उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण
प्रीलिम्स के लिये
उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण क्या है?
मेन्स के लिये
आर्थिक संवृद्धि के मापन में उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण की भूमिका
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सरकार ने आँकड़ों की गुणवत्ता के मद्देनज़र वर्ष 2017-18 के दौरान उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (Consumer Expenditure Survey) जारी करने से मना कर दिया।
उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण क्या है?
- यह एक पंचवर्षीय सर्वेक्षण है जिसे सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वन मंत्रालय के (Ministry of Statistics and Programme Implementation-MOSPI) के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (National Sample Survey Office-NSSO) द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
- उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (Consumer Expenditure Survey-CES), पूरे देश के शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों से प्राप्त सूचना के आधार पर घरेलू स्तर पर होने वाले व्यय के पैटर्न को दर्शाता है।
- इस सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर किसी परिवार द्वारा वस्तुओं (खाद्य एवं गैर-खाद्य) तथा सेवाओं पर किये जाने वाले औसत खर्च एवं मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (Monthly Per Capita Expenditure-MPCE) का अनुमान लगाया जाता है।
उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (CES) की उपयोगिता:
- मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग के अनुमान से किसी अर्थव्यवस्था में मांग तथा वस्तुओं और सेवाओं को लेकर लोगों की प्राथमिकताओं का अंदाजा लगाया जाता है।
- इसके अलावा यह लोगों के जीवन स्तर एवं विभिन्न पैमानों पर आर्थिक संवृद्धि को दर्शाता है।
- यह संरचनात्मक विसंगतियों की पहचान करता है तथा आर्थिक नीतियों के निर्माण में मददगार साबित होता है जिससे मांग के पैटर्न का पता लगाया जा सके एवं वस्तु तथा सेवाओं के उत्पादकों को मदद मिल सके।
- CES एक विश्लेषणात्मक प्रक्रिया है जिसका प्रयोग सरकारें जीडीपी तथा अन्य वृहत आर्थिक संकेतकों के पुनर्निर्धारण (Rebasing) के लिये करती हैं।
विगत सर्वेक्षण (वर्ष 2011-12) के आँकड़े:
क्षेत्र | मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (MPCE) | भोजन पर खर्च (MPCE का प्रतिशत) | शिक्षा पर खर्च | अनाजों पर खर्च | घर का किराया |
शहरी क्षेत्र | 2,630 रुपए | 42.6 प्रतिशत | 7 प्रतिशत | 6.7 प्रतिशत | 6.2 प्रतिशत |
ग्रामीण क्षेत्र | 1,430 रुपए | 53 प्रतिशत | 3.5 प्रतिशत | 10.8 प्रतिशत | 0.5 प्रतिशत |
- वर्ष 2011-12 के आँकड़ों के अनुसार, बेहतर सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले राज्य तथा पिछड़े राज्यों के बीच असमानता में वृद्धि हुई है।
- MPCE के मामले में शीर्ष पाँच प्रतिशत राज्यों में यह ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 2,886 रुपए था, जबकि निचले पाँच प्रतिशत राज्यों के लिये 616 रुपए था।
- शीर्ष पाँच प्रतिशत राज्यों के शहरी क्षेत्रों के लिये MPCE 6,383 रुपए था, जबकि निचले पाँच प्रतिशत राज्यों के लिये यह 827 रुपए था।
वर्ष 2017-18 के सर्वेक्षण पर विवाद:
- हाल ही में मीडिया द्वारा यह दावा किया गया कि MPCE पर वर्ष 2017-18 के आँकड़ों में वर्ष 1972-73 के बाद पहली बार गिरावट दर्ज की गई है जो कि 3.7% है।
- इसके अनुसार वास्तविक कीमतों पर वर्ष 2011-12 में MPCE 1,501 रुपए (मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित) था जो वर्ष 2017-18 में घटकर 1,446 रुपए रह गया।
- इसके अलावा मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित उपभोग व्यय (Inflation Adjusted Consumption Expenditure) ग्रामीण क्षेत्रों में 8.8 प्रतिशत घट गया, जबकि शहरी क्षेत्रों में इसमें 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
- इसके विपरीत सरकार का मानना है कि वस्तु एवं सेवाओं के वास्तविक उत्पादन को दर्शाने वाले प्रशासनिक आँकड़ों से ज्ञात होता है कि विगत वर्षों में लोगों के उपभोग व्यय में न केवल वृद्धि हुई है बल्कि उनके उपभोग के पैटर्न में भी विविधता आई है।
- सरकार का यह भी कहना है कि अधिकांश परिवारों में स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी सामाजिक सेवाओं के उपभोग में वृद्धि हुई है।
- इसलिये सरकार इस सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों को लेकर संतुष्ट नहीं थी तथा इस मामले को विशेषज्ञों की एक समिति के पास भेजा गया।
- समिति का कहना है कि इस सर्वेक्षण में कई अनियमितताएँ हैं तथा इसमें प्रयुक्त शोध विधि को लेकर भी कई बदलाव किये जाने की आवश्यकता है।
- इसके अलावा कुछ अर्थशास्त्रियों का सरकार के विपरीत तर्क है कि मई 2019 में NSSO द्वारा प्रकाशित आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey-PLFS) 2017-18 के अनुसार, देश में बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर है तथा वेतन में स्थिरता बनी हुई है।
- इसके साथ ही केंद्र सरकार द्वारा प्रकाशित जीडीपी के आँकड़ों के मुताबिक, वर्तमान वित्तीय वर्ष के अप्रैल-जून तिमाही में निजी अंतिम उपभोग व्यय (Private Final Consumption Expenditure) पिछली 18 तिमाहियों के न्यूनतम स्तर पर था।
सरकार के निर्णय का प्रभाव:
- सरकार द्वारा CES के आँकड़े न जारी करने के इस निर्णय से वर्तमान उपभोक्ताओं के व्यय पैटर्न की सही जानकारी नहीं मिलेगी जिससे नीति निर्माताओं को आर्थिक सुधार से संबंधित रणनीति बनाने में मुश्किल होगी।
- वर्ष 2017-18 के आँकड़े न जारी होने से सरकार अगला सर्वेक्षण वर्ष 2020-21 या 2021-22 में जारी करेगी। इससे वर्ष 2011-12 में जारी आँकड़ों के बाद 9 या 10 वर्षों का अंतराल आएगा।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund-IMF) के विशेष आँकड़े प्रसार मानक (Special Data Dissemination Standard-SDDS) का भागीदार होने के नाते भारत वृहत स्तर के आर्थिक आँकड़े (Macro-Economic Data) प्रकाशित करने के लिये बाध्य है।
- इन मानकों में निम्नलिखित दिशा-निर्देश शामिल हैं-
- आँकड़ों का समयानुसार, निश्चित समय के अंतराल पर कवरेज
- आँकड़ों की जनता तक पहुँच
- आँकड़ों की गुणवत्ता
- आँकड़ों की अखंडता
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की एनुअल आब्ज़रवेंस रिपोर्ट (Annual Observance Report) 2018 के अनुसार, भारत अपने आर्थिक आँकड़ों के प्रकाशन में प्रायः देरी करता है जो SDDS के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है।
- राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (National Accounts Statistics) पर सलाहकार समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि वर्ष 2017-18 को जीडीपी के आधार वर्ष के तौर पर पुनर्निर्धारण हेतु प्रयोग करना उचित नहीं होगा क्योंकि इसके द्वारा जारी डेटा भविष्य में संदेहास्पद हो सकते हैं।