विशेष/इन-डेप्थ: अविश्वास प्रस्ताव
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
लोकसभा में केंद्र सरकार के ख़िलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया है। केंद्र सरकार के चार साल पूरे होने के दो महीने पहले उसे संसद में अविश्वास प्रस्ताव की चुनौती मिल रही है। यह चुनौती कोई और नहीं बल्कि कुछ दिन पहले तक एनडीए की हिस्सा रही तेलुगू देशम पार्टी दे रही है। आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्ज़ा नहीं मिलने से नाराज़ TDP सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाई है। आंध्र प्रदेश का ही एक अन्य विपक्षी दल वाईएसआर कांग्रेस भी इस प्रस्ताव का समर्थन कर रही है। यह नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ पहला अविश्वास प्रस्ताव है। लोकसभा में सरकार के बहुमत के मद्देनज़र तकनीकी तौर पर सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से कोई खतरा नहीं है, लेकिन इससे अविश्वास प्रस्ताव का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आ गया है।
क्या होता है अविश्वास प्रस्ताव?
जब लोकसभा में किसी विपक्षी पार्टी को लगता है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है या सदन में सरकार विश्वास खो चुकी है तो वह अविश्वास प्रस्ताव लाती है। इसे No Confidence Motion भी कहते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-75 में कहा गया है कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जवाबदेह है, अर्थात् इस सदन में बहुमत हासिल होने पर ही मंत्रिपरिषद बनी रह सकती है। इसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है।
- लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावाली के नियम 198(1) से 198(5) तक मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत करने हेतु प्रक्रिया निर्धारित की गई है।
- यह केवल एक लाइन का प्रस्ताव होता है जिसका सामान्य स्वरूप इस प्रकार है--यह सदन मंत्रिपरिषद में अविश्वास व्यक्त करता है।
- नियम 198(1)(क) के तहत अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले सदस्य को स्पीकर के बुलाने पर सदन से इसके लिये अनुमति मांगनी पड़ती है।
- नियम 198(1)(ख) के तहत सुबह 10 बजे तक इस प्रस्ताव की लिखित सूचना लोकसभा महासचिव को देनी होती है। इस समय के बाद मिली सूचना को अगले दिन मिली सूचना माना जाता है।
- नियम 198(2) के तहत प्रस्ताव के पक्ष में कम-से-कम 50 सदस्यों का होना आवश्यक है। यदि इतने सांसद न हों तो अध्यक्ष प्रस्ताव रखने की अनुमति नहीं देते।
- नियम 198(3) के तहत अध्यक्ष अनुमति मिलने के बाद इस पर चर्चा के लिये एक या अधिक दिन या किसी दिन का एक भाग तय करते हैं।
- नियम 198(4) के तहत अध्यक्ष चर्चा के अंतिम दिन मतदान के ज़रिये निर्णय की घोषणा करते हैं।
- नियम 198(4) के तहत भाषणों की समय-सीमा तय करने का अधिकार अध्यक्ष को मिला है।
- इसे मंज़ूरी मिलने पर सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन को यह साबित करना होता है कि उन्हें सदन में ज़रूरी समर्थन प्राप्त है।
- लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव को मंज़ूरी के लिये कम-से-कम 50 सांसदों का समर्थन ज़रूरी होता है।
- इसमें वोटिंग के लिये केवल लोकसभा के सांसद ही पात्र होते हैं, राज्यसभा के सांसद वोटिंग प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकते।
- विपक्षी दल को लोकसभा स्पीकर को इसकी लिखित सूचना देनी होती है। इसके बाद स्पीकर उस दल के किसी सांसद से इसे पेश करने के लिये कहते हैं।
- लोकसभा स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव को मंज़ूरी दे देते हैं, तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के अदंर इस पर चर्चा ज़रूरी है।
- इसके बाद स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करा सकता है या फिर कोई फैसला ले सकता है।
- इसके लिये मतदान होने पर सरकार अपने सांसदों के लिये व्हिप जारी कर सकती है, जिसके बाद अपनी पार्टी लाइन से हटकर मतदान करने वाला सांसद अयोग्य माना जा सकता है।
- अविश्वास प्रस्ताव में सदन में मौजूद सदस्यों में आधे से एक ज़्यादा ने भी यदि सरकार के खिलाफ वोट दे दिया तो सरकार गिर जाती है।
- अविश्वास प्रस्ताव को किसी कारण पर आधारित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब सूचना में कारण उल्लिखित होते हैं और उन्हें सभा में पढ़ा जाता है तब भी वे अविश्वास प्रस्ताव का भाग नहीं बनते हैं।
इतिहास के आईने में अविश्वास प्रस्ताव
- भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार अगस्त 1963 में जे.बी. कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ रखे गए इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 वोट पड़े और विरोध में 347 वोट।
- संसद में 26 से ज्यादा बार अविश्वास प्रस्ताव रखे जा चुके हैं और सबसे ज़्यादा या 15 अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के खिलाफ आए।
- लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंह राव की सरकारों ने तीन-तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया।
- अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए अब तक पहली बार 1978 में सरकार गिरी थी, जब तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार को मतदान में हार का सामना करना पड़ा था। उनकी सरकार के खिलाफ कुल दो बार यह प्रताव लाया गया था।
- 1979 में अविश्वास प्रस्ताव पर ज़रूरी बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था।
- इसके बाद 1989 में वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को अविश्वास प्रस्ताव पारित होने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।
- 1993 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार बहुत कम अंतर से अविश्वास प्रस्ताव को पार कर पाई थी।
- 1997 में एच.डी. देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार को अविश्वास प्रस्ताव में पराजय के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।
- इसके बाद 1998 में संयुक्त मोर्चे की आई.के. गुजराल सरकार को भी अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।।
- राजग की तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी ने दो बार विश्वास मत प्राप्त करने की कोशिश की और दोनों बार असफल रहे। 1996 में उन्होंने केवल 13 दिन सरकार चलाने के बाद मत-विभाजन से पहले ही इस्तीफा दे दिया था और 1998 में उनकी सरकार केवल एक वोट से हार गई थी।
- जुलाई 2009 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के विरोध में संप्रग सरकार के खिलाफ अविश्वास मत लाया गया था। तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मामूली बहुमत से इस पर विजय पाई थी।
- सबसे ज़्यादा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का रिकॉर्ड माकपा सांसद ज्योतिर्मय बसु के नाम है। उन्होंने अपने चारों प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ रखे थे।
- पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहते हुए दो बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किये। पहला प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ था और दूसरा नरसिंह राव सरकार के खिलाफ।
अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव में अंतर
- ये दोनों ही प्रस्ताव संसदीय प्रकिया के अंग हैं, जिसके तहत सदन में सरकार के बहुमत को जाँचा जाता है।
- सदन में अविश्वास प्रस्ताव हमेशा विपक्षी दलों द्वारा लाया जाता है, जबकि विश्वास प्रस्ताव अपना बहुमत दिखाने के लिये हमेशा सत्ताधारी दल लेकर आता है।
- किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति भी सरकार से सदन में विश्वास मत अर्जित करने के लिये कह सकते हैं।
- यदि सरकार विश्वास मत जीत जाती है तो 15 दिन बाद विपक्ष पुन: सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकता है।
- संसदीय प्रावधान में कहा गया है कि एक बार अविश्वास प्रस्ताव लाने के छह महीने बाद ही दोबारा अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष द्वारा लाया जा सकता है।
- चूँकि विश्वास मत सरकार की तरफ से लाया जाता है, इसलिये उक्त कानून इस पर लागू नहीं होता।
- यदि सरकार सदन में विश्वास प्रस्ताव के दौरान सामान्य बहुमत साबित नहीं कर पाती तो ऐसे में सरकार को या तो इस्तीफा देना होता है या लोकसभा भंग करके आम चुनाव की सिफारिश राष्ट्रपति से की जा सकती है।
- इसके बाद यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि वह नई सरकार को आमंत्रित करें अथवा ऐसा संभव न होने पर वर्तमान सरकार को ही चुनाव संपन्न होने और नई सरकार के बनने तक कार्यवाहक सरकार के तौर पर काम करने को कहें।
संसद में लाए जाने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव
कार्य स्थगन प्रस्ताव ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आधे घंटे की चर्चा आधे घंटे की चर्चा से संबंधित प्रकिया लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम के नियम 55 तथा अध्यक्ष के निदेश के निदेश 19 द्वारा विनियमित होते हैं। इसके अंतर्गत, कोई भी सदस्य पर्याप्त लोक महत्त्व के ऐसे मामले पर चर्चा उठाने के लिये सूचना दे सकता है जो हाल ही के प्रश्न, तारांकित, अतारांकित या अल्प सूचना प्रश्न का विषय रहा हो और जिसके उत्तर के किसी तथ्य या विषय के संबंध में विशदीकरण की आवश्यकता हो। सूचना के साथ एक व्याख्यात्मक टिप्पणी दी जानी चाहिये जिसमें उस विषय पर चर्चा उठाने के कारण दिये गए हों और यह हस्ताक्षरित होनी चाहिये। एक बैठक के लिये आधे घंटे की चर्चा की केवल एक सूचना दी जाएगी और सभा में न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव किया जाएगा और न ही मतदान किया जाएगा। जिस सदस्य ने सूचना दी है, वह एक संक्षिप्त लघु वक्तव्य देगा और जिन सदस्यों ने अध्यक्ष को पहले से सूचित किया है तथा बैलट में पहले चार स्थानों में से एक पर है, को किसी तथ्य या विषय के विशदीकरण के प्रयोजन से एक प्रश्न पूछने की अनुमति दी जाएगी। तत्पश्चात् संबंधित मंत्री संक्षिप्त उत्तर देता है। आधे घंटे की चर्चा कार्य मंत्रणा समिति द्वारा अनुमोदित तथा सभा द्वारा मंजूर दिवस पर की जाती है। अल्पकालीन चर्चा व्यवस्था का प्रश्न व्यवस्था के प्रश्न को सभा के समक्ष कार्य के संबंध में उठाया जा सकता है, बशर्ते अध्यक्ष किसी सदस्य को कार्य की एक मद समाप्त होने और दूसरी के प्रारंभ होने के बीच की अवधिमें व्यवस्था का प्रश्न उठाने की अनुमतिदें, यदिवह सभा में व्यवस्था बनाए रखने या सभा के समक्ष कार्य-विन्यास के संबंध में हो। कोई सदस्य व्यवस्था का प्रश्न उठा सकता है और इसका निर्णय अध्यक्ष करेंगे किक्या उठाया गया प्रश्न व्यवस्था का प्रश्न है और यदिवह व्यवस्था का प्रश्न है तो वह इस पर निर्णय देंगे जो अंतिम होगा। संसदीय विशेषाधिकार नियम 193 के तहत चर्चा नियम 377 के तहत चर्चा (टीम दृष्टि इनपुट) |
अन्य देशों में नियम तथा प्रक्रियाएँ
- भारत में अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया ब्रिटेन की वेस्टमिन्स्टर प्रणाली की तरह है तथा कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी इसी मॉडल का अनुसरण किया जाता है। इस प्रणाली में परंपराओं का महत्त्व बहुत अधिक है। इस प्रणाली में निर्वाचित होकर बना निचला सदन महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
- विश्व में सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव ब्रिटेन में ही लाया गया था, जब 1742 में रॉबर्ट वाल्पोल की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ था।
- जर्मनी, स्पेन तथा इज़राइल में अविश्वास प्रस्ताव के साथ उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव भी देना पड़ता है। इसमें अविश्वास और विश्वास मत के प्रस्ताव एक साथ सदन में रखे जाते हैं। इसे बदलाव के लिये रचनात्मक मतदान कहा जाता है।
- जर्मनी में विश्वास मत हारने पर चांसलर को इस्तीफा नहीं देना पड़ता, बशर्ते यह प्रस्ताव विपक्ष की तरफ से न लाया गया हो।
- इटली में अविश्वास प्रस्ताव पर दोनों सदनों की सहमति आवश्यक है।
- जापान में प्रतिनिधि सभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है।
सदन की कार्यवाही में व्यवधान (टीम दृष्टि इनपुट) |
निष्कर्ष: अविश्वास प्रस्ताव संसदीय परंपरा का एक अहम हिस्सा है। जब पूर्ण बहुमत की सरकारें काम करती थीं तब अविश्वास प्रस्ताव को विपक्ष के प्रतीकात्मक विरोध का एक साधन माना जाता था, जिसका उद्देश्य सरकार की जवाबदेही तय करना होता था। लेकिन गठबंधन सरकारों के दौर में विपक्ष के इस हथियार का महत्त्व काफी बढ़ गया है। जब भी विपक्ष को लगता है कि उसके पास सरकार को मुश्किल में डालने लायक संख्या बल है तो वह अविश्वास प्रस्ताव लेकर आता है। इसके समर्थन में वे सदस्य आते हैं जिन्हें सरकार में विश्वास नहीं होता।
इधर कुछ दशकों से यह देखने में आ रहा है कि सरकारी पक्ष हो या विपक्ष, प्रायः हर मुद्दे पर आपस में उलझ जाते हैं और संसद की कार्यवाही निरंतर बाधित होती रहती है। केवल बेहद आवश्यक विधायी कार्य ही सदन में जगह बना पाते हैं। अनुभवी राजनीतिज्ञ और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा भी था कि संसद के लिये D से शुरू होने वाले आवश्यक तीन शब्दों--डिबेट (चर्चा), डिसेंट (मतभेद) और डिसीजन (निर्णय) में अब चुपचाप एक नया D डिसरप्शन (बाधा) जुड़ गया है। संसदीय लोकतंत्र में में बाधा का कोई स्थान नहीं है। बार-बार बाधा उत्पन्न होने से उपयुक्त ढंग से चर्चा नहीं हो पाती और सार्वजनिक महत्त्व के बहुत से महत्वपूर्ण मुद्दों को सदन की कार्यवाही में स्थान नहीं मिल पाता। संसद में कभी-कभार किसी गंभीर मसले पर हंगामे के कारण कामकाज का कुछ देर तक बाधित होना असामान्य नहीं है, लेकिन निरंतर व्यवधानों के चलते इधर संसद में काफी कम कामकाज हो पाता है। इसके लिये सरकार और विभिन्न दलों के बीच हुई बैठकों में परस्पर सहयोग तथा संसदीय मर्यादा के पालन पर सहमति बनाने की आवश्यकता है।