भारत में भूमि सुधार (भाग- 1)
तात्पर्य:
भूमि सुधार से तात्पर्य है भूमि स्वामित्व का उचित व न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करना। अर्थात् भूमि के स्वमित्तव को इस प्रकार व्यवस्थित करना जिससे उसका अधिकतम उपयोग किया जा सके। ब्रिटिश शासन का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ कमाना था अतः उन्होंने कई भू-राजस्व प्रणालियों की शुरुआत की जैसे- जमींदारी व्यवस्था, रैय्यतबाड़ी व्यवस्था एवं महालवाड़ी व्यवस्था।
इन सभी व्यवस्थाओं का मूल उद्देश्य अधिकतम राजस्व की वसूली करना था। इनके कारण भू- स्वामित्त्व का असंतुलित वितरण देखने को मिला इस असंतुलन को दूर करने के लिये एवं शोषणकारी आर्थिक संबंधों को समाप्त करने के लिये भूमि सुधार की आवश्यकता देखने को मिली।
स्वतंत्रता पूर्व भारत में भू- राजस्व व्यवस्था:
इज़ारेदारी व्यवस्था-
- सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल में सन् 1772 में ‘इज़ारेदारी प्रथा’ की शुरुआत की। यह एक पंचवर्षीय व्यवस्था थी जिसमें सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी। सन् 1777 में पंचवर्षीय ठेके को वार्षिक कर दिया गया।
स्थायी बंदोबस्त या ज़मींदारी व्यवस्था-
- कार्नवालिस ने इज़ारेदारी व्यवस्था के दोषों को दूर करने के उद्देश्य से ‘स्थायी बंदोबस्त’ आरंभ की। यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस और उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई। स्थायी बंदोबस्त के तहत ज़मींदारों को भूमि का स्थायी मालिक बना दिया गया।
- स्थायी बंदोबस्त के तहत ज़मींदार किसानों से वसूले गए कुल रकम का दसवाँ भाग (10/11 भाग) कंपनी को देते थे एवं शेष 1/11 भाग स्वयं रखते थे। यदि कोई ज़मींदार निर्धारित तिथि तक भू-राजस्व की निश्चित राशि नहीं जमा करता था तो उसकी ज़मींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
रैयतवाड़ी व्यवस्था-
- सन् 1820 में मद्रास के तत्कालीन गवर्नर टॉमस मुनरो ने रैयतवाड़ी व्यवस्था आरंभ की। यह व्यवस्था मद्रास, बंबई एवं असम के कुछ भागों में लागू की गई।
- रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत लगभग 51 प्रतिशत भूमि आई। इसमें रैयतों या किसानों को भूमि का मालिकाना हक प्रदान किया गया। अब किसान स्वयं कंपनी को भू-राजस्व देने के लिये उत्तरदायी थे। इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर नहीं बल्कि भूमि की क्षेत्रफल के आधार पर किया गया।
महालवाड़ी व्यवस्था-
- महाल का तात्पर्य है गाँव। इस व्यवस्था के अंतर्गत गाँव के मुखिया के साथ सरकार का लगान वसूली का समझौता होता था। जिसे महालवाड़ी बंदोबस्त/व्यवस्था कहा गया।
- इसमें गाँव के प्रमुख किसानों को भूमि से बेदखल करने का अधिकार था। महालवाड़ी व्यवस्था के तहत लगान का निर्धारण महाल या संपूर्ण गाँव की ऊपज के आधार पर किया जाता था।
- लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा मध्य प्रांत, आगरा एवं पंजाब के क्षेत्रों में एक नई भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई जिसे महालवाड़ी व्यवस्था नाम दिया गया। इसके तहत भूमि का कुल 30 प्रतिशत सम्मिलित था ।
भूमि सुधार के उद्देश्य:
- भारत में भूमि सुधार का उद्देश्य भूमि के माध्यम से कृषि उत्पादकता को बढ़ाना एवं सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना था।
- इसके अलावा भूमि सुधार के अंतर्गत रोज़गार के नए अवसरों का सृजन करना, आर्थिक क्रियाओं में कृषि भागीदारी को बढ़ावा देना एवं भूमि का प्रभावी व् कुशलतम उपयोग करना था।
- भू-व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले सभी प्रकार के शोषण व सामाजिक अन्याय को समाप्त करना तथा प्राकृतिक संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण अर्थात आर्थिक न्याय के सिद्धांत को सुनिश्चित करना।
- कृषि क्षेत्रों में उत्पादन के कारकों में आवश्यकतानुसार सुधार करके कृषि उत्पादकता को अधिकतम करना भी इसका उद्देश्य था। कृषि क्षेत्रों में उत्पादकता मुख्यतः दो क्षेत्रों पर निर्भर करती हैं।
संस्थागत सुधार-
- संस्थागत सुधारों के महत्त्वपूर्ण भाग हैं-
- जमींदारी प्रथा का उन्मूलन
- मध्यस्थों का अंत
- भू-स्वामित्त्व कृषकों को हस्तांतरण
- खेतों के आकार में सुधार, चकबंदी, हदबंदी
- सहकारी व् सामुदायिक कृषि को बढ़ावा
- खेतों का उपविभाजन व विखंडन रोकना
- लगान में कमी
- भू-धारण अधिकारों की सुरक्षा करना
तकनीकी सुधार-
- कृषि का आधुनिकीकरण
- उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक एवं कीटनाशक
- बेहतर सिंचाई व्यवस्था
- उन्नत उपकरणों व् तकनीकों का उपयोग
- अच्छी भण्डारण व्यवस्था
- अच्छी वितरण व्यवस्था
- तकनीकी सुधार, संस्थागत सुधारों के बिना प्रभावी नहीं हो सकते इसलिये भारत में पहले चरण में संस्थागत सुधारों को प्राथमिकता दी गई।