अनियंत्रित वैश्वीकरण (Unchecked Globalization) के बजाय भारत की क्षमताओं और अधिक घरेलू उत्पादन की आवश्यकता को बढ़ाया है।

  • उन्होंने आगे कहा कि तकनीकी विकास को बढ़ावा देने के लिये, राष्ट्रों को आंतरिक रूप से अधिक स्टार्ट-अप, आपूर्ति शृंखला और रोज़गार सृजित करने की ज़रूरत है।
  • विदेश मंत्री के इस भाषण ने संरक्षणवाद बनाम वैश्वीकरण के बीच एक बहस छेड़ दी है।

प्रमुख बिंदु

  • वैश्वीकरण:

    • परिचय: वैश्वीकरण एक सीमारहित दुनिया की परिकल्पना करता है या एक ग्लोबल विलेज के रूप में दुनिया की स्थापना का प्रयास करता है।
    • आधुनिक वैश्वीकरण की उत्पत्ति: वर्तमान वैश्वीकरण वर्ष 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के साथ शुरू हुआ था।
    • संचालित कारक: वैश्वीकरण दो प्रणालियों लोकतंत्र और पूंजीवाद, जो शीत युद्ध के अंत में अस्तित्त्व में आया।
    • वैश्वीकरण के आयाम: इसका श्रेय सीमाओं के पार माल, लोगों, पूंजी, सूचना और ऊर्जा के त्वरित प्रवाह को दिया जा सकता है, जो अक्सर तकनीकी विकास द्वारा सक्षम होता है।
    • वैश्वीकरण का प्रकटीकरण: टैरिफ के बिना व्यापार, आसान या बिना वीज़ा के साथ अंतर्राष्ट्रीय यात्रा, कुछ बाधाओं के साथ पूंजी प्रवाह, सीमा पार पाइपलाइन और ऊर्जा ग्रिड और वास्तविक समय में निर्बाध वैश्विक संचार ऐसे लक्ष्य प्रतीत होते हैं जिनकी ओर दुनिया आगे बढ़ रही थी।
  • वैश्वीकरण के पक्ष में तर्क:
    • वस्तुओं और सेवाओं तक पहुँच: वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप व्यापार और जीवन स्तर में वृद्धि हुई है।
      • यह घरेलू उत्पाद, पूंजी और श्रम बाज़ारों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की व्यापार एवं निवेश रणनीतियाँ अपनाने वाले देशों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाता है।
    • सामाजिक न्याय का वाहक: समर्थकों का मानना है कि वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार का प्रतिनिधित्त्व करता है जो वैश्विक आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है, रोज़गार का सृजन करता है, कंपनियों को अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाता है और उपभोक्ताओं के लिये कीमतें कम करता है।
    • सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ाता है: सीमा-पार दूरियों को कम करके, वैश्वीकरण ने अंतःपारीय-सांस्कृतिक समझ और साझाकरण को बढ़ाया है।
    • प्रौद्योगिकी और मूल्यों को साझा करना: यह विदेशी पूंजी और प्रौद्योगिकी के माध्यम से गरीब देशों को आर्थिक रूप से विकसित होने तथा समृद्ध होने का मौका भी प्रदान करता है।
  • वैश्वीकरण के विपक्ष में तर्क:

    • वैश्विक समस्याओं का उदय: वैश्वीकरण की आलोचना वैश्विक असमानताओं को बढ़ाने, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के प्रसार और सीमा पार संगठित अपराध तथा बीमारी के तेज़ी से प्रसार के कारण की जाती है।
    • राष्ट्रवाद की प्रतिक्रिया: वैश्वीकरण के आर्थिक पहलू के बावजूद, इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा, राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई है।
    • सांस्कृतिक एकरूपता की ओर बढ़ना: वैश्वीकरण लोगों के व्यवहार अभिसरण को बढ़ावा मिलता है जिससे अधिक सांस्कृतिक एकरूपता हो सकती है।
      • इससे बहुमूल्य सांस्कृतिक प्रथाओं और भाषाओं की विलुप्ति का खतरा है।
      • साथ ही, एक देश के दूसरे देश पर सांस्कृतिक आक्रमण के खतरे भी हैं।

