भारत के बौद्धिक सम्पदा अधिकार: चुनौतियाँ एवं समाधान

सन्दर्भ

  • भारत और अमेरिका द्विपक्षीय सबंधों के माध्यम से परस्पर व्यापार को नई ऊँचाईयों पर ले जाना चाहते हैं| लेकिन आड़े आ जाते हैं बौद्धिक सम्पदा से संबंधित अधिकार। एक ओर जहाँ भारत के बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था में कुछ खामियाँ हैं वहीं अमेरिका की तरफ से भी कुछ नकारात्मकता दिखाई गई है।
  • लेकिन विवाद, विवाद की वज़ह और विवादों के समाधान की प्रक्रिया को हम तभी समझा सकते हैं जब हम अच्छी तरह से बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के बारे में जानते हों, तो चलिये पहले यह समझते हैं कि बौद्धिक सम्पदा अधिकार है क्या?

क्या है बौद्धिक संपदा अधिकार ? 

  • व्यक्तियों को उनके बौद्धिक सृजन के परिप्रेक्ष्य में प्रदान किये जाने वाले अधिकार ही बौद्धिक संपदा अधिकार कहलाते हैं। वस्तुतः ऐसा समझा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का बौद्धिक सृजन (जैसे साहित्यिक कृति की रचना, शोध, आविष्कार आदि) करता है तो सर्वप्रथम इस पर उसी व्यक्ति का अनन्य अधिकार होना चाहिये। चूँकि यह अधिकार बौद्धिक सृजन के लिये ही दिया जाता है, अतः इसे बौद्धिक संपदा अधिकार की संज्ञा दी जाती है।
  • बौद्धिक संपदा से अभिप्राय है- नैतिक और वाणिज्यिक रूप से मूल्यवान बौद्धिक सृजन। बौद्धिक संपदा अधिकार प्रदान किये जाने का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये कि अमुक बौद्धिक सृजन पर केवल और केवल उसके सृजनकर्ता का सदा-सर्वदा के लिये अधिकार हो जाएगा। यहाँ पर ये बताना आवश्यक है कि बौद्धिक संपदा अधिकार एक निश्चित समयावधि और एक निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र के मद्देनजर दिये जाते हैं।
  • बौद्धिक संपदा अधिकार दिये जाने का मूल उद्देश्य मानवीय बौद्धिक सृजनशीलता को प्रोत्साहन देना है। बौद्धिक संपदा अधिकारों का क्षेत्र व्यापक होने के कारण यह आवश्यक समझा गया कि क्षेत्र विशेष के लिये उसके संगत अधिकारों एवं सम्बद्ध नियमों आदि की व्यवस्था की जाए। इस आधार पर इन अधिकारों को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है

1). कॉपीराइट
2). पेटेन्ट
3). ट्रेडमार्क
4). औद्योगिक डिज़ाइन
5). भौगोलिक संकेतक

भारत की बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था की खामियाँ

  • मसलन, बहुत से लोगों का मानना है कि भारत-अमेरिका व्यापार में अपेक्षित प्रगति न हो पाने का ज़िम्मेदार भारत की बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था में व्याप्त खामियों हैं। हालाँकि इस बात में उतनी सच्चाई है नहीं, लेकिन फिर भी इसी बहाने हमारे पास उपयुक्त मौका यह देखने का है कि भारत की बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था कैसी है!
  • भारत में सर्वप्रथम वर्ष 1911 में भारतीय पेटेंट और डिज़ाइन अधिनियम बनाया गया था। पुनः स्वतंत्रता के बाद 1970 में पेटेंट अधिनियम बना और इसे वर्ष 1972 से लागू किया गया। इस अधिनियम में पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2002 और पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा संशोधन किये गए।
  • वर्ष 2005 से भारत ने दवाओं पर भी पेटेंट देना शुरू कर दिया। भारत में पेटेंट प्रणाली का प्रशासन, ‘पेटेंट, डिज़ाइन, ट्रेडमार्क्स और भौगोलिक संकेतक महानियंत्रक’ के अधीन होता है। भारतीय पेटेंट कार्यालय का मुख्यालय कोलकाता में है।
  • भारत में अनुसन्धान एवं विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी बहुत ही कम है और इसका प्रमुख कारण भारत की कमजोर बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था है। वर्ष 2005 में जब भारतीय पेटेंट अधिनियम में विश्व व्यापार संगठन की आशाओं के अनुरूप संशोधन किये गए तो पेटेंट, डिज़ाइन, ट्रेडमार्क्स और भौगोलिक संकेतक महानियंत्रक के समक्ष पेटेंट के लिये 56,000 से भी अधिक आवेदन पड़े हुए थे।
  • ठीक इसके 10 साल बाद यानी वर्ष 2015 में पेटेंट के लिये 2,50,000 आवेदन और ट्रेडमार्क के लिये 5,00,000 आवेदन लंबित थे। इन आँकड़ों पर जैसे ही हमारी नज़र जाती है, प्रथम दृष्टया यही प्रतीत होता है कि भारत की बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था रुग्ण अवस्था में है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • संयुक्त राष्ट्र संघ की औद्योगिक विकास संस्था ने अपने एक अध्ययन के द्वारा यह प्रमाणित किया है कि जिन देशों की बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था सुव्यवस्थित वहाँ आर्थिक विकास तेज़ी से हुआ है। अतः यहाँ सुधार की नितांत ही आवश्यकता है।
  • भारत को चाहिये कि वह ‘पेटेंट, डिजाइन, ट्रेडमार्क्स और भौगोलिक संकेतक महानियंत्रक’ को चुस्त एवं दुरुस्त बनाए। बड़ी संख्या में आवेदनों का लंबित होना यह दर्शाता है कि पेटेंट अधिकार प्रदान करने की हमारी व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिये और एक निश्चित समय के अन्दर आवेदनों की सुनवाई अनिवार्य कर देनी चाहिये।
  • विदित हो कि भारत सरकार ने बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था में सुधार की कवायद शुरू की है और यह निर्धारित किया है कि पेटेंट अधिकार प्राप्ति के लिये किये जाने वाले आवेदनों पर सुनवाई की समय सीमा 1 माह होगी और यह निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है।

