जम्मू-कश्मीर की वर्षों से चली आ रही दुविधा
संदर्भ
हाल ही में भारतीय जनता पार्टी ने यह कहते हुए कि 'जम्मू-कश्मीर में बढ़ते कट्टरपंथ और चरमपंथ के कारण सरकार में बने रहना मुश्किल हो गया था', पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ राज्य में क़रीब तीन साल तक गठबंधन में रहने के बाद समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। सरकार की दुविधा जहाँ एक तरफ, घाटी में बढ़ते विद्रोह और अशांति के लिये राजनीतिक समाधान खोजने हेतु जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक स्थिरता और मित्रवत सरकार की ज़रूरत थी तो वहीँ दूसरी तरफ, भाजपा को श्रीनगर के खिलाफ खड़े होने के लिये जम्मू में अपने हिंदू निर्वाचन क्षेत्र को शांत करने की ज़रूरत थी। अंत में पार्टी ने कश्मीर में शांति खोजने की दीर्घकालिक आवश्यकताओं से अलग अल्पकालिक चुनावी लाभ का चयन किया।
क्या है जम्मू कश्मीर की दुविधा?
- जम्मू कश्मीर की कुछ ऐसी दुविधा है जिसके साथ भारतीय सरकारों ने लगातार कई दशकों से संघर्ष किया है।
- जम्मू की राजनीति ने राष्ट्रीय राजनीति पर हमेशा एक गहरा प्रभाव डाला है और श्रीनगर-दिल्ली संबंधों को जटिल बना दिया है।
- एक हिंदू बाहुल्य देश के मुस्लिम बहुलता वाले राज्य में हिंदू बाहुल्य क्षेत्र जम्मू की जनसांख्यिकीय वास्तविकता है, जो इसे धर्म और पहचान की राजनीति के लिये एक अनिवार्य घटक के रूप में प्रस्तुत करती है तथा अनिवार्य रूप से पूरे राज्य में स्थिरता लाने का प्रयास करती है।
कश्मीर की दुविधा का प्रारंभिक इतिहास
- गणतंत्र के शुरुआती दिनों में ही भारत को पहली बार इस समस्या का सामना करना पड़ा था, जब जम्मू की अशांत और धार्मिक राजनीति के मिश्रण ने कश्मीर समस्या का स्थायी हल निकालने के लिये सबसे मजबूत प्रयासों में से एक जम्मू प्रजा परिषद (जेपीपी) द्वारा आंदोलन को शुरू किया गया था।
- यह आंदोलन 1952-53 में लगभग एक साल तक चला था।
- 1952 में भारत कश्मीर समस्या को हल करने के करीब था। जम्मू-कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला श्रीनगर में एक स्थिर सरकार स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनकी व्यक्तिगत दोस्ती के आधार पर दिल्ली के साथ अच्छे संबंध भी विकसित किये थे।
- दोनों पक्षों ने जुलाई 1952 के दिल्ली समझौते पर भारत और जम्मू-कश्मीर के लिये संघीय ढाँचे की स्थापना की। इसके तुरंत बाद, पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री मोहम्मद अली ने ‘एक वर्ष के भीतर’ कश्मीर का शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिये नेहरू के साथ वार्ता की एक श्रृंखला शुरू की।
- दुर्भाग्यवश, मिलनसारिता का यह क्रम 1952 के अंत में जम्मू में भड़की हिंसा के कारण उत्पन्न अशांति के चलते बीच में ही समाप्त हो गया।
- 1947 में आरएसएस नेता बलराज मधोक द्वारा स्थापित एक स्थानीय हिंदू पार्टी JPP, राज्य सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आई।
- शुरुआती आंदोलन अब्दुल्ला की भूमि सुधार प्रक्रिया के कारण हुआ था, जिसने जम्मू में भूमि मालिकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला था।
- हालाँकि, जल्द ही आंदोलन ने अतिराष्ट्रवाद का रूप धारण कर लिया था। "एक विधान, एक निशान, एक प्रधान (One constitution, one flag and one Premier)" इस रैली का नारा बन गया।
- इसके तुरंत बाद, दक्षिणपंथी पार्टियों ने इस मुद्दे पर विभिन्न रैलियाँ निकालीं। इनमें तत्कालीन शक्तिशाली हिंदू महासभा, बीजेपी की पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक एक छोटी सी पार्टी शामिल थी।
- एस.पी मुखर्जी के नेतृत्व में इन पार्टियों ने फरवरी 1953 में जम्मू आंदोलनकारियों के समर्थन में राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया। इस बीच, नेहरू को स्वयं जम्मू-कश्मीर समस्या का सामना करना पड़ा।
- उन्होंने यह विश्वास बनाए रखा कि कश्मीर समस्या का राजनीतिक हल निकालने में अब्दुल्ला सरकार ने सबसे अच्छा प्रयास किया।
- लेकिन उन्हें जम्मू आंदोलन और इसके साथ-साथ हिंदू दक्षिण-पंथी अभियान को शांत करने का रास्ता भी ढूंढना पड़ा।
- कई महीनों तक उन्होंने आंदोलनकारियों के साथ किसी भी समझौते का विरोध करना जारी रखा, हिंदू दक्षिण-पंथियों पर हमला किया और अब्दुल्ला को पूर्ण समर्थन दिया।
- हालाँकि, मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्हें आंदोलनकारियों से अपील करनी पड़ी। उसके बाद शीघ्र ही आंदोलन समाप्त कर दिये गए थे।
दिल्ली समझौता
- कश्मीरी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के बीच 1952 में दिल्ली समझौता हुआ जिसके अनुसार अनुच्छेद 370 के तहत राज्य की विशेष स्थिति बरक़रार रहेगी लेकिन राष्ट्रपति चाहे तो इस अनुच्छेद को समाप्त कर सकता है।
- राष्ट्रपति को अपने विवेकाधिकार से कुछ केंद्रीय क़ानून जम्मू-कश्मीर राज्य में भी लागू करने का अधिकार दिया गया।
- राज्य के राज्यपाल को सदरे रियासत और मुख्यमंत्री के पद को जम्मू-कश्मीर में प्रधानमंत्री का नाम दिया गया। जिसे 1960 के दशक में बदलकर राज्यपाल और मुख्यमंत्री कर दिया गया।
(टीम दृष्टि इनपुट)
आंदोलन से हुए नुकसान
- इस आंदोलन ने अब्दुल्ला को राजनितिक रूप से कमज़ोर कर दिया था और नेहरू के साथ उनके संबंध खराब हो चुके थे।
- आंदोलन शांत होने के एक महीने बाद, अब्दुल्ला को सत्ता से हटा दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया।
- सरकारी रिकॉर्ड से अभी तक यह नहीं पता चला है कि वास्तव में गिरफ्तारी का आदेश किसने दिया था। हालाँकि, जम्मू आंदोलन ने निश्चित रूप से इसके लिये मार्ग प्रशस्त किया।
- आंदोलन का सबसे गहरा प्रभाव यह पड़ा कि इसने कश्मीरियों को दिल्ली के खिलाफ़ कर दिया।
- नेहरू ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि इस आंदोलन ने कश्मीर में सद्भावना पैदा करने के लिये भारत सरकार द्वारा किये गए वर्षों के प्रयास को समाप्त कर दिया।
- इस आंदोलन के वास्तविक विजेता मात्र हिंदू दक्षिणपंथी दल थे।
- इस विरोध अभियान ने उन्हें अपने आधार का विस्तार करने और भारतीय जनता की नज़र में वैधता हासिल करने की अनुमति दी। उनके लिये नेहरू द्वारा की गई सीधी अपील को उनके राजनीतिक स्तर को बढ़ावा देने के रूप में भी प्रस्तुत किया गया था।
कश्मीर में राज्यपाल शासन
वर्ष 1977 से यह आठवीं बार है जब जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लगा है।
जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन ही क्यों राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं?
- देश के अन्य सभी राज्यों में राजनीतिक दलों के सरकार न बना पाने या राज्य सरकारों के विफल होने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है जबकि जम्मू-कश्मीर में मामला थोड़ा अलग है।
- यहाँ राष्ट्रपति शासन नहीं बल्कि राज्यपाल शासन लगाया जाता है। जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत राज्य में छह महीने के लिये राज्यपाल शासन लागू किया जाता है, हालाँकि देश के राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद ही ऐसा किया जा सकता है।
- भारत के संविधान में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है।
- यह देश का एकमात्र राज्य है जिसके पास अपना ख़ुद का संविधान और अधिनियम है।
- देश के अन्य राज्यों में राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत लगाया जाता है।
- जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिलने के बाद छह महीने तक राज्यपाल शासन लगाया जा सकता है।
- इस दौरान विधानसभा या तो निलंबित रहती है या इसे भंग कर दिया जाता है।
- अगर इन छह महीनों के भीतर राज्य में संवैधानिक तंत्र बहाल नहीं हो जाता, तब राज्यपाल शासन की समयसीमा को फिर बढ़ा दिया जाता है।
- जम्मू-कश्मीर में पहली बार 1977 में राज्यपाल शासन लगाया गया था। तब कॉन्ग्रेस ने शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस से अपना समर्थन वापल ले लिया था।
केंद्र कब दे सकता है दखल?
- भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में कुछ विशेष मामलों में ही राज्यपाल शासन लगा सकती है। केवल युद्ध और बाहरी आक्रमण के मामले में ही राज्य में आपातकाल लगाया जा सकता है।
- केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में केवल रक्षा, विदेश नीति, वित्त और संचार के मामलों में ही दखल दे सकती है।
अलग है जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा
जम्मू-कश्मीर भारत के अन्य राज्यों की तरह नहीं है क्योंकि इसे सीमित संप्रभुता प्राप्त है और इसीलिये इसे 1969 में विशेष राज्य का दर्जा दिया गया। लेकिन जम्मू-कश्मीर ने भारत के अधिराज्य को स्वीकार करते हुए सीमित संप्रभुता हासिल की थी और अन्य देशी रियासतों की तरह भारत के अधिराज्य के साथ उसका विलय नहीं हुआ था, इसलिये इसका विशेष दर्जा अन्य ऐसे राज्यों से कुछ अलग है, जिन्हें विशेष श्रेणी के राज्यों का दर्जा मिला हुआ है।
- देश के अन्य राज्यों में लागू होने वाले केंद्रीय कानून इस राज्य में लागू नहीं होते। इसके लिये राज्य सरकार की सहमति होना ज़रूरी है।
- रक्षा, विदेश नीति, संचार और वित्त के मामलों में ही भारत सरकार का दखल होता है।
- केंद्र सरकार संघीय और समवर्ती सूची में आने वाले विषयों पर जम्मू-कश्मीर के लिये कानून नहीं बना सकती।
- इस विशेष दर्जे के कारण जम्मू-कश्मीर को कुछ ऐसी विधायी और राजनीतिक शक्तियाँ भी मिली हुई हैं, जो अन्य राज्यों को प्राप्त नहीं हैं।
क्यों दिया गया विशेष राज्य का दर्जा?
- यह एक सीमावर्ती पर्वतीय राज्य है, जिसकी अंतर्राष्ट्रीय सीमाएँ चीन और पाकिस्तान से लगती हैं।
- इस क्षेत्र को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद देश विभाजन के समय से लगातार बना हुआ है।
- पाकिस्तानी सेना द्वारा लगातार युद्धविराम का उल्लंघन।
- वर्ष 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के पश्चात् राज्य में अस्थायित्व की स्थिति।
- उग्रवादियों और भारतीय सैनिकों के मध्य संघर्ष का क्षेत्र बना हुआ है।
- राज्य में अफस्पा लागू होना, जिससे पता चलता है कि यह एक अशांत क्षेत्र है।
- चीन (1962) और पाकिस्तान (1965,1971,1999) के साथ हुए युद्धों से राज्य की स्थिति कमज़ोर हो चुकी थी।
- संयुक्त राष्ट्र की भागीदारी से यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बन चुका था।
(टीम दृष्टि इनपुट)
निष्कर्ष
- जम्मू-कश्मीर में दुविधा बनी हुई है और राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। भारतीय जनता पार्टी न केवल नई दिल्ली में सत्ताधारी पार्टी है बल्कि यह देश में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है। श्रीनगर सरकार से समर्थन वापस लेने का इसका रहस्यवादी निर्णय इसके स्वयं के पुराने तरीके के बिलकुल विपरीत है। इसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- वास्तव में, जम्मू में अपनी प्रमुख स्थिति के कारण यह पिछली सरकारों की तुलना में इस समस्या का प्रबंधन करने के लिये तर्कसंगत रूप से बेहतर है। सतही राजनीतिक लाभों को आगे बढ़ाने की बजाय, केंद्र में बीजेपी की सरकार को पूरे राज्य के लिये स्थायी राजनीतिक समाधान खोजने हेतु इसे अपनी अनूठी स्थिति का उपयोग करना चाहिये।