नि-वैश्वीकरण या संरक्षणवाद

  • अर्थ:

    • संरक्षणवाद सरकारी नीतियों को संदर्भित करता है जो घरेलू उद्योगों की सहायता के लिये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करता है।
    • टैरिफ, आयात कोटा, उत्पाद मानक और सब्सिडी कुछ प्राथमिक नीति उपकरण हैं जिनका उपयोग सरकार संरक्षणवादी नीतियों को लागू करने में कर सकती है।
  • वैश्विक क्षेत्र में संरक्षणवाद:

    • वर्ष 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट (GFC) के बाद से वैश्वीकरण में स्थिरता शुरू हो गई।
    • यह ब्रेक्जिट और अमेरिका की ‘अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी’ में परिलक्षित होता है।
    • इसके अलावा व्यापार युद्ध तथा विश्व व्यापार संगठन की वार्ता को बाधित करना वैश्वीकरण के पीछे हटने की एक और मान्यता है।
    • ये रुझान वैश्वीकरण विरोधी या संरक्षणवाद की भावना का मार्ग प्रशस्त करते हैं, जो कोविड-19 महामारी के प्रसार के कारण और बढ़ सकता है।
  • भारत में संरक्षणवाद

    • पिछले कुछ वर्षों में, कई देशों ने संरक्षणवादी बनने के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था की आलोचना की है। इसे निम्नलिखित उदाहरणों में दर्शाया जा सकता है:
      • भारत सरकार द्वारा अमेरिका के साथ एक लघु व्यापार समझौते के लिये शर्तों पर सहमत होने में विफल रहने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को आयात के लिये नहीं खोलना।
      • भारत 15 देशों की ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ से बाहर हो गया था।
      • महामारी की शुरुआत के बाद, मई 2020 में शुरू की गई ‘आत्मनिर्भर भारत पहल’ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक संरक्षणवादी कदम के रूप में भी माना जाता था।

आगे की राह

  • डी-ब्यूरोक्रेटाइज़ेशन: भारत को ऐसी नीतियाँ बनाने की ज़रूरत है, जो अपनी प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार करें, कृषि जैसे कुछ क्षेत्रों को नौकरशाही से मुक्त करें और श्रम कानूनों को कम जटिल बनाएँ ।
    • कच्चे माल की खरीद से लेकर तैयार उत्पादों के आउटलेट तक एक समग्र और आसानी से सुलभ पारिस्थितिकी तंत्र उपलब्ध कराया जाना चाहिये।
  • जन-केंद्रित नीतियाँ: रोज़गार को गति प्रदान करने का एकमात्र तरीका स्थानीय क्षेत्र में मूल्यवर्द्धन को बढ़ाना है। विकास को गति देने के लिये ऐसी जन-केंद्रित और क्षेत्र-विशिष्ट नीतियों के निर्माण की आवश्यकता है।
  • वैकल्पिक वैश्विक गठबंधन: भारत को अब क्षेत्रीय गठबंधनों से आगे बढ़ने की ज़रूरत है और संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे व्यापार के मामले में समान विचारधारा वाले देशों के बीच सहयोगात्मक गठबंधन की कोशिश करनी चाहिये, ताकि वैश्विक आपूर्ति शृंखला में चीन के आधिपत्य का मुकाबला करने हेतु एक विकल्प का तलाशा जा सके।
  • अनुसंधान एवं विकास और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देना: लागत-प्रतिस्पर्द्धी और गुणवत्ता प्रतिस्पर्द्धी बनने के लिये निर्माण क्षमता तथा नीति ढाँचे को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
  • उत्पादन में वृद्धि करना: घरेलू उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात बढ़ाने और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिये और अधिक स्वायत्तता पर ज़ोर देना आवश्यक है। भारत को अब अगले 20 वर्ष के लिये योजना बनाने की ज़रूरत है।

स्रोत: द हिंदू