आंग्ल-मैसूर युद्ध
आंग्ल-मैसूर युद्ध भारत में ब्रिटिश एवं मैसूर के शासकों के मध्य चार सैन्य टकरावों की एक शृंखला थी।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69)
पृष्ठभूमि
- वर्ष 1612 में वाडियार राजवंश के अंतर्गत मैसूर क्षेत्र हिंदू राज्य के रूप में उभरा। चिक्का कृष्णराज वाडियार द्वितीय ने वर्ष 1734 से वर्ष 1766 तक शासन किया।
- हैदर अली जो वाडियार वंश की सेना में एक सैनिक के रूप में नियुक्त किया गया था, अपने महान प्रशासनिक कौशल एवं सैन्य रणनीति के बल पर मैसूर का वास्तविक शासक बन गया।
- 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हैदर अली के नेतृत्व में मैसूर एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा।
- मालाबार तट के समृद्ध व्यापार पर हैदर अली के नियंत्रण के साथ मैसूर की फ्राँसीसियों से निकटता ने अंग्रेजों के राजनीतिक एवं वाणिज्यिक हितों तथा मद्रास पर उनके नियंत्रण को खतरे में डाल दिया।
- बंगाल के नवाब के साथ बक्सर के युद्ध में अपनी सफलता के बाद अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर किये और निजाम जिसके पहले से ही मराठों के साथ मतभेद थे, की हैदर अली से रक्षा करने के लिये निजाम उत्तरी सरकार तट अंग्रेज़ों को सौंपने के लिये राज़ी हो गया।
- हैदर अली के विरुद्ध हैदराबाद का निजाम, मराठा एवं अंग्रेज़ एकजुट हो गए।
- हैदर अली ने कूटनीतिक रूप से मराठों को तटस्थ कर दिया एवं निजाम को अर्कोट के नवाब के विरुद्ध अपने सहयोगी के रूप में परिवर्तित कर लिया।
- हैदर अली के विरुद्ध हैदराबाद का निजाम, मराठा एवं अंग्रेज़ एकजुट हो गए।
हैदर अली
- एक अज्ञात परिवार में जन्मे हैदर अली (1721-1782) ने अपने सैन्य जीवन की शुरुआत राजा चिक्का कृष्णराज वाडियार की मैसूर सेना में घुड़सवार के रूप में की थी।
- वह अशिक्षित किंतु बुद्धिजीवी था और कूटनीतिक एवं सैन्य रूप से कुशल था।
- वह वर्ष 1761 में मैसूर का वास्तविक शासक बना एवं उसने फ्राँसीसी सेना की सहायता से अपनी सेना में पश्चिमी ढंग से प्रशिक्षण की शुरुआत की।
- अपने उत्कृष्ट सैन्य कौशल के साथ उसने निजाम की सेना एवं मराठों को पराजित कर दिया और वर्ष 1761-63 में डोड बल्लापुर, सेरा, बेदनूर व होसकोटे पर कब्ज़ा कर लिया तथा समस्याएँ उत्पन्न करने वाले दक्षिण भारत (तमिलनाडु) के पॉलीगरों को अपने अधीन कर लिया।
- विजयनगर साम्राज्य के समय से ही दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में पॉलीगरों अथवा पलक्कड़ों को सैन्य प्रमुख एवं प्रशासन संचालकों के रूप में नियुक्त किया जाता था। वे काश्तकारों से कर भी वसूलते थे।
- अपनी पराजय से उभरते हुए माधवराव के अधीन मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया एवं वर्ष 1764, 1766 और 1771 में हैदर अली को पराजित किया।
- शांति स्थापित करने के लिये हैदर अली को उन्हें बड़ी रकम चुकानी पड़ी, लेकिन वर्ष 1772 में माधवराव की मृत्यु के बाद हैदर अली ने वर्ष 1774-76 के दौरान कई बार मराठों पर आक्रमण किया एवं नए क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने के साथ-साथ उसके द्वारा हारे गए सभी क्षेत्रों को भी पुनः प्राप्त कर लिया गया।
युद्ध का परिणाम:
- युद्ध बिना किसी परिणाम के डेढ़ वर्ष तक जारी रहा।
- हैदर ने अपनी रणनीति परिवर्तित की और अचानक मद्रास पर आक्रमण कर दिया इससे मद्रास में अव्यवस्था एवं दहशत फैल गई।
- इसकी वजह से अंग्रेज हैदर के साथ 4 अप्रैल, 1769 को मद्रास की संधि करने के लिये विवश हो गए।
- इस संधि से कैदियों एवं विजित क्षेत्रों का आदान-प्रदान हुआ।
