अग्रिम जमानत

प्रिलिम्स के लिये:

अपराधों के प्रकार, जमानत देने की शक्ति, CrPC, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

मेन्स के लिये:

विवेकहीन गिरफ्तारी का समाज पर प्रभाव, संवैधानिक संरक्षण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक विधायक को उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व-गिरफ्तारी जमानत या अग्रिम जमानत दी गई है, जिसे राज्य लोकायुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है।

जमानत और इसके प्रकार:

  • परिभाषा: जमानत कानूनी हिरासत में रखे गए व्यक्ति को, जब भी आवश्यक हो न्यायालय में उपस्थित होने के वादे के साथ, सशर्त/अनंतिम रिहाई है (ऐसे मामलों जिनमें न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया जाना बाकी है)। यह न्यायालय में सिक्यूरिटी/कोलैटरल जमा करने की आवश्यकता को दर्शाता है।
    • कानूनी मामलों के अधीक्षक और रिमेंबरेंसर बनाम अमिय कुमार रॉय चौधरी (1973) मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जमानत देने के सिद्धांत की व्याख्या की है।
  • भारत में जमानत के प्रकार: 
    • नियमित जमानत: यह न्यायालय (देश के भीतर किसी भी न्यायालय) द्वारा दिया गया एक निर्देश है जो पहले से ही गिरफ्तार और पुलिस हिरासत में रखे गए व्यक्ति को रिहा करने हेतु उपलब्ध है। ऐसी जमानत के लिये व्यक्ति CrPC की धारा 437 तथा 439 के तहत आवेदन दाखिल कर सकता है।
    • अंतरिम जमानत: न्यायालय द्वारा अस्थायी और अल्प अवधि हेतु जमानत दी जाती है, यह जमानत तब तक दी जा सकती है जब तक कि नियमित या अग्रिम जमानत हेतु आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित नहीं होता है।
    • अग्रिम जमानत या पूर्व-गिरफ्तारी जमानत: यह एक कानूनी प्रावधान है जो आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार होने से पहले जमानत हेतु आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में पूर्व-गिरफ्तारी जमानत का प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 में किया गया है। इसे केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है।
      • अग्रिम जमानत का प्रावधान विवेकाधीन है तथा न्यायालय अपराध की प्रकृति और गंभीरता, आरोपी के पूर्ववृत्त एवं अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद जमानत दे सकती है। न्यायालय जमानत देते समय कुछ शर्तें भी लगा सकता है, जिसमें पासपोर्ट ज़ब्त करना, देश छोड़ने पर प्रतिबंध या पुलिस स्टेशन में नियमित रूप से रिपोर्ट करना आदि शामिल हैं।

अग्रिम जमानत की न्यायिक व्याख्या: 

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने माना है कि अग्रिम जमानत देने की शक्ति केवल असाधारण मामलों में प्रयोग की जाने वाली एक असाधारण शक्ति है।
  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) का मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि धारा 438 (1) की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) के आलोक में की जानी चाहिये।
    • किसी व्यक्ति के अधिकार के रूप में अग्रिम जमानत हेतु समय-सीमा नहीं होती है। 
    • न्यायालय मामलों के आधार पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। 
  • सलाउद्दीन अब्दुलसमद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (1995) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के निर्णय को खारिज़ कर दिया और कहा कि "अग्रिम जमानत की एक समय-सीमा होनी चाहिये।"
  • एस.एस. म्हात्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2010) मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि "अग्रिम जमानत देने वाले आदेश की अवधि को कम नहीं किया जा सकता है।"
  • सुशीला अग्रवाल और अन्य बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली) (2020): न्यायालय ने माना कि अग्रिम जमानत एक 'सामान्य नियम' के रूप में एक निश्चित अवधि तक सीमित नहीं होगी। 

भारत में अग्रिम जमानत देने की शर्तें: 

  • अग्रिम जमानत की मांग करने वाले व्यक्ति को यह विश्वास होना चाहिये कि उसे गैर-जमानती अपराध के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है।
  • न्यायालय मौद्रिक बंधन भी लागू कर सकता है, जिसे अग्रिम जमानत मांगने वाले व्यक्ति को न्यायालय में पेश करने में विफल होने अथवा निर्देशित शर्तों का उल्लंघन करने की स्थिति में भुगतान करना होगा।
  • अग्रिम जमानत की मांग करने वाले व्यक्ति को आवश्यकता पड़ने पर जाँच अधिकारी के समक्ष पूछताछ के लिये उपलब्ध रहना होगा।
  • अदालत सीमित अवधि के लिये अग्रिम जमानत दे सकती है और इस अवधि के समाप्त होने पर उक्त व्यक्ति को आत्मसमर्पण करना होगा।
  • यहाँ ध्यान देना आवश्यक है कि अग्रिम जमानत देना न्यायालय के विवेक पर निर्भर है और यह पूर्ण अधिकार नहीं है। न्यायालय यह तय करने से पहले कि अग्रिम जमानत दी जाए अथवा नहीं, विभिन्न कारकों जैसे कि अपराध की प्रकृति और गंभीरता, अग्रिम जमानत मांगने वाले व्यक्ति के पूर्ववृत्त, व्यक्ति के फरार होने या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने की संभावना पर विचार करेगा।

अग्रिम जमानत रद्द करने के आधार: 

  • CrPC की धारा 437(5) और 439 अग्रिम जमानत रद्द करने से संबंधित हैं। इनका तात्पर्य यह है कि जिस न्यायालय के पास अग्रिम जमानत देने की शक्ति है, उसे तथ्यों पर उचित विचार कर जमानत को रद्द करने अथवा जमानत से संबंधित आदेश को वापस लेने का भी अधिकार है।
  • उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि कोई भी व्यक्ति जिसे उसके द्वारा जमानत पर रिहा किया गया है, गिरफ्तार किया जाए और शिकायतकर्त्ता या अभियोजन पक्ष द्वारा आवेदन दायर करने के बाद हिरासत में लाया जाए। हालाँकि न्यायालय के पास पुलिस अधिकारी द्वारा दी गई जमानत को रद्द करने की शक्ति नहीं है। 
  • वर्षों से अग्रिम जमानत ने एक ऐसे व्यक्ति की सुरक्षा (सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दी गई सुरक्षा) के रूप में कार्य किया है, जिसके खिलाफ झूठे आरोप लगाए गए हों। यह ऐसे झूठे आरोपी व्यक्ति की गिरफ्तारी से पहले ही रिहाई सुनिश्चित करता है।

निष्कर्ष:

  • गिरफ्तारी से पहले जमानत एक महत्त्वपूर्ण कानूनी प्रावधान है जो भारत में व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। 
  • यह प्रावधान आरोपी व्यक्ति को गैर-जमानती अपराध के लिये गिरफ्तार होने से पहले जमानत हेतु आवेदन करने की अनुमति देता है। न्यायालय अपराध की प्रकृति और गंभीरता, आरोपी की पृष्ठभूमि तथा अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद जमानत दे सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत देने के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये हैं, जिसके लिये न्यायालय को जमानत देते समय विभिन्न कारकों पर विचार करने की आवश्यकता होती है। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस