संसदीय समिति प्रणाली: महत्त्व और चुनौतियाँ
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में संसदीय समिति प्रणाली के महत्त्व और हाल के वर्षों में भारतीय संसदीय लोकतंत्र में इसकी अनदेखी व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
पिछले मानसून सत्र में संसद द्वारा पारित नए कृषि अधिनियमों ने सरकार और किसानों के बीच टकराव की एक गंभीर स्थिति पैदा कर दी है, हालाँकि सरकार कथित तौर पर इन अधिनियमों में सुधार के लिये तैयार हो गई है परंतु किसानों की मांग है कि इन अधिनियमों को निरस्त कर दिया जाए और यदि आवश्यक हो तो किसानों और अन्य हितधारकों के साथ चर्चा के बाद ही इसके लिये नए कानून बनाए जाएँ।
संसद द्वारा पारित इन अधिनियमों को निरस्त किये जाने की मांग हाल के वर्षों में संसद में विधायी कार्यों के प्रबंधन में एक गंभीर चूक की तरफ संकेत करती है। विधायी कार्यों के प्रबंधन में हुई इन कमियों को अक्सर संसदीय समितियों को दरकिनार किये जाने और अध्यादेशों के प्रयोग में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है।
चूँकि संसद लोकतंत्र की प्रतीक है, ऐसे में संसदीय कार्यप्रणाली की गुणवत्ता में गिरावट की जाँच करना और इसके प्रति लोगों के विश्वास को मज़बूती प्रदान करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।
संसदीय समितियाँ: पृष्ठभूमि:
- अपनी समितियों के माध्यम से विस्तृत जाँच द्वारा कानूनों या उसके कुछ हिस्सों में सुधार करने हेतु संसद की ऐतिहासिक रूप से एक प्राचीन प्रथा रही है।
- वास्तव में ब्रिटिश संसद में यह प्रणाली 16वीं शताब्दी से ही लागू है।
- भारत में संसदीय जाँच के इतिहास को ‘मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार’ (Montagu–Chelmsford Reforms) से जोड़कर देखा जा सकता है।
- ग़ौरतलब है कि ‘केंद्रीय विधानसभा’ जो कि ‘ब्रिटिश भारत’ की संसद थी, ने तीन समितियाँ गठित की थीं।
- विधेयकों से संबंधित याचिकाओं पर समिति।
- स्थायी आदेशों के संशोधन पर चयन समिति।
- विधेयकों पर चयन समिति।
- इस प्रकार देखा जा सकता है कि औपनिवेशिक काल में भी संसद ने सरकार द्वारा सदन में लाए गए विधेयकों की संसदीय जाँच की आवश्यकता और उपयोगिता को स्वीकार किया था।
- स्वतंत्र भारत की संसद ने विधेयकों के साथ-साथ शासन के विभिन्न पहलुओं की जाँच करने के लिये महत्त्वपूर्ण समितियों के एक विशाल तंत्र की स्थापना की।
- वर्ष 1993 में विभाग संबंधी स्थायी समितियों (DRSCs) के गठन से पहले भारतीय संसद द्वारा सरकार के महत्त्वपूर्ण विधायी प्रस्तावों की विस्तृत जाँच हेतु चयन समितियों और संयुक्त चयन समितियों का गठन किया जाता था।
संसदीय समिति प्रणाली का महत्त्व:
- अंतर-मंत्रालयी समन्वय: इन समितियों को संबंधित मंत्रालयों / विभागों की अनुदान मांगों को देखने, उनसे जुड़े विधेयकों की जाँच, उनकी वार्षिक रिपोर्ट और दीर्घकालिक योजनाओं पर विचार करने तथा संसद को रिपोर्ट करने का कार्य सौंपा जाता है।
- विस्तृत जाँच का साधन: आमतौर पर संसदीय समितियों की रिपोर्टें बहुत ही विस्तृत होती हैं और शासन से संबंधित मामलों पर प्रामाणिक जानकारी प्रदान करती हैं।
- इन समितियों से संदर्भित विधेयक महत्त्वपूर्ण मूल्यवर्द्धन के साथ सदन में वापस आते हैं।
- स्थायी समितियों के अलावा संसद के सदनों द्वारा विशिष्ट विषयों की जाँच और उनकी रिपोर्ट करने के लिये ‘तदर्थ समितियों’ (Adhoc Committees) का गठन किया जाता है, इन समितियों को किसी विधेयक का बारीकी से अध्ययन करने और सदन को वापस इसकी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का कार्य सौंपा जाता है।
- इसके अतिरिक्त इन समितियों को अपने कार्य के निर्वहन के दौरान विशेषज्ञ सलाह और सार्वजनिक राय प्राप्त करने का अधिकार होता है।
एक लघु संसद के रूप में कार्य:
- ये समितियाँ दोनों सदनों के सदस्यों (सांसदों) की छोटी इकाइयाँ होती हैं और ये सदस्य अलग-अलग राजनीतिक दलों से आते हैं। ये समितियाँ पूरे वर्ष कार्य करती हैं।
- इसके अलावा संसदीय समितियाँ लोकलुभावन मांगों को लेकर बाध्य नहीं होती हैं जो आमतौर पर संसद के काम में बाधा उत्पन्न करती हैं।
- चूँकि समितियों की बैठकें 'बंद-दरवाज़े' के पीछे होती हैं और ऐसे में समितियों के सदस्य पार्टी व्हिप द्वारा बाध्य नहीं होते हैं, संसदीय समितियाँ बहस तथा चर्चा के लोकाचार पर कार्य करती है।
- इसके अलावा समितियाँ सार्वजनिक चकाचौंध से दूर रहकर काम करती हैं और संसदीय कार्यवाही को संचालित करने वाले कोड, जो सदन के नए और युवा सदस्यों के लिये महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण संस्था है, की तुलना में अनौपचारिक बने रहते हैं।
संसदीय समिति प्रणाली का सीमांकन:
- संसदीय समिति प्रणाली की अनदेखी: पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आँकड़ों के अनुसार, 14वीं लोकसभा में 60% और 15वीं लोकसभा में 71% विधेयक संबंधित DRSCs को संदर्भित थे, जबकि 16वीं लोकसभा में ऐसे विधेयकों का अनुपात घटकर 27% रह गया।
- DRSCs के अलावा सदनों की संयुक्त संसदीय समितियों और चयन समितियों को संदर्भित विधेयकों की संख्या भी नगण्य ही रही।
- संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया आखिरी विधेयक ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2015’ था।
अध्यक्ष या स्पीकर की भूमिका:
- किसी विधेयक को समितियों के पास भेजने का अधिकार सदन के स्पीकर या अध्यक्ष के विवेक पर निर्भर करता है।
- सदन के नियमों के अनुसार, महत्त्वपूर्ण विधेयकों को विस्तृत समीक्षा के लिये समितियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
- हालाँकि कई बार स्पीकर या अध्यक्ष द्वारा अपने विवेक का प्रयोग करते हुए कई महत्त्वपूर्ण विधेयकों (जिनका समाज पर गंभीर प्रभाव हो सकता है) को भी समिति के लिये संदर्भित नहीं किया जाता।
- उदाहरण के लिये हालिया कृषि विधेयक अध्यादेशों के माध्यम से अधिनियमित किये गए थे और इन्हें एक स्थायी समिति को भेजे बिना ही तीन दिनों के अंदर लोकसभा से पारित कर दिया गया।
आगे की राह:
- संसदीय समिति प्रणाली को पुनर्जीवित करना:
- संसद को व्यापक जनभागीदारी सुनिश्चित करने के लिये अपनी समिति प्रणाली को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
- ब्रिटिश संसद की तरह ही भारतीय संसद को भी इस बात पर विशेष ज़ोर देना चाहिये कि प्रत्येक विधेयक पर एक समिति द्वारा व्यापक विचार-विमर्श किया जाए।
- नियमों में संशोधन और उत्तरदायित्व: अध्यक्ष और स्पीकर द्वारा पूरी सत्यनिष्ठा के साथ अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन के अलावा लोकसभा और राज्यसभा दोनों में प्रक्रिया के नियमों में संशोधन किये जाने की आवश्यकता है ताकि सभी महत्त्वपूर्ण विधेयकों को DRSCs को संदर्भित करने का प्रबंध किया जा सके।
- नई समितियों की स्थापना: अर्थव्यवस्था और तकनीकी के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ इससे जुड़े मामलों की जटिलता में वृद्धि को देखते हुए नई संसदीय समितियों की स्थापना की आवश्यकता है। उदाहरण के लिये:
- संघ सूची, समवर्ती सूची और राज्य सूची में अतिव्यापी सभी मामलों का विश्लेषण करने के लिये संघीय मुद्दों पर एक स्थायी समिति की स्थापना।
- संसद में प्रस्तुत किये जाने से पहले संवैधानिक संशोधन विधेयकों की जाँच हेतु संविधान से जुड़े मामलों की एक स्थायी समिति की स्थापना।
निष्कर्ष:
- संसद की प्राथमिक भूमिका विवेचना, चर्चा और पुनर्विचार करना है, जो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था की पहचान है। हालाँकि संसद में विचार-विमर्श के लिये प्रस्तुत मामले बहुत ही जटिल होते हैं, जिसके कारण सदस्यों को इन्हें बेहतर तरीके से समझने के लिये तकनीकी सहायता की आवश्यकता पड़ती है।
- इस प्रकार संसदीय समितियाँ सदस्यों को एक मंच प्रदान कर उनकी सहायता करती हैं जहाँ सदस्य विचार-विमर्श के दौरान संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर कार्य कर सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र की बेहतरी के लिये संसदीय समितियों को दरकिनार करने के बजाय उन्हें मज़बूत किया जाना आवश्यक है।
अभ्यास प्रश्न: ‘भारत में संसदीय समिति प्रणाली के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए हाल के वर्षों में उनके कामकाज के प्रति सरकार के रवैये में आए बदलाव और इससे जुड़े हालिया मुद्दों पर चर्चा कीजिये।