- किसी अन्य राज्य द्वारा आक्रमण किये जाने की स्थिति में हैदर अली को अंग्रेज़ों ने सहायता प्रदान करने का वादा किया।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84)
पृष्ठभूमि
- वर्ष 1771 में जब मराठा सेना ने मैसूर पर आक्रमण किया था तब अंग्रेज़ मद्रास की संधि का पालन करने में विफल रहे।
- हैदर अली ने उन पर विश्वास भंग करने का आरोप लगाया।
- इसके अलावा हैदर अली ने सेना की बंदूकों, शोरा एवं सीसा की आवश्यकताओं को पूरा करने के मामले में फ्राँसीसियों को अधिक साधन संपन्न पाया।
- नतीजतन उसने मालाबार तट पर फ्राँसीसियों के अधिकृत क्षेत्र माहे के माध्यम से मैसूर में फ्राँसीसी युद्ध सामग्री का आयात करना शुरू कर दिया।
- दोनों के बढ़ते संबंधों ने अंग्रेज़ों की चिंताएँ बढ़ा दीं।
- नतीजतन अंग्रेज़ों ने माहे को अपने अधिकार में लाने का प्रयास किया जो कि हैदर अली के संरक्षण में था।
युद्ध का परिणाम:
- हैदर अली ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध मराठों एवं निजाम के साथ गठबंधन किया।
- उसने कर्नाटक पर आक्रमण किया और अर्कोट पर कब्ज़ा कर लिया तथा वर्ष 1781 में कर्नल बेली के अधीन अंग्रेज़ी सेना को पराजित कर दिया।
- इस बीच अंग्रेज़ों (आयरकूट के नेतृत्त्व में) ने हैदर की तरफ से मराठों और निजाम दोनों को अलग कर दिया लेकिन हैदर अली ने साहसपूर्वक अंग्रेज़ों का सामना किया, उसे नवंबर 1781 में पोर्टोनोवो (वर्तमान में परगनीपेटाई, तमिलनाडु) में केवल एक बार पराजय का सामना करना पड़ा।
- हालाँकि उसने अपनी सेनाओं को पुनः संगठित किया एवं अंग्रेज़ों को पराजित कर उनके सेनापति ब्रेथवेट को बंदी बना लिया।
- 7 दिसंबर, 1782 को कैंसर के कारण हैदर अली की मृत्यु हो गई।
- उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने बिना किसी सकारात्मक परिणाम के एक वर्ष तक युद्ध जारी रखा।
- एक अनिर्णायक युद्ध से तंग आकर दोनों पक्षों ने शांति का विकल्प चुना और मैंगलोर की संधि (मार्च 1784) हुई, इसके तहत दोनों पक्षों ने एक दूसरे से जीते गए क्षेत्रों को वापस लौटा दिया।
टीपू सुल्तान
- टीपू सुल्तान का जन्म नवंबर 1750 में हुआ। वह हैदर अली का पुत्र था एवं एक महान योद्धा था जिसे ‘मैसूर टाइगर’ के रूप में भी जाना जाता है।
- वह उच्च शिक्षित था तथा अरबी, फारसी, कन्नड़ और उर्दू भाषा में पारंगत था।
- टीपू ने अपने पिता हैदर अली की तरह एक कुशल सैन्य बल के उत्थान एवं रखरखाव पर अधिक ध्यान दिया।
- ‘फारसी वर्ड्स ऑफ कमांड’ के साथ उसने यूरोपीय मॉडल पर अपनी सेना का गठन किया ।
- हालाँकि उसने अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिये फ्राँसीसी अधिकारियों की सहायता ली, लेकिन उसने उन्हें (फ्राँसीसियों को) एक हित समूह के रूप में विकसित नहीं होने दिया।
- टीपू नौसेना बल के महत्त्व के बारे में भली-भाँति अवगत था।
- वर्ष 1796 में उसने एक नौवाहन बोर्ड का निर्माण किया एवं 22 युद्धपोतों एवं 20 लड़ाकू जहाज़ों के बेड़े के निर्माण की योजना बनाई।
- उसने मैंगलोर, वाज़िदाबाद और मोलीदाबाद में तीन डॉकयार्ड स्थापित किये। हालाँकि उसकी ये योजनाएँ फलीभूत नहीं हुईं।
- वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का संरक्षक भी था और उसे भारत में ‘रॉकेट प्रौद्योगिकी के प्रणेता’ के रूप में श्रेय दिया जाता है।
- उसने रॉकेट संचालन की व्याख्या करते हुए एक सैन्य पुस्तिका लिखी।
- वह मैसूर राज्य में रेशम उत्पादन का भी प्रणेता था।
- टीपू लोकतंत्र प्रेमी एवं एक महान कूटनीतिज्ञ था जिसने वर्ष 1797 में जैकोबियन क्लब की स्थापना के लिये श्रीरंगपटनम में फ्राँसीसी सैनिकों को समर्थन दिया था।
