पेयजल: गुणवत्ता और चुनौतियाँ
उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अनुसार मुंबई निवासियों को RO वॉटर प्यूरीफायर (Reverse Osmosis Water Purifiers) खरीदने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुंबई से एकत्र किये गए नल के जल (Tap Water) के नमूने पेयजल हेतु तय भारतीय मानकों के अनुरूप हैं।
हालाँकि भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards- BIS) द्वारा किये गए परीक्षण में दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई जैसे अन्य महानगर 11 गुणवत्ता मानकों में से लगभग 10 में विफल रहे। अन्य राज्यों की राजधानी में से अधिकांश की यही स्थिति रही।
जल संकट की प्रकृति
- वाटरएड (WaterAid) द्वारा जारी जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में से 120वें रैंक पर है।
- नीति आयोग द्वारा वर्ष 2018 में जारी कम्पोज़िट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स रिपोर्ट में बताया गया है कि देश भर के लगभग 21 प्रमुख शहर (दिल्ली, बंगलूरू, चेन्नई, हैदराबाद और अन्य) वर्ष 2020 तक शून्य भूजल स्तर तक पहुँच जाएंगे एवं इसके कारण लगभग 100 मिलियन लोग प्रभावित होंगे।
- नीति आयोग के अनुसार, भारत पहली बार जल संकट का सामना कर रहा है, यदि उपचारात्मक कदम नहीं उठाए गए तो वर्ष 2030 तक देश में पीने योग्य जल की कमी हो सकती है।
- भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है जहाँ न केवल वायु गुणवत्ता के खराब मानक (वायु आपातकाल) मौजूद हैं बल्कि जल गुणवत्ता की भी खराब स्थिति है।
- अमेरिका स्थित विश्व संसाधन संस्थान (World Resources Institute-WRI) द्वारा प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार विश्व के सर्वाधिक जल संकट ग्रस्त 17 देशों में भारत 13वें स्थान पर है।
- शहरी विकास मंत्रालय के अनुसार, भारत का 80% सतही जल (Surface Water) प्रदूषित है जो यह दर्शाता है कि भारत जल आपातकाल से गुजर रहा है।
पेयजल की खराब गुणवत्ता के कारण
- जल शोधन के नाम पर प्रायः जल के क्लोरीनेशन (Chlorination) मात्र से ही कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। क्लोरीनेशन जीवाणुओं और अन्य सूक्ष्मजीवों को नष्ट करता है, लेकिन जल में घुलित लवण, क्षारीयता, विषाक्त धातुओं आदि को क्लोरीनेशन द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता है।
- आपूर्ति के लिये प्रयुक्त पाइप पुराने और रिसाव-युक्त हैं। पाइपों में रिसाव या लीकेज़ से जल के दूषित होने की स्थिति बनती है। इसके अलावा जल की आपूर्ति लाइन और अपशिष्ट जल (सीवरेज) लाइन प्रायः साथ-साथ ही गुजर रही होती है।
- महानगरों में जल की मांग आपूर्ति की तुलना में अधिक है। इसलिये जल की आपूर्ति में इस कमी की भरपाई सतही जल और भूजल को आपस में मिलाकर की जाती है। हालाँकि भूजल आर्सेनिक जैसे कैंसर कारक (Carcinogenic) प्रदूषकों से गंभीर रूप से दूषित हो सकता है।
- जल राज्य सूची का विषय है। इससे केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकार के बीच समन्वय की समस्या पैदा होती है।
- तेज़ी से होते शहरीकरण ने जल के असमान वितरण और प्रदूषण के कारण स्थानीय जल निकायों के संदूषण की स्थिति उत्पन्न की है।
- कभी-कभी जिन स्थानों से जल के नमूने एकत्र किये जाते हैं, वे क्षेत्र में जल की गुणवत्ता की सही स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं करते।
समग्र जल प्रबंधन सूचकांक
(Composite Water Management Index -CWMI)
- नीति आयोग जल के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composit Water Management Index -CWMI) प्रकाशित करता है।
- समग्र जल प्रबंधन सूचकांक जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन में राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के प्रदर्शन के आकलन और उनमें सुधार लाने का एक प्रमुख साधन है।
- यह सूचकांक राज्यों और संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों को उपयोगी सूचना उपलब्ध करा रहा है जिससे वे उचित रणनीति बनाकर उसे जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में लागू कर सकेंगे। साथ ही एक वेब पोर्टल भी इसके लिये लॉन्च किया गया है।