भारत और अमेरिका के बीच विवाद एवं उनके निदान

  • अमेरिका अक्सर भारत पर दबाव बनाता रहा है कि वह अमेरिकी और यूरोपीय संघ के बौद्धिक संपदा अधिकारों से संगत अपने बौद्धिक संपदा अधिकार नियम बनाए। अमेरिका ने कई बार जालसाजी, पायरेसी एवं दवाओं जैसे मुद्दों पर भारतीय बौद्धिक संपदा अधिकार नियमों के प्रावधानों में कमज़ोरी का आरोप लगाते हुए अपनी चिंता जताई है।
  • अमेरिका भारत को कई बार चेतावनी भी देता रहा है कि वह भारत को "प्राथमिक विदेशी देश" की श्रेणी में निचले स्तर पर ला सकता है और इस आधार पर भारत पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं।
  • उपर्युक्त परिस्थितियों के मद्देनजर जहाँ एक ओर भारत अपनी राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा नीति के निर्माण की दिशा में अग्रसर हुआ है वहीं दूसरी ओर, अमेरिका द्वारा उठाए गए बौद्धिक संपदा विवादों के मामले में भारत को विश्व व्यापार संगठन से भी क्लीन चिट मिल गई है।
  • विदित हो कि विश्व व्यापार संगठन ने बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबद्ध व्यापार विवादों को दूर करने के लिये ट्रिप्स (TRIPS) व्यवस्था बनाई है। ट्रिप्स यानी ‘ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स’ से सन्दर्भित समझौता 1986-94 के उरुग्वे दौर में किया गया था।
  • गौरतलब है कि कुछेक व्यापारिक गुटों ने भारत के विरोध में यह आवाज उठाई थी कि भारत ने पेटेंट की गई दवाओं का निर्माण करने के लिये कुछ अनिवार्य लाइसेंस जारी किये हैं। लेकिन विश्व व्यापार संगठन की समीक्षा रिपोर्ट में पाया गया कि मार्च 2012 में भारत ने पहला और एकमात्र अनिवार्य लाइसेंस जारी किया था जो कि कैंसर की दवा से सम्बद्ध था।
  • इस प्रकार, भारत सरकार बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधी अपने नियमों को न केवल तर्कसंगत बनाने पर बल दे रही है बल्कि यह जनहित को भी ध्यान में रख रही है। इसके अतिरिक्त, सरकार वैश्विक गतिविधियों को महत्त्व देते हुए अपने नियमों में आवश्यक संशोधन भी करती आ रही है।

निष्कर्ष

  • जहाँ तक भारत-अमेरिका विवाद का प्रश्न है भारत को दवाओं की कीमतों को काबू में रखने के लिये 'स्वास्थ्य संबंधी विचारों के साथ पेंटेट कानूनों का संतुलन' बनाना ज़रूरी है। कई देशों में दवाओं की कीमतें अधिक हैं। लेकिन जीवनरक्षक दवाओं को बाज़िब कीमत पर आम नागरिकों की पहुँच में होना चाहिये।
  • यही कारण है कि भारत सरकार, अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों द्वारा की जा रही पेटेंट कानून में संशोधन की मांग के दवाब में नहीं आई थी। रही बात आपेक्षित व्यापार न हो पाने की तो भारत अब तक अपनी स्वास्थ्य चिंताओं और पेंटेट कानूनों में संतुलन बनाकर चल रहा है और इसमें न्यायपालिका ने भी अहम् भूमिका निभाई है।
  • विदित हो कि वर्ष 2005 में अचानक कैंसर की दवाओं की बाज़ार में कमी होने लगी और जब मामले में छानबीन की गई तो पता चला कि नोवार्टिस नामक कम्पनी ने दूसरी दवा बनाने वाली कंपनियों को कोर्ट में घसीट लिया है क्योंकि कंपनी का दावा था कि भारत में इस दवा को बेचने का अधिकार केवल उसके पास है। 
  • गौरतलब है कि स्विट्ज़रलैंड की कंपनी नोवार्टिस ने 2005 में ग्लीवॉक नाम की कैंसर-निरोधी दवा पर पेटेंट का आवेदन डाला जिसे भारत के पेटेंट कार्यालय ने खारिज कर दिया था। उसी फैसले के खिलाफ नोवार्टिस सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुँचा था। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने नोवार्टिस की याचिका खारिज़ कर दी थी।
  • भारत एक विकासशील देश और इसका उभरता हुआ बाज़ार अन्य देशों के लिये लाभप्रद है। गौरतलब है कि बड़ी कंपनियों के मुनाफे के लिये पेटेंट लाभप्रद है। अतः हमें चीन की तरह बड़ी संख्या में पेटेंट पंजीकृत कराने चाहिये तथा इसमें इष्टतम स्तर तक ढील देनी चाहिये ताकि अनुसंधान एवं आविष्कार केवल कुछ ही हाथों में सीमित न रहें।