- टीपू स्वयं जैकोबियन क्लब का सदस्य बन गया और उसने स्वयं को ‘नागरिक टीपू’ कहलवाया।
- उसने श्रीरंगपटनम में स्वतंत्रता का वृक्ष लगाया।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92)
पृष्ठभूमि
- मैंगलौर की संधि टीपू सुल्तान एवं अंग्रेज़ों के मध्य विवादों को हल करने के लिये पर्याप्त नहीं थी।
- दोनों ही दक्कन पर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने का लक्ष्य रखते थे।
- तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध तब शुरू हुआ जब टीपू ने अंग्रेज़ों के एक सहयोगी त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया, त्रावणकोर ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये काली मिर्च का एकमात्र स्रोत था।
- त्रावणकोर ने कोचीन राज्य में डचों से जलकोट्टल एवं कन्नानोर खरीदा था जो टीपू की एक जागीरदारी थी, उसने त्रावणकोर के कृत्य को अपने संप्रभु अधिकारों का उल्लंघन माना।
युद्ध के परिणाम
- अंग्रेज़ों ने त्रावणकोर का साथ दिया एवं मैसूर पर आक्रमण कर दिया।
- टीपू की बढ़ती शक्ति से ईर्ष्या रखने वाले निजाम एवं मराठा अंग्रेज़ों से मिल गए।
- वर्ष 1790 में टीपू सुल्तान ने जनरल मीडोज़ के नेतृत्त्व में ब्रिटिश सेना को हराया।
- वर्ष 1791 में लॉर्ड कार्नवालिस ने नेतृत्व संभाला और बड़े सैन्य बल के साथ अंबूर एवं वेल्लोर होते हुए बैंगलोर (मार्च 1791 में अधिकृत) तथा वहाँ से श्रीरंगपटनम तक पहुँचा।
- और अंत में मराठों एवं निजाम के समर्थन के साथ अंग्रेज़ों ने दूसरी बार श्रीरंगपटनम पर आक्रमण किया।
- टीपू ने अंग्रेज़ों का डटकर सामना किया परंतु सफल नहीं हो सका।
- वर्ष 1792 में श्रीरंगपटनम की संधि के साथ युद्ध समाप्त हुआ।
- इस संधि के तहत मैसूर क्षेत्र का लगभग आधा हिस्सा ब्रिटिश, निजाम एवं मराठों के गठबंधन द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया था।
- बारामहल, डिंडीगुल एवं मालाबार अंग्रेज़ों को मिल गए, जबकि मराठों को तुंगभद्रा एवं उसकी सहायक नदियों के आसपास के क्षेत्र मिले और निजाम ने कृष्णा नदी से लेकर पेन्नार से आगे तक के क्षेत्रों पर अधिग्रहण कर लिया।
- इसके अतिरिक्त टीपू से तीन करोड़ रुपए युद्ध क्षति के रूप में भी लिये गए।
- युद्ध क्षति पूर्ति का आधा भुगतान तुरंत किया जाना था जबकि शेष भुगतान किश्तों में किया जाना था, जिसके लिये टीपू के दो पुत्रों को अंग्रेज़ों द्वारा बंधक बना लिया गया था।
- इस संधि के तहत मैसूर क्षेत्र का लगभग आधा हिस्सा ब्रिटिश, निजाम एवं मराठों के गठबंधन द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया था।
- तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण दक्षिण में टीपू की प्रभावशाली स्थिति नष्ट हो गई एवं वहाँ ब्रिटिश वर्चस्व स्थापित हो गया।
चतुर्थ आंग्ल-मराठा युद्ध (1799)
पृष्ठभूमि
- वर्ष 1792-99 की अवधि के दौरान अंग्रेज़ों और टीपू सुल्तान दोनों ने अपनी क्षति पूर्ति का प्रयास किया।
- टीपू ने श्रीरंगपटनम की संधि की समस्त शर्तों को पूर्ण किया एवं उसके पुत्रों को मुक्त कर दिया गया।
- वर्ष 1796 में जब वाडियार वंश के हिंदू शासक की मृत्यु हो गई, तो टीपू ने स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया और पिछले युद्ध में अपनी अपमानजनक पराजय का बदला लेने का निर्णय किया।
- वर्ष 1798 में लॉर्ड वेलेजली को सर जॉन शोर के पश्चात नया गवर्नर जनरल बनाया गया।
- फ्राँस के साथ टीपू के बढ़ते संबधों के कारण वेलेजली की चिताएँ बढ़ गईं।
- टीपू के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करने के उद्देश्य से उसने सहायक संधि प्रणाली के माध्यम से उसे अपने अधीन करने के लिये विवश किया।
- टीपू पर विश्वासघात के इरादे से अरब, अफगानिस्तान एवं फ्राँसीसी द्वीप (मॉरीशस) और वर्साय में गुप्तचर भेजकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया गया। टीपू से वेलेजली संतुष्ट नहीं हुआ और इस तरह चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध शुरू हुआ।
सहायक संधि
- वर्ष 1798 में लॉर्ड वेलेजली ने भारत में सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत की, जिसके तहत सहयोगी भारतीय राज्य के शासक को अपने शत्रुओं के विरुद्ध अंग्रेज़ों से सुरक्षा प्राप्त करने के बदले में ब्रिटिश सेना के रखरखाव के लिये आर्थिक रूप से भुगतान करने को बाध्य किया गया था।
- इसने संबंधित शासक के दरबार में एक ब्रिटिश रेज़िडेंट की नियुक्ति का प्रावधान किया, जो शासक को अंग्रेज़ों की स्वीकृति के बिना किसी भी यूरोपीय को उसकी सेवा में नियुक्त करने से प्रतिबंधित करता था।
- कभी-कभी शासक वार्षिक रूप से आर्थिक भुगतान करने के बजाय अपने क्षेत्र का हिस्सा सौंप देते थे।
- सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाला पहला भारतीय शासक हैदराबाद का निजाम था।
- सहायक संधि करने वाले देशी राजा अथवा शासक किसी अन्य राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने या अंग्रेज़ों की सहमति के बिना समझौते करने के लिये स्वतंत्र नहीं थे।
- जो राज्य तुलनात्मक रूप से मज़बूत एवं शक्तिशाली थे, उन्हें अपनी सेनाएँ रखने की अनुमति दी गई थी, लेकिन उनकी सेनाओं को ब्रिटिश सेनापतियों के अधीन रखा गया था।
- सहायक संधि राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति थी, लेकिन इसका पालन अंग्रेज़ों ने कभी नहीं किया।
- मनमाने ढंग से निर्धारित एवं भारी-भरकम आर्थिक भुगतान ने राज्यों की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया एवं राज्यों के लोगों को गरीब बना दिया।
- वहीं ब्रिटिश अब भारतीय राज्यों के व्यय पर एक बड़ी सेना रख सकते थे।
- वे संरक्षित सहयोगी की रक्षा एवं विदेशी संबंधों को नियंत्रित करते थे तथा उनकी भूमि पर शक्तिशाली सैन्य बल की तैनाती करते थे।
युद्ध का परिणाम:
- 17 अप्रैल, 1799 को युद्ध शुरू हुआ और 4 मई, 1799 को उसके पतन के साथ युद्ध समाप्त हुआ। टीपू को पहले ब्रिटिश जनरल स्टुअर्ट ने पराजित किया एवं फिर जनरल हैरिस ने।
- लॉर्ड वेलेजली के भाई आर्थर वेलेजली ने भी युद्ध में भाग लिया।
- मराठों और निजाम ने पुनः अंग्रेज़ों की सहायता की क्योंकि मराठों को टीपू के राज्य का आधा भाग देने का वादा किया गया था एवं निजाम पहले ही सहायक संधि पर हस्ताक्षर कर चुका था।
- टीपू सुल्तान युद्ध में मारा गया एवं उसके सभी खजाने अंग्रेजों द्वारा जब्त कर लिये गए।
- अंग्रेज़ों ने मैसूर के पूर्व हिंदू शाही परिवार के एक व्यक्ति को महाराजा के रूप में चुना एवं उस पर सहायक संधि आरोपित कर दी।
- मैसूर को अपने अधीन करने में अंग्रेजों को 32 वर्ष लग गए थे। दक्कन में फ्राँसीसी पुनः प्रवर्तन का खतरा स्थायी रूप से समाप्त हो गया।
युद्ध के पश्चात का परिदृश्य
- लॉर्ड वेलेजली ने मैसूर साम्राज्य के सूंदा एवं हरपोनेली ज़िलों को मराठों को देने की पेशकश की, जिसे बाद में मना कर दिया गया।
- निजाम को गूटी एवं गुर्रमकोंडा ज़िले दिये गए थे।
- अंग्रेज़ों ने कनारा, वायनाड, कोयंबटूर, द्वारापुरम एवं श्रीरंगपटनम पर अधिकार कर लिया।
- मैसूर का नया राज्य एक पुराने हिंदू राजवंश के कृष्णराज तृतीय (वाडियार) को सौंप दिया गया, जिसने सहायक संधि स्वीकार कर ली।