- समग्र जल प्रबंधन सूचकांक में भूजल, जल निकायों की पुनर्स्थापना, सिंचाई, खेती के तरीके, पेयजल, नीति और प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं के 28 विभिन्न संकेतकों के साथ 9 विस्तृत क्षेत्र शामिल हैं।
- समीक्षा के उद्देश्य से राज्यों को दो विशेष समूहों- ‘पूर्वोत्तर एवं हिमालयी राज्य’ और ‘अन्य राज्यों’ में बाँटा गया है।
गुणवत्ताहीन पेयजल के प्रभाव
- हानिकारक स्वास्थ्य प्रभाव: भारत के लगभग 70% रोग जलजनित होते हैं। इसलिये जल की खराब गुणवत्ता गंभीर स्वास्थ्य खतरा उत्पन्न करती है।
- आर्थिक लागत: गुणवत्ताहीन पेयजल के कारण पर्यटकों की आमद घट जाएगी।
- दूरगामी प्रभाव (Domino Effect): पेयजल की खराब गुणवत्ता ही प्लास्टिक बोतलबंद पेयजल की बिक्री का प्रमुख कारण है। यह बोतलबंद जल प्लास्टिक प्रदूषण को जन्म देता है।
- संसाधनों की बर्बादी: RO महँगा होता है और 1 लीटर RO या बोतलबंद जल के लिये कई लीटर जल बर्बाद किया जाता है। इसके अलावा RO जल आवश्यक खनिजों और लवणों से वंचित होता है।
- सामाजिक प्रभाव: जल संकट की इस स्थिति में सभी को सुरक्षित पेयजल प्रदान करने के लक्ष्य (सतत् विकास लक्ष्य संख्या 6) की पूर्ति की संभावना कम हो जाती है।
आगे की राह
- डेटा आधारित प्रणाली: जल की गुणवत्ता का बार-बार परीक्षण करना चाहिये और इसके निष्कर्षों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। इससे नागरिकों, सेवा प्रदाताओं तथा सरकार की भागीदारी, संवेदनशीलता और जागरूकता में वृद्धि होगी।
- अनिवार्य अनुपालन: स्थानीय निकायों के लिये जल की गुणवत्ता के भारतीय मानक का अनुपालन करना अनिवार्य बना देना चाहिये। इसके लिये नगरपालिकाओं और अन्य स्थानीय निकायों को उत्तरदायी बनाया जा सकता है।
- जल का मूल्य निर्धारण: समाज के समृद्ध वर्गों के लिये जल का मूल्य निर्धारण किया जा सकता है ताकि उचित रखरखाव लागत वसूल हो जाए।
- बेहतर प्रबंधन: जल आपूर्ति के लिये लंबी दूरी के पाइपलाइनों को हतोत्साहित किया जाना चाहिये और जल उपचार को अधिकाधिक स्थानीयकृत किया जाना चाहिये।
- तकनीकी समाधान: ज़हरीले अकार्बनिक प्रदूषकों और घुलित ठोस पदार्थों को हटा सकने की सक्षमता के लिये जल उपचार संयंत्रों का उन्नयन। इसके अलावा भारत आज भी बांध निर्माण की पुरानी प्रथा का पालन कर रहा है और फिर खुली नहरों के माध्यम से पानी पहुँचा रहा है जिससे जल-जमाव जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं तथा पानी की वास्तविक मात्रा स्रोत तक स्थानांतरित नहीं हो पाती है। जबकि आज सूक्ष्म सिंचाई, स्प्रिंकल सिंचाई जिसमें पानी की हर एक बूँद का उपयोग किया जाता है, जैसी वैश्विक रूप से उपलब्ध तकनीकों को लागू किया जाना चाहिये।
- वर्षा जल संचयन: मुंबई का जल पीने के लिये अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित इसलिये है क्योंकि यह वर्षा जल (जल का शुद्धतम स्रोत) से प्राप्त होता है। इसलिये वर्षा जल संचयन को अधिकतम संभव सीमा तक प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- जल जीवन अभियान: जल जीवन अभियान के तहत 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में पाइप द्वारा जल पहुँचाने का सरकार का लक्ष्य सही दिशा में उठाया गया कदम है। हालाँकि पाइप द्वारा गुणवत्तायुक्त जल उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होगी।
- क्षेत्र आधारित जल की उपलब्धता: कृषि क्षेत्र की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए जल की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिये, साथ ही विशेष जलवायु क्षेत्र के लिये उपयुक्त फसल पद्धति का चुनाव भी करना चाहिये। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में गन्ना और पंजाब में धान वहाँ की जलवायु के लिये उपयुक्त फसलें नहीं हैं क्योंकि इन फसलों को अधिक पानी की आवश्यकता होती है जिससे दूसरी फसलों को कम पानी मिलता है और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है। कृषि क्षेत्र की ज़रूरतों के अनुसार ही पानी उपलब्ध करवाया जाना चाहिये जिससे पानी की बर्बादी न हो।