भारत में भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण
संदर्भ
डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) जिसे पूर्व में राष्ट्रीय भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण के नाम से जाना जाता था, देश में भूमि अभिलेखों की गुणवत्ता में सुधार करने, उन्हें अधिक सुलभ बनाने और सरकार द्वारा गारंटीकृत अधिकार की ओर बढ़ने की मांग करता है। दरअसल इस वर्ष इस योजना के कार्यान्वयन का एक दशक पूरा हो गया है और अब इसकी समीक्षा की जानी भी आवश्यक हो गई है। इस लेख में DILRMP योजना तथा संबंधित चुनौतियों को विस्तार से उल्लेखित किया गया है।
DILRMP क्या है?
- डिजिटल इंडिया भूमि अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम अगस्त 2008 में भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया था।
- इसका मुख्य उद्देश्य भूमि अभिलेखों के प्रबंधन को आधुनिकीकरण, भूमि/संपत्ति विवादों के दायरे को कम करने, भूमि अभिलेख रखरखाव प्रणाली में पारदर्शिता बढ़ाने और देश में अचल संपत्तियों के लिये अंततः गारंटीकृत निर्णायक अधिकार की ओर बढ़ने की सुविधा प्रदान करना है।
- इस कार्यक्रम के प्रमुख घटक भूमि स्वामित्त्व का फेर-बदल, मानचित्रों का डिजिटलीकरण तथा पाठ्यचर्या और स्थानिक डेटा के एकीकरण, सर्वेक्षण/पुन: सर्वेक्षण और मूल भूमि के रिकॉर्ड सहित सभी भूमि अभिलेखों का कंप्यूटरीकरण करना है।
DILRMP का क्रियान्वयन
- भूमि स्वामित्त्वाधिकार एक दस्तावेज़ है जो भूमि पर स्वामित्त्व के निर्धारित करने में मदद करता है और यह संपत्ति पंजीकरण प्रक्रिया के पूर्ण कंप्यूटरीकरण और सभी भूमि अभिलेखों के डिजिटलीकरण के माध्यम से हासिल की जा सकती है।
- DILRMP को सभी राज्यों द्वारा अंतर-प्रगति के साथ लागू किया जा रहा है।
- आँकड़ों के मुताबिक दो राज्य (कर्नाटक और ओडिशा) और तीन केंद्र शासित प्रदेशों ने भूमि अभिलेखों का 100% कम्प्यूटरीकरण का लक्ष्य पूरा कर लिया है, वहीं चार राज्य अभी तक इस प्रक्रिया को शुरू ही नहीं कर पाए हैं, जबकि शेष अन्य राज्यों ने रिकॉर्ड 80-90% तक कम्प्यूटरीकृत किया है।
- उन्नीस राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने अधिकारों के डिजिटल हस्ताक्षरित रिकॉर्ड (RORs) जारी करना शुरू कर दिया है, इन रिकॉर्ड ज्ञात होता है कि ज़मीन का अधिकार भूमि मालिक द्वारा कैसे प्राप्त किया जाता हैं।
- इन राज्यों ने RORs को कैडस्ट्रल मैप्स (क्षेत्र का रिकॉर्ड, स्वामित्त्व और जमीन के मूल्य) से जोड़ना शुरू कर दिया है।
- इनमें से तीन राज्यों (गोवा, ओडिशा और त्रिपुरा) ने लगभग इस प्रक्रिया को पूरा कर लिया है। हालाँकि, योजना के कुछ अन्य घटकों पर प्रगति धीमी रही है जिसमें स्वामित्त्व के हस्तांतरण का रिकॉर्ड केवल 50% गाँवों में ही कम्प्यूटरीकृत किया गया है।
- इसके अलावा, केवल 21% गाँवों ने (ROR) मानचित्रों के वास्तविक समय को अद्यतन करना शुरू कर दिया है। इससे पता चलता है कि रिकॉर्ड डिजिटलीकृत तो किये गये हैं किंतु उन्हें अद्यतन नहीं किया गया है।
- मानचित्र भूमि अभिलेखों के एक महत्त्वपूर्ण घटक होते हैं क्योंकि वे संपत्ति और स्वामित्त्व की सटीक सीमाओं का विवरण प्रदान करते हैं। हालाँकि, केवल 48% कैडस्ट्रल मानचित्रों को डिजिटलीकृत किया गया है।
- गाँवों के 45% सर्वेक्षण और पुन: सर्वेक्षण के काम में स्थानिक डेटा का प्रयोग किया जाता है, जो स्थानीय रिकॉर्ड अपडेट करने में मदद करता है। हालाँकि, कुल गाँवों में से केवल 9% में ही यह कार्य किया गया है।
संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ
- इस योजना के अंतर्गत भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण तो किया गया है, लेकिन भूमि स्वामित्त्व संबंधित समस्यायों का कोई उल्लेख नहीं किया है।
- सर्वविदित है कि भारत में भूमि अभिलेख अस्पष्ट हैं और वे स्वामित्त्व की गारंटी नहीं देते हैं, इस तरह के अस्पष्ट भूमि विवाद विभिन्न कारणों से हैं जो निम्नलिखित हैं –
- सबसे पहले, भारत में हमारे पास पंजीकृत लेन-देन कार्यों की एक प्रणाली है, न कि भूमि स्वामित्त्वाधिकार।
- संपत्ति स्थानांतरण अधिनियम, 1882 के अनुसार एक अचल संपत्ति (या भूमि) के अधिकार को केवल एक पंजीकृत दस्तावेज़ द्वारा स्थानांतरित या बेचने का कार्य किया जा सकता है।
- ये दस्तावेज पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत पंजीकृत हैं। इसलिये हस्तांतरण तो पंजीकृत हो जाता है लेकिन भूमि स्वमित्त्वाधिकार नहीं।
- इसका तात्पर्य यह है कि संपत्ति का हस्तांतरण हमेशा स्वामित्त्व की गारंटी नहीं दे सकते हैं, क्योंकि इससे पूर्व हस्तांतरण को चुनौती दी जा सकती है।
- दूसरा, भूमि पर स्वामित्त्व विभिन्न विभागों द्वारा बनाए गए कई दस्तावेज़ो के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, जिससे उन तक पहुँचना बोझिल हो जाता है। उदाहरण के लिये - पंजीकरण विभाग में बिक्री कार्य, नक्शा सर्वेक्षण विभाग तथा संपत्ति कर रसीद राजस्व विभाग द्वारा संग्रहीत किये जाते हैं।
- इसके अलावा, ये विभाग सिलो में काम करते हैं और डेटा को समय-समय पर अपडेट नहीं करते हैं जिसके परिणामस्वरूप विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं। इस तरह संपत्ति के एक टुकड़े पर स्वामित्त्व का दावा प्राप्त करने के लिये किसी को कई वर्षों तक दस्तावेजों का संग्रह करना पड़ता है, जो देरी का कारण बनता है।
- तीसरा, संपत्ति पंजीकरण की लागत अधिक है और इसलिये लोग लेन-देन पंजीकरण की प्रक्रिया से बचते हैं। उल्लेखनीय है कि बिक्री के लिये खरीदार को पंजीकरण शुल्क के साथ एक स्टांप ड्यूटी का भुगतान करना पड़ता है। भारत के राज्यों में स्टांप ड्यूटी की दरों में भिन्नता है।
- चौथा, पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण जैसे- लेन-देन के लिये संपत्ति का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, जब संपत्ति एक वर्ष से भी कम समय के लिये ली गई हो और संपत्ति का बँटवारा किया गया हो।
- इस प्रकार कई बार संपत्ति के बँटबारे को दर्ज नहीं किया जाता है अतः ये संपत्ति के स्वामित्त्व को सही ढंग से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं साथ ही यह अक्सर स्वामित्त्व से संबंधित मुकदमेबाज़ी में फँस जाता है।
- अतः अस्पष्ट भू-स्वामित्त्व अधिकार कई मोर्चों पर विकास में बाधा डालते है। उदाहरण के लिये ग्रामीण इलाकों में छोटे और सीमांत किसान, जो औपचारिक भूमि अधिकार नहीं रख सकते हैं, वे संस्थागत क्रेडिट तक पहुँचने में असमर्थ रहते हैं।
- शहरी क्षेत्रों में विवादित भू-स्वामित्त्व अधिकार, अचल संपत्ति लेन-देन में पारदर्शिता की कमी का कारण बनता है। इस आधार पर ज़मीन पर बनाए गए किसी भी आधारभूत ढाँचे को भविष्य में संभावित रूप से चुनौती दी जा सकती है, जिसने निवेश को जोखिम भरा बना दिया।
- इसके अलावा, स्मार्ट शहरों और AMRUT मिशन के अंतर्गत, शहर संपत्ति करों और भूमि आधारित वित्त पोषण के माध्यम से अपना राजस्व बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अतः इसके लिये स्पष्ट भू-स्वामित्त्व अधिकार की व्यवस्था प्रदान करने की ज़रुरत है।
आगे की राह
- हालाँकि, DILRMP का लक्ष्य निर्णायक भू-स्वामित्त्व अधिकार की ओर बढ़ना है, लेकिन यह उपर्युक्त मुद्दों को केवल आंशिक रूप से संबोधित करता है। अस्पष्ट भू-स्वामित्त्व अधिकार के मुद्दों को हल करने के लिये सरकार ने निर्णायक स्वामित्त्वाधिकार की ओर एक कदम बढ़ाया है।
- इस प्रणाली के तहत सरकार स्वामित्त्व विवादों के मामले में गारंटीकृत भू-स्वामित्त्व अधिकार और मुआवज़ा प्रदान करती है।
- हालाँकि, भारत में ऐसी प्रणाली को अपनाने के लिये कई उपायों की आवश्यकता होगी। इसके लिये पंजीकृत संपत्ति अधिकार की एक प्रणाली को स्वामित्व के प्राथमिक सबूत के रूप में विकसित करना होगा।
- साथ ही, मौजूदा सभी भूमि अभिलेखों को यह सुनिश्चित करने हेतु अद्यतन किया जाना चाहिये कि वे किसी भी प्रकार के भार से मुक्त हैं।
- इसके अलावा, भूमि अभिलेखों की जानकारी जो वर्तमान में कई विभागों से जुटानी होती है, को समेकित करना